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रंगरूटी में निखरती हनुमंत की जवानी

हनुमंत सिंह के बड़े भाई फौज में थे. उन दिनों वे किसी अफसर के ‘खास आदमी’ थे. कहने का तात्पर्य है कि, वे ‘बटमैन’ का ओहदा संभाले हुए थे. संयोग से वही अफसर ‘रिक्रूटमेंट अफसर’ होकर बहाल हुआ था. कहने का मतलब है कि, भर्ती खुली हुई थी. भाई ने मौका भुनाने में जरा भी देरी नहीं की. उसने फौरन, हनुमंत के नाम तार भेजा. कहीं देर न हो जाए, इसलिए शीघ्रगामी संदेश के मार्फत उसे भर्ती में शामिल होने का बुलावा भेजा- ‘फौरन चले आओ, देरी मत करना. आठवीं की टी.सी. जरूर साथ लेते आना.’

टेलीग्राम तब बहुत डरावना प्रभाव पैदा करते थे. चाहे वो खुशी की ही खबर क्यों न हो, टेलीग्राम का नाम सुनते ही रोना-पीटना मच जाता था. शीघ्र संचार का माध्यम होने के नाते, आमजन यह अनुभव करता था कि, हो-न-हो, जरूर कोई अनहोनी की खबर आई है. नहीं तो भला टेलीग्राम क्यों आता. तो तार आया है, सुनते ही कोहराम मच जाता था. उमरदराज लोग चेहरा लटका लेते और महिलाएं रोना-पीटना मचाना शुरू कर देती.

बहरहाल जैसे ही तार मिला, हनुमंत सिंह ने तार पढ़वाने के लिए, गुर्जी के घर की दौड़ लगा दी. मन में उसके धुकधुकी मची हुई थी. अपने इष्ट देवताओं को स्मरण करता हुआ, ‘हे भगवान! सब कुछ ठीक रहा, तो सवा रूपये का प्रसाद चढ़ाऊँगा’ का जाप करता हुआ चला जा रहा था. गुर्जी ने तार पढ़ा- ‘रिक्रूटमेंट ओपन…कम सून.. टेक अलॉन्गविद, एड्थपास टीसी…’ गुर्जी ने हनुमंत को मतलब समझाया, आश्वस्त किया- “कोई अनहोनी की बात नहीं है.. अरे भाई..ये तो होनी का बुलावा है.”

फिर उन्होंने उसे लब्बोलुआब समझाया. ‘भर्ती खुली हुई है… तुमको जलंधर बुलाया है… आठवीं दर्जे की टी.सी. के साथ .’ गुर्जी कहने को तो कह गए, लेकिन संदेश ऐसा था कि, दोनों सोच में पड़कर रह गए. मामला अर्जेंट था. टी.सी. का इंतजाम करना जरूरी था, लेकिन इंतजाम हो तो कैसे, मामला यहीं पर फँसकर रह गया. हनुमंत की उम्र भी तो कुछ ज्यादा ही हो चली थी. जिस उम्र में राइफलमैन रिटायर होकर घर चले आते हैं, उसके आसपास की उम्र रही होगी. गुर्जी बड़े धर्मसंकट में फँसकर रह गए. हनुमंत अवाक् होकर बैठा रहा. स्कीम भी तो भाई ने ऐसी बताई थी कि, जिसके बारे में उसने कभी सोचा तक नहीं था. फसल सही समय पर बोने की बात होती, बैल-बधिया-जानवरों की खरीद-फरोख्त ही बात होती, कहीं पर हाड़-तोड़ मेहनत की बात होती, तो वो चुटकी में हल करके रख देता. वर्तमान संकट उसकी समझ से बाहर की बात थी. जब काफी सोच-विचार हो चुका, तो आखिर समाधान गुर्जी ने ही निकाला. वे वरदान देने को तैयार हो गए. जोड़-जुगत करके उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे- टीसी में ही उमर का निदान भी करके थमा दिया.

तो हनुमंत सिंह अपना झोला-झंडी उठाए सफर पे निकल पड़े. ट्रेन पकड़ी और अगले दिन भाई के डेरे पर जा पहुँचे. भाई ने अपने हिसाब से उनकी कई-कई बार ‘ब्रीफिंग-डिब्रीफिंग’ की. नियम-कायदे, कई-कई बार दोहराए.

