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नाम में क्या रखा है

नाना के पास कहानियां थीं. नानी तो हमारे कहानी सुनने की उम्र से पहले ही खुद कहानी हो गईं थीं इसलिए हमने जब कहानी को कहानी की तरह पाया तो सामने नाना थे. शायद यही वजह रही हो कि हमें नानी और कहानी वाली राइमिंग की कोई कविता अच्छी नहीं लगी. (Column by Amit Srivastava)

कहानियों में उनके दोस्त थे चार. उनके खुद के दोस्त. चारों सगे भाई. तब भी कहानियों में राजा-रानी होते रहे होंगे लेकिन ये नाना का इम्प्रोवाइजेशन था या वो हमारे विश्वास करने के बूते को चेक करना चाहते थे, कह नहीं सकते लेकिन उनकी कहानी में उनके दोस्त थे. चार दोस्त. चार नाम थे वो हमारे लिए. आफत, बिपद, फजीहत और परलय. स्कूली शिक्षा के मारे थे लेकिन हम उन्हें करेक्ट नहीं करते थे… आफ़त, विपदा, फ़जीहत, प्रलय. हम कर भी नहीं सकते थे क्योंकि वो नाम थे और नाम में कुछ रक्खा होता है. (Column by Amit Srivastava)

चारों एक साथ दोस्त कैसे हो सकते हैं छोटे-बड़े तो होंगे, ये पूछने से पहले ही बता देते कि किसी ने उन्हें पेड़ पर चढ़ना सिखाया तो दोस्ती गाँठ ली, किसी ने ठाकुरान के पीछे वाले पोखरे में अमिया घाट से भैंसिया नहान घाट तक आर-पार तैरना सिखाया तो साथ हो लिए.

नाना जाति नहीं बताते थे. घर बताते थे. चमरौटी. तब हम सकते में नहीं आते थे.

चूंकि नाम में कुछ रक्खा होगा इसलिए हमने भी बार-बार इन अजीब नामों वाले किरदारों की कहानी सुनी. पहली कहानी सुनाए जाने तक, नाना को खुद कहानी हुए भी 27 बरस हो चुके हैं, तीन दोस्त उनके सिधार चुके थे. आफत के जीवन में कोई आफ़त नहीं आई, बिपद किसी पर भी विपत्ति बनकर नहीं टूटे और फजीहत तो बाकायदा बनारस में जूतों की बड़ी दूकान अपने वारिसों को सौंपकर लौटे.

कहानी में परलय का क्या हुआ ये नहीं जानते थे हम. नाना ने आख़िरी कहानी नहीं सुनाई. चूंकि नाम में कुछ रक्खा होगा इसलिए उस दिन उन्होंने परलय की कहानी सुनाई जिस दिन कुँए पर लट्ठ चले थे. वो आख़िरी कहानी थी.

भदोई कालीन फैक्ट्री में लग गया था परलय. उसके दो बेटे एक बेटी थी. पत्नी थी. पत्नी उसकी बहुत सुन्दर थी. वो हफ्ते में एक-दो दिन ही आ पाता गांव. एक बार आया तो झोपड़े में जाने क्या देखा कि भागता हुआ ठकुरान चला गया. गया तो साबुत लेकिन लौटा नहीं.

नाना कहते-कहते चुप हो गए थे. फिर सांस को कांप के साथ अंदर लिया और बोले उस दिन पोखरा समुन्दर हो गया शायद. परलय को लील गया कम्बख़त. उस दिन रात में जून का सूरज निकला था. परलय के झोपड़े में आग लग गई थी. घण्टे भर बाद जले हुए ठूँठ की तरह चार लाशें मिलीं बस.

हम सकते में आ गए थे अब. परलय ज़िंदा नहीं था. परलय पहली कहानी सुनाने से पहले ही मर चुका था.

ये समझ कर कि हम समझ गए नाना देर तक चुप हो गए थे. फिर सांस पीते हुए कहा ठाकुर साहब का नाम राम सनेही सिंह था. नाम में कुछ रक्खा था. नाना ने पोटली बनाकर उसे कहानी में सरका दिया. अब हमारे लिए नाम में कुछ नहीं रक्खा. 

अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण)



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