समाज

पिथौरागढ़ के अनछुये इतिहास के किस्से और प्रभात उप्रेती का आत्म-साक्षात्कार

ऐसा कुछ कर जाएं यादों में बस जाएं
ऐसा कुछ कर जाएं यादों में खो जाएं
यारा दिलदारा मेरा दिल कर दा दिल कर दा
(Collage Memoir by Prbhat Upreti)

बचपन से ही मेरे अंदर अशोक की तरह वीरता क्रूरता और दया दोनों का मिक्स था. इस गीत की आत्मा बसती थी. तिब्बत के सीमांत चमोली में किशोरावस्था में अपने एकांतभोग में मैं पत्थरों पर संदेश लिख कर उन्हें फेंक देता था. उसमे लिखा होता – सदा सत्य बोलो, निर्बलों की मदद करो आदि. उस समय चेतन-अवचेतन का ज्ञान न था पर शायद मेरे अवचेतन में यह था कि इस दुनिया में महाप्रलय के बाद कभी कोई पुरातत्ववादी मनु इसे देखेगा और मेरी अमरता पर मुहर लगा देगा. मेरे दादा जी मुझे एक लोरी सुनाते थे :

वाह वाह साहब जी क्या ख्याल तुम्हारा जी
पतंग लेकर बाज उड़ावे कव्व्वा तीर चलाये
जब मुर्गी ने बाज को पकड़ा उसको कौन बचाये

पूरा बर्ड फ्लू का नजारा था. यह ख्याल, ख्याल गायकी तो न बना पर इसने मेरे अंदर जबरदस्त उथल-पुथल वो बनायी कि वह पचहत्तर साल तक अभी भी बकायदा नोश फरमा रही है. होश आते ही मुझे यह अवसाद हो गया था कि ये दुनिया क्या है! क्षण भंगुर! पर बुद्ध की तरह हिम्मत नहीं हुई कि निकल लूं इस खोज में. मैं अमर होना चाहता था. मेरे अंदर क्रांति और भ्रांति समानान्तर चलती है. कितने ही अजूबे किस्से हैं. बस पिथौरागढ़ को लेकर कुछ अजूबों को देखें.

जब मैंने मुश्किल से इंटर किया तो पिता इतने खुश हुए कि जैसे आइ.ए.एस. निकाल लिया हो. फिर गया पिथौरागढ़ बीए करने गोपेश्वर से. वहां गजब के इंसान डॉ. राम सिंह ने मुझे हाथोंहाथ लिया. अपने घर में रखा. वहां ढूंढ-ढूंढ कर इश्क भी किया, क्रांति-भ्रांति भी की. पिथौरागढ़ से मेरा नाता जब पिता जी मुनस्यारी में प्रिंसिपल थे तब से पड़ा. वहीं पिता ने डॉ. रामसिंह जी को नैनसिंह-किशनसिंह की दीमक लगी डायरी थमायी थी.

वहां से हम डिस्ट्रिक्ट रैली में पिथौरागढ़ जाते. मैं डिबेट में आंय-बांय-शांय ऐसा बोलता कि दर्शकों की ताली और जजों की गाली से नवाजा जाता था. मेरे आदर्शवादी पिताजी मेरे जज रहते तो वह मुझे माइनस जीरो नम्बर देते थे. वहां हम मुनस्यारी वाले वॉलीबाल और में रस्साकसी में फाइनल में पहुंचते थे. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

ताकत मुझे भी जम के थी इसलिए हम रस्सी को बगल में थामकर पांव जमा कर खूब खेंचते थे. उसी समय वहां पिथौरागढ़ में दो भड़ थे. एक मोहन सिंह कार्की थे. जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक बार नाला आने पर भेंस को उठा कर टिपा दिया था. दूसरे थे शमशेर थापा जिनकी दुकान स्टेशन में शिकार के लिए फेमस थी. उस साल बाद फाइनल के बाद यह गेम भी हुआ कि फाइनल टीम के कुछ खास तगड़े छात्रों के सात छात्र और दूसरी तरफ कार्की जी, शमशेर और एक कोई तीन एक तरफ होंगे. रस्साकसी हुई. हमने अपना पूरा जोर लगाया. जैसा कि टैक्ट था, रस्सा बगल में दबाया, एक दम घूमे भी. हम हांफ रहे थे पर मजाल जो उन्हें टस से मस कर दें. उन तीनों ने हमें आसानी से खेंच दिया. कमर में रस्सी बांधा हमारा आखरी तगड़ा लड़का बुरी तरह खिंच गया.