आखिरकार वो घड़ी आ ही गई, जब उन्हें पीएफटी(फिजिकल फिटनेस टेस्ट) में शामिल होने का मौका मिला. पहला आइटम था, सोलह सौ मीटर की दौड़, जो पाँच मिनट चालीस सेकंड में पूरी करनी थी. ग्राउंड नौजवानों से खचाखच भरा हुआ था. तब भर्ती होने का सपना, बहुत बड़ा सपना होता था. इस सपने को पूरा करने के लिए लड़के दिन-रात मेहनत करते थे. दौड़ की प्रैक्टिस में जुटे रहते. भर्ती होने के लिए सख्त मेहनत और लगन की जरूरत पड़ती थी.

हनुमंत भाई, ट्रैक पर तैयार खड़े मिले. कहने भर को ट्रैक था, मैदान में भीड़ की रेलमपेल मची हुई थी. जैसे-तैसे भर्ती-दल ने उन्हें रस्सा खींचकर ‘लाइनअप’ किया. हनुमंत जान गए कि, इस मुकाबले में नौजवान बछड़े ज्यादा हैं. भाई ने उन्हें आगाह किया था- ‘पीछे रहने का मतलब है, भगदड़ में फँस जाना.’ जिस बात के लिए वे कतई तैयार नहीं थे. पीछे रहने का मतलब था- फिर वही जीवन. वहीं हल- बैल, जानवरों का संग. इन बातों को सोचकर, हनुमंत भाई के दिमाग को एक झटका सा लगा. ऐन मौके पर उनकी व्यवहार बुद्धि काम कर गई. जैसे ही, ‘स्टार्ट’ के लिए रुमाल गिरा, उन्होंने बिजली की गति से दौड़ लगा दी. न कहीं रुके, न ही धीमे हुए. पूरी जान लड़ा दी. उन्होंने ‘फिनिशिंग टेप’ पर जाकर ही दम लिया. हैरानी की बात थी कि, पूरी दौड़ को उन्होंने ही लीड किया, उनके पीछे, काफी दूर तक, कहीं कोई दूसरा नहीं दिखाई दिया. संक्षेप में, हनुमंत भाई ने सब को धोकर रख दिया. समय से पहले, दौड़ पूरी करने पर उन्हें ‘एक्सीलेंट कैटेगरी’ मिली.

बीम पर दस या दस से ज्यादा ‘पुलअप्स’ लगाने पर चालीस नंबर मिलते थे, आठ लगाने पर सत्ताइस. यह बात उनके भाई ने उन्हें कायदे से समझाई हुई थी. हनुमंत भाई ने बिना रुके, ‘पुलअप’ मारने शुरू कर दिए. गिनती में थोड़ा कमजोर थे, तो मारते ही चले गए. वो तो और लगाने जा रहे थे कि, भर्ती उस्ताद ने रोक के रख दिया. बोला, “बस-बस बहुत हो गया. अब थम जा. ठांड रख. सारे तू ही लगा देगा कि, औरों के लिए भी कुछ छोड़ेगा.”

जब ‘पुशअप’ मारने की बात आई, तो ये आदमी तो मजबूत थे ही. अगर सौ पुशअप’ ये नहीं मारते, तो कौन मारता.

अब तक के नतीजे, एक्सीलेण्ट-पे-एक्सीलेंट आ रहे थे, तो भला नौ फीट की लंबी कूद में वे क्यों पीछे रहते. उनके खेतों में नहरें पड़ती थी. अपने खेती-बाड़ी के लंबे कैरियर में, उन्होंने कभी नहर को लाँघकर पार नहीं किया, जब भी किया छलाँग मारकर ही किया.

‘फिजिकल फिटनेस टेस्ट’ की ‘ब्रॉड सीट’ में, जब ‘रिक्रूटमेंट अफसर’ ने इनके ‘मार्क्स’ देखे, तो वह वह दंग होकर रह गया. सारे नतीजे रिकॉर्ड्स के आस-पास थे.

मेडिकल टेस्ट में नजर छह बाई छह निकली, ईएनटी, ‘हाईट-वेट-चेस्ट’ सब फिटफोर निकला.

पेंच तब जाकर फँसा, जब ‘रिटन टेस्ट’ की बारी आई. हनुमंत भाई सकते में आ गए. उनके लिए तो ‘ओनामासी हराम’ था. इस बीच भर्ती-दल को उनसे हमदर्दी हो आई थी. ऊपर ‘कह-सुनकर’ किसी तरह से मामले को ‘टेक्टफुली’ निकाल लिया गया. इस तरह, किसी तरह से इस बवाल से हनुमंत की जान छुड़ाई गई.