हां तो यह सोर भड़ों-स्पोटर्समेनों की नगरी था और यह वीरों को सम्मान देना जानता था. उनमें से एक वीर मैं भी पहुंचा. पन्द्रह अगस्त में मैंने फड़फड़ाता एक भाषण जड़ दिया जिसमें उर्दू न जानते हुए भी उर्दू के हम आशिक ने कहा:

एंचिययां मश न दे हुकुमत पर पैस्तर सब गंवार बैठै हैं
इनसे इंसाफ की तवक्को क्या सारे अफसर झक मार बैठे हैं.

इस पर उस समय के हमारे फुटबाल खिलाड़ी सेन ने मुझे कंधे पर उठा लिया. मैं अपनी अजीब हरकतों से वैसे ही लोकप्रिय हो जाता जैसे संगीतज्ञ अपनी हरकतों से होता है. जुल्म के खिलाफ चाहे वह जुल्मी सांवरिया हो या सत्ता या जनता मेरा खून खौलता है और मैं अपनी औकात के अनुसार उसका विरोध करता हूं.

और पिथौरागढ़ में मैं धीरे-धीरे अपने नाटकों, क्रांतिकारिता से लोकप्रिय हो गया और एक दिन उस समय चीनी आक्रमण से सख्त हुए उस प्रदेश में मैंने हड़ताल कर दी. यह हड़ताल मेंने चाइनीज बार्डर में गमसाली चमोली तिब्बत बार्डर में अपने पिता के खिलाफ गेम को लेकर ही की जो एलआइयू व काफी लोगों में चर्चित रही. मैंने प्रिंसिपल के अन्याय के खिलाफ हड़ताल करा दी कि वह गेम का समान नहीं देते, हॉकी स्टिक से खाना बनाते हैं.

अपने अड़याट दमदार दोस्त देव सिंह के साथ रातों रात कहीं से पोस्टर निकलवाये और कालेज में रात दो बजे चिपकाये. हंगामा मच गया. यूनियन बनाने के लिए खुखरी जलूस, मशाल जुलूस निकाले. अपनी बाहों में चाकू से खून निकाल कर दस्तखत कर अंत काल तक लड़ने की कसम खाई. हड़ताल का मौजूं बाद में यूनियन निर्माण में बदल गया. तब उस समय के दबंग पर सरल डीएम वासुदेवम ने मुझे बुलाया और कहा, डिस्ट्रक्टिव काम से ज्यादा मुश्किल कन्स्ट्रकटिव काम होता है. तुम नाटक करते हो वह कर के दिखाओ. मैं तुम्हें यूनियन दूंगा. इस कथन की तर्ज मुझे कुछ ऐसी लगी जैसे तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दुंगा.

मैंने चैलेन्ज स्वीकार किया और एक धाकड़ नाटक किया. उसका नाम भी धाकड़ था – ‘धड़कते दिल फड़कते बाजू’ किया. यह नाटक मैंने खुद लिखा, हीरो भी मैं ही था. निदेशन संतोष चंद का था. उसमें एक कुमाऊं रैजीमेंट के उस सिपाही की गाथा थी जिसने चीन में बंदी होने पर एक चाइनीज ऑफिसर को थप्पड़ रसीद कर दिया था. नाटक ने दर्शकों में जोशखरोश और आंसू ला दिए. उससे दस हजार की इनकम उस समय हुई और उसे पुअर बॉयज फंड में दिया गया. उसमें हिमालय के दृश्य कार्डबोर्ड से साक्षात दीवानी राम आर्टिस्ट ने बनाये थे जो मेरा जूनियर था. गजब का अर्टिस्ट, ज्ञानी, दार्शनिक वह था. बाद में न जाने क्यों उसने आत्महत्या कर ली.

एक प्रेमी नेता थे जिनका एक हमारे कालेज की लड़की दास से एक तरफा इश्क हो गया था. वह बहुत अच्छा गाती थी. हमारी हड़ताल के इस जोश खरोश देख कर उन्होंने कहा, उप्रेती जी तुम घर चले जाओ यह ताकत मुझे दे दो. करूणा से भरे उसके निवेदन को स्वीकारते मैंने यह सत्ता तब स्थानान्तरित कर दी जब मेरी लोकप्रियता टॉप में थी और छा़त्र छात्राऐं मेरे लिए मर मिटने को तैयार थे. प्रेम और क्रांति का यह शायद इतिहास का वर्तमान में पहला नमूना सत्ता हस्तातरण का रहा होगा. वैसे भी मैं उसे ज्यादा पुलऑन नहीं कर पाता उस जोश से भरी भीड़ को क्योंकि मैं डैमोक्रेटिक था और सत्ता संघर्ष भावुकता के प्रवाह में तानाशाही की डिमांड की जाती है. मुझसे लोग कहते, तुम कहो तो गला काट के हाथ में रख देंगे. इतने समर्पण के लिए मैं तैयार न था.

 मैं जहां रहता था मेरे ही उपर एक एलआइयू वाले रहते वह मुझ से ही पूछते कि ये गढ़वाली लड़का प्रभात कुमार उप्रेती कहां रहता है? एक मेरा सहपाठी नेपाल का कवि था दिवानी राम. गहरे प्यारे रंग वाला. हंसते हुए हंसी सफेद दांत से छलकती थी. मेरी जरा सी मजाक में वह लोटपोट हो जाता. उसका हर रंग, हर अंग, हंसी छलकाता था. उसने मुझे नेपाली और बंगाली भाषा की मधुरता, उसकी कविता को समझाया. गाता तो क्या जो हो जाता. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

बाला जू को बाइस धारा में कति मीठो पाणी हमारो राजा रानी
ऐ कांछा ठठो माया जोवन जानै लाग्यो
जंदइना बाचैं परखी नीली आउला

यानी प्रेमिका प्रेमी से कह रही है, ए प्रेमी हमारी जिंदगी तो हंसी खेल में जा रही है तो प्रेमी जबाब देता है कि यह जा कहां रही है यह तो जीई जा रही है. इस गीत से मुझे जीवन का असल सार मिला. अपने क्षणभंगुरता के अवसाद के क्षणों में इस गीत ने मुझे आसरा दिया.

अपने आस पास क्या नजारे होते हैं कितने प्यारे लोग होते हैं पर हमारी नजर नहीं जाती. उसने मुझे क्रांतिकारी दशरथ चंद की राणाओं के खिलाफ गाथा सुनाई तो मैंने उस पर एक नाटक लिखा जिस पर यह डायलाग जब छाती ठोंक के कहा जाता तो गजब हो जाता -” यदि तपाई लाइ सोचनै हुस कि आमी विद्रोही तो ठोकन हुस, ठोकन हुस.”

वह उस नाटक को नेपाल ले गया बहुत लोकप्रिय हुआ. वह मनीषा कोइराला के दादा प्रधानमंत्री कोइराला की कविता गाता –

बन की मैं चरी कैले सुन कठै बैरी
मेरो मन को बीलोना मन को बीलोना
अपनी धुन मां गाउथे उड़ते अपनी ताल में
को पापी लै पराय मौले फंसे माया जाल में

वह कहता, “माया लाग्छ बोलन सकदयी ना ऐसे हो तुम उप्रेती जी मेरे लिए बहुत प्यारे हो आप.”

एक था मेरा सहपाठी बलबहादुर. मस्त,दमदार. जब मैंने आंदोलन किया मैं उसका हीरो बन गया. उसने स्पार्टा के वीरों की तरह जमीन में घुटने टेक कर मुझे चांदी की मूठ वाली खुखरी भेंट की.
(Collage Memoir by Prbhat Upreti)

एक बार अपने नैनीताल के क्रेगलेंड हॉस्टल के दोस्त किशन चंद के साथ नैपाल कुरकुटी गांव गया. उनके बड़े भाई, कवि बहादुर चंद नैपाल के पूर्व प्रधानमंत्री थे. वहां सात दिन रहा. खूब आवभगत. पर दिन में सब काम पर चले जाते तब क्या करता. तब ताश खेलते युवकों को देखता. मुझे ताश बिल्कुल भाते न थे. उसमें एक युवक हर ताश के पत्ते को फेंक कर्कश आवाज में कहता- “करें क्या… करें क्या.” वह कर्कश आवाज “करें क्या” दिलोदिमाग मे बस गयी. पर चंद साहब का, प्यार दुलार, सम्मान क्या रूतबा जिया.