आखिर हनुमंत भाई भर्ती हो ही गए. वे उस उम्र में भर्ती हुए, जिस उम्र में लोग रिटायर होकर घर आते थे. जल्दी ही उनकी ट्रेनिंग शुरू हो गई. ‘रंगरूटी’ में अच्छे-खासों का माँस छँट जाता था, शाम तक कड़े अभ्यास से जवान थककर पस्त हो जाते, लेकिन इधर हनुमंत भाई निखरते चले गए. एकदम छरहरे होकर रह गए, नौजवानी झलकने लगी. वे शिद्दत से ट्रेनिंग करते रहे. थकान और व्यर्थता-बोध तो उन्होंने कभी जाना ही नहीं था. न इस कठिन दौर में, न पहले के किसानी जीवन में. ट्रेनिंग अपने पूरे उफान पर थी. ‘जिग जैग रन’ वे बड़े आराम से कर लेते थे. खेतों की पगडंडियों पर चलने का इतना लंबा अनुभव जो था. ‘मंकी क्रॉल’, बंदर की तरह रस्सी के सहारे चढ़ना होता था. हनुमंत भाई बिना पैरों का सहारा लिए, झमाझम रस्सी चढ़ जाते थे. यह देखकर उस्ताद के अचरज का ठिकाना ना रहा. नया रंगरूट, अनुभवी एक्सपर्ट की तरह करतब जो दिखा रहा था. कंधे उनके मजबूत थे. खेती- किसानी के दौर में, किसान काँधे पर हल रखे हुए दिखलाई पड़ते थे. हनुमंत भाई, हल और पाटा दोनों एकसाथ काँधे पर लिए हुए खेतों की तरफ जाते थे. ‘हाई बैलेंस’ के लिए ‘पैरलल बार्स’ के ऊपर चलना सिखाया जाता था. हनुमंत भाई चलने के बजाय, उसके ऊपर सरपट दौड़ने लगते थे. उस्ताद, सनाका खींचकर रह जाता. उसके अब तक के अनुभव में, कहाँ तो और रंगरूट, गिरने अथवा चक्कर खाने के डर से डरे-डरे से रहते थे. इस आदमी को डर-भय नाम की चीज ही नहीं थी. अकस्मात् उसे ‘इन्फीरियारिटी कॉन्प्लेक्स’ होने लगा. वह उनके सामने मिन्नत करता, गिड़गिड़ाता, “भाई मेरे, धीरे-धीरे चल. तेरी वजह से अपन की इज्जत की वाट लग जाती है. कुछ तो ख्याल रख. आखिर सीनियर हूँ तुम्हारा.” हनुमंत भाई, मुलाहिजा रखने वाले आदमी थे. सो उसका कहना मान लेते. आखिर, उस्ताद की इज्जत का सवाल जो रहता था.

सब कुछ सही चल रहा था, लेकिन अब एक बहुत बड़ा संकट सामने आन पड़ा. महीना पूरा होने को था. पहली तनख्वाह मिलने वाली थी. पहली तनख्वाह, किसी के लिए बड़ी मंगल दायिनी होती है, लेकिन हनुमंत भाई के लिए वह एक संकट बन कर आई थी. तनख्वाह की पावती के लिए ‘रिवेन्यू टिकट’ पर दस्तखत करना जरूरी रहता था. उस पर अंगूठा तो लगाया ही नहीं जा सकता था. अगर अंगूठा लगाते, तो मामला पकड़ में आ जाता. सवाल उठ खड़ा होता, ‘बेसिक क्वालीफिकेशन के बिना, इस ‘रेक्रूट’ को आखिर भर्ती किया किसने.’ यह भेद खुल जाता, तो कइयों का अहित होना तय था. धरपकड़ शुरू हो जाती. हनुमंत भाई सोच में पड़कर रह गए. फिर उन्होंने सोचा, ‘ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका कोई-न-कोई हल निकले.’ बात पते की थी. ये अपने बटमैन भाई की शरण में जा पहुँचे. आखिर, इस मामले का समाधान, उसी अफसर ने दिया,जो इनसे हमदर्दी रखता था. उसने इनके बाँए हाथ की बाँह पर बड़े-बड़े अक्षरों में इनका नाम गोदवा के रख दिया, हनुमंत सिंह भंडारी. और इन्हे सख्त हिदायत दी कि, ‘रोज सुबह- शाम, अपना नाम बाँह से टीपकर कागज पे उतारा करे. धीरे-धीरे आदत पड़ती चली जाएगी.’

तो ट्रेनिंग के साथ-साथ इनकी दूसरी ट्रेनिंग भी चालू हो गई. हनुमंत भाई को सिग्नेचर सीखने की ट्रेनिंग ज्यादा भारी पड़ती थी. एक-एक अक्षर लिखना भारी पड़ता, कलम बार- बार हाथ से फिसलती जाती थी.

जिस दिन वे पहली तनख्वाह लेने गए, डरे-डरे से थे. उन्होंने तनख्वाह ली और डरते-डरते ‘रेवेन्यू टिकट’ के ऊपर दस्तखत बनाने लगे. थोड़ा नर्वस से लग रहे थे. अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए उन्होंने कोहनी से अक्षरों का मिलान करते हुए टिकट के ऊपर मिला-मिलाकर अक्षर लिखे. जैसे-तैसे ‘ऑटोग्राफ’ को पूरा किया. अब तो यह हर महीने का सिलसिला बन गया. ‘सैलेरी क्लर्क’, जैसे ही उनको आते देखते, आपसदारी में कहते, “लो भाई, आ गए कर्नल साहब तनख्वाह लेने. इनकी तनख्वाह सबसे पहले बनाओ. ‘रिसिविंग’ देने में बहुत देर लगाते हैं.”

कुछ समय बाद, उनकी रेजीमेंट किसी बाहरी मुल्क में शांति सेना के रूप में गई. हनुमंत भाई ने वहाँ अपनी रेजीमेंट की शौर्य-परंपरा को बखूबी निभाया. किसी भी हुक्म को वे बिना चूक और हीला-हवाली के बजाते थे. धीरे-धीरे वे अफसरों के चहेते बनते चले गए. मनुष्य अपना भाग्य खुद गढ़ता है. कोई ऐसा कौशल कला या पौरूष नहीं था, जो उन्होंने न निभाया हो. नौकरी भी ऐसी थी कि, जिसमें मान भी था और शान भी. हालाँकि बारीक बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थी, लेकिन जहाँ पर पुरुषार्थ दिखाने की बात आई हो, वहाँ पर उन्होंने जान लड़ाकर रख दी. समय के अनुसार, खुद को ढालने की विशेष क्षमता के कारण, वे हर कौशल में सफल रहे.

चाहे नौकरीपेशा जीवन की बात रही हो या सामाजिक जीवन की, आदमी वे हमेशा घनघोर रूप से कर्मठ बने रहे. यह उनकी कर्मठ छवि का ही प्रभाव था कि, उनकी आमद होते ही, लोग यकीन कर लेते थे कि, अब यह काम होकर ही रहेगा.

गाँव-घर में चाहे शादी-खुशी की बात रही हो, या खेती- पाती की, उनकी एंट्री सबमें आशा का संचार कर जाती थी. काम में उन्होंने कभी अपने-पराए का भेद नहीं किया. किसी का भी काम होता, पूरी शिद्दत के साथ जुट जाते. कुछ लोगों की आदत होती है कि, वह चाहे अपना ही काम क्यों ना हो, उसे मन मारकर करते हैं. हनुमंत भाई के साथ ऐसी बात नहीं थी. बस यूँ समझ लीजिए कि, चुप बैठे रहना उनके स्वभाव में था ही नहीं. माना कि गाँव में बारात आई हो, तो लकड़ी फाड़ने से लेकर, भट्टी तैयार करने का काम वे चुटकी भर में कर डालते. बारात के लिए खाना बनाने में जुटते, तो अकेले ही बना डालते और अकेले ही परोस भी जाते. उनकी मदद के लिए जाते तो अन्य लोग भी थे, लेकिन वे हैरत भरे भाव लिए मात्र प्रत्यक्षदर्शी होकर रह जाते थे.

उनके इस स्वभाव के चलते, उन्हें नौकरी में तरक्की-पे-तरक्की मिलती गई. आखिर वे एक जिम्मेदार ओहदे से रिटायर हुए. सेवानिवृत्त जीवन में भी वे चुप नहीं बैठे, बल्कि और ज्यादा सक्रिय हो उठे. गाँव-जवार में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं था, जो उनसे अछूता रहा हो. हिसाब-किताब में ‘ऐवरेज’ होते हुए भी, जमे-जमाए व्यापारी उनसे भय खाने लगे. उनकी सेवाएँ लेने में लोग आश्वस्त रहते थे, चूँकि वे जानते थे कि, उनकी हामी भरने का मतलब काम चोखा होगा और समय से पहले पूरा होगा.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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