मेरी जिदगी लोह मर्षक न रही, स्टील मर्षक थी. हम जिस्मानी प्यार के काबिल न थे पर हमारे हारमोंस ने प्रेम करने के लिए भी प्रोत्साहित किया. मुझे गलतफहमी रही कि एक लड़की हमें प्यार करती है. वह मेरे नोट्स मांगती. मैं उसके दर पै गया. पर वहां जैसा कि होता है हर आशिक का इम्तहान होता है हमारा भी हुआ वहां एक भोटिया कुत्ता हमारे इंतजार में बेकरार था. वह हमेशा मुझे देख कर हूंकता था. उसने हमें घूरा. उसकी नजर देख वह गीत याद आया. फिर न की जै मेरी गुस्ताख निगाही का गिला देखिये प्यार से कई बार आपने देखा मुझको.

मैं कच्चा आशिक था, भाग आया और जैसा कि फेल होना हमारी आदत या कह लीजिए शौक है फेल हो लिये. वैसे हम हर लड़की से जैसा कि बहुतों के साथ होता है, एकतरफा प्रेम करते थे.

फिर एक बार एक लड़की मेरे नाटक पर फिदा हुई. हलवाइयों की लड़की थी. मीठे का मैं शौकीन था. सो सोचा प्रेम और मीठा दोनों मिलेगा. वह एक शाम मेरे कमरे में भी आयी. पर हम लकलका गये. हाथ पांवों ने काम करना बंद कर दिया और उसने हिकारत से हमें देख के चली गयी. बाद में उसने किसी से इश्क फरमाया पर एक बच्ची ने उसे एक लड़के से इश्क करते देख लिया और उसने शोर मचा दिया कि देखो हरीश दाज्यू मेरी दीदी को पीट रहे हैं. फिर तो जो हुआ सो हुआ पर हमने शुक्र माना कि मेरा बैण्ड बजते बजते रह गया. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

एक मार्क्सवादी राणा जी थे. उस समय मुझे कुछ करने का जुनून था कुछ भी जिसमे वीरत्व दिखे. मार्क्स का तो बहुत बाद में पदार्पण हुआ. मैंने तो संघ की क्लास भी ट्राइ की. पर राणा जी से मैंने क्रांति का कंठा बंधवा लिया. पर एक दिन शाम को एक महफ़िल में अपने मधुर स्वर से उन्होंने जो भजन गया:

कोई भोर को जाये कोई शाम को
रे मन भज ले हरिनाम को

तो मेरे अंदर आत्मज्ञान की लहर लहर मारने लगी. और मैं करीब करीब बुद्ध की तर्ज में एक दिन रात मंदिर में इलहाम पाने के लिए चला गया. रात भर वहां ठंड में एक कमीज में रहा. सारा पिथौरागढ़ जगमग कर रहा था. मैं आंख बंद किये निर्वाण पाने की कोशिश में था. कुछ न हुआ तो उठा तो बैंच से उठा न गया. मैंने समझा कि आत्मबोध इलहाम हो गया, बार-बार उठा. पर उठा ही न जाया जा रहा था तब फिर देखा तो बैंच में कोलतार था जो मेरी पेंट में चिपक गया था. तब से आत्मज्ञान की खेाज छोड़ दी.

उस समय पिथौरागढ़ में जूनियर लोगों की गैंगवार चलती थी. ल्युंठुणा, कुमौड़, पौण और की मैंने भी जूनियर किशोरों की उल्टी सुल्टी कुश्ती, मार्शल आर्ट सिखाकर एक गैंग बनायी जो एक सीटी में तुरंत गोरिल्ला वार की तरह वार में आती.  एक बार स्ट्रीट फाइट कनवोकेशन में छात्रों के दो ग्रुप में पुरानी दो साल की खुंदक जमा थी. जमा खुंदक को लेकर लड़ाई हुई. यह एक तरह से दो विरोधी छात्रों की पुरानी रंजिश किसी प्रेम के तहत थी. यह एक तरह से डूएल था जिसमें संतोष चंद विजयी हुआ. उसने मुझसे कहा था अगर बहुत से मुझे मारने आयेंगे तो अपनी गुरिल्ला बुला लेना अगर वह न आये तो डुएल डिस्टर्व न करना. यानी फाइट में पूरा आदर्श था. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

पर मेरे अज्ञात दुश्मन भी खूब थे. जब मैं वहां से बीए कर के चला गया तब किसी ने बतलाया कितनी ही बार तुम्हें मारने की प्लान बनायी गयी थी. पर ये हुआ तुम्हारे पास एक झोला रहता था उसमें तुम्हारी पिस्टल रहती थी इसलिए इस डर से तुम्हारी ठुकाई नहीं हुई. ओह, यह बात थी. तब मुझे याद आया कि मैं एक बांसुरी झोले में रखता था वह एक तरह से पिस्टल की नोक का भ्रम देती थी. इस भ्रम से मैं ठुकते बच गया.

वह भ्रम मैंने बनाये रखा कि मैं बहुत खतरनाक हूं. पिस्टल चैकोवलास्किया की रखता हूं. मैं हमेशा जिप्पो (जो विज्ञापन देख मंगवाया था) रामपुरी, चेन निकल डैस्टर से लैस रहता था. एक बार मेरे एक मित्र के मित्र ने गबन कर दिया. वह सस्पैंड हो गया. अब उसे पैसे भरने थे. उनके पिता एलआइयू में थे. वह दबंग निडर आदमी था और हम तो वीरों के दबंगों के आशिक थे.

वह छोटे कद, गठे शरीर का था. हाथ इतने मजबूत कि नाखून गढ़ाओ नाखून टूट जाये. आंखें गहरी हर भाव में बदलती हुई. प्यार में झील, गुस्से में लहरें हिल्लोर मारती, घूर कर छेद कर देने वाली, स्तब्ध. उसका बॉक्स इतना तगड़ा था कि एक बार किसी के गाल पर मारा तो पूरे 45 घंटे सूजन रही. उसने मुझसे मेरे अस्त्र शस्त्र उधार लिये थे. पिता को कारस्स्तानी का पता चला तो सारे हथियार जब्त हो गये और फिर बैल्ट से धुनाई हुई. अस्पताल ले गये. पीठ में खून की लकीरें नहर की तरह उभर आयी थीं. डॉक्टर ने देखा तो कहा, ये तो पुलिस केस लगता है. उसने हंसते कहा, हां पुलिस केस ही है. फिर वह अपने मित्र फारमेसिस्ट के पास गया. उसने दवा करते कहा, तू तो आह भी नहीं कर रहा किसने मारा. इस पर उसने कहा, अबे साले! ये बाप ने मारा है. इस पर आह करना मना है.

अब गबन को तारने के लिए यह ऑफिस ने तय किया पैसे दे दो केस नहीं करेंगे. अब हम तो जुल्म के खिलाफ कुछ भी कर देने वाले हुए. प्लान बना डाका डालने का. मैं अपने एक फौलोवर कुंदन सिंह रावत के साथ रात पिथौरागढ़ में गहन अंधकार और बारिश में डाका मारने चला गया.
(Collage Memoir by Prbhat Upreti)

कुंदन सिंह रावत बहुत खूबसूरत दुबला पतला इंसान था. पर हद से उपर डेंजरस, खामोश और एडवैंचरस. उसने जो मुझे बतलाया कि कैसे किशोरावस्था में उसे लड़कियां तंग करती थीं. मुझे तब पता चला लड़़कियां भी रेप करती हैं. हम दोनों चले. कुंदन सिंह रावत ने घोड़े की नाल के जूते पहने थे. उस रात की खामोशी में वह आवाज रोड में गूंजती खट-खट करती एक जासूसी, अपराधी दहशत की आवाज दे रही थी. तभी गश्त करते खतरनाक पाल दरोगा मिल गये और उन्होंने हमसे कहा, इस रात में कहां घूम रहे हो और मैं, कुंदन यारा मेरा दिल कर दा ऐसा कुछ कर जायें जेल चले जायें की स्कीम से बच गये. बाद में कुंदन कमानडेंट बीएसएफ रिटायर हुए.

फिर एक बार क्रांति की लहर जागी. तब नेपाल में बाजंग राजा की मुख्य राजा से विद्रोह कर दिया था. उन्हें माल सप्लाई करना था कि मैं पीठ पर बोककर कहीं से गाड़ी के पट्टे और स्टैरियिंग ले आया. यह खुखरी और पिस्टल बनाने के लिए काम आते हैं पर इस भारी चीज को रखता कहां. मकान मालिक ने कहा, तुरंत हटाओ इसे यहां से. अब क्या करें? तभी उस समय चंद साहब एक ईमानदार एसडीएम थे. जिन्होंने अपने भाई संतोष चंद के पिता, माने जाने डॉक्टर का अवैध निर्माण के लिए चालान कर दिया था. उनका ही भांजा या कुछ था जो हमारा जूनियर और कच्चा क्रांतिकारी था, मैंने उससे कहा इसे अपने घर रख ले. उसने कहा चचा मेरा कत्ल कर देंगे, जेल डाल देंगे सीधे. खैर फिर हम उसे वहीं रख आये जहां से लाये थे.

क्रांति का यह पाठ खत्म हुआ. तथाकथित चक्की न पीसनी पड़ी. एक मुम्बई के रजिस्टर्ड अपराधी को मेरा दम, हरकत कीर्ति की खबर मिली. उसने मुझे ऑफर किया लूट के लिए. कहा, जिंदगी का हर ऐश तुम्हें दूंगा. पर गनीमत है वह मैंने नहीं किया. उसकी आंखों की क्रूरता और ऑफर मुझे पसंद नहीं आया.

मैं अच्छे बुरे के दुनियावी घेरे में न फंसा था. मेरे लिए अच्छा था हर जीव को इज्जत देना. हर किसी की खुशी मुसीबत में शामिल होना. यह किसी धर्मग्रन्थ से न पढ़ा था यह स्वाभाविक था. इससे हम कभी बंधे ही नहीं. हम बस वीरत्व चाहते थे, दर्दमंद थे, यारों के यार थे,इस जिंदगी दुनिया के दस्तूर से परेशान थे. हम प्यारा चाहते करने की कोशिश में थे. हर जुल्म के खिलाफ एक आवाज थे. बस बहुत हिम्मत न थी, न शउर. वरना किसी शूटआउट में मारे जाते. अल्ला का या भगवान का शुक्र आर्शीवाद है. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

यादें मुझे रुलाती नहीं, सहलाती हैं. मेरे अंदर एक खोजी वैज्ञानिक निरंतर चलता है. शादी के बाद एक बार मैंने बंदगोभी में इमर्सन रॉड घुसेड़ दी. यह सोच कर इससे गोभी खास किस्म से पकेगी. नयी शादी की हुई मेरी श्रीमतीजी तब मुझे देख कर धन्य हो गयीं, कि कैसा महान वैज्ञानिक पति मुझे मिला. एक बार पीने के लिए आयी मिरच्वाणी को देख मुझे लगा इसमें बुरूश डाल कर दाढ़ी बनाता हूं देखता हूं कैसी दाढ़ी बनती है. दाढ़ी जैसी भी बनी होगी पर अपनी इस सोच से हमेशा की तरह खुश रहा.

मैं खाली नहीं रह सकता. बेचैन आत्मा हूं. मेरा कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता. न अच्छा न बुरा. आंनद की तलाश में एक यार. आज कल मट्टी और गारा ढो रहा हूं. आपरेशन की जगह तकलीफ होती है पर अच्छा लगता है उस तकलीफ से ज्यादा जो खाली बैठ के लगती है. अपने खेत में मट्टी को छूना मुझे बेहद अच्छा लगता है लगता है करोड़ों साल की प्रोसेस विकास को सहला रहा हूं. परिवार, पत्नी, तोतू, कात्या सब बहुत साफ दिल दिमाग के हैं. जहां भी हैं लोग उनके प्यार के बर्ताव से उन्हें प्यार करते हैं. वहां कहीं कोई कंडीशनिंग नहीं.

पौड़ी की ब्वारी गौरी भी आयी बहुत भली, कामकाजी, खेत की मट्टी से गुरेज नहीं करने वाली. बस एक बार मूड में आये तो खेत, हम लहलहा जायें. संगीत से मुझे बहुत प्यार है. हर किस्म का संगीत, हर देश का संगीत मुझे पागल कर देता है. आज कल भीमपलासी, मालकोस, शंकरा सीख रहा हूं. सीख क्या रहा हूं उनकी बेइज्जती कर रहा हूं. मुझे तानें बहुत अच्छी लगती हैं. भीमपलासी का करूण स्वर बहुत भाता है. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

मैं उन लोगों में से हूं जो प्रकृति से प्रेम, दुनिया से नाराज रहते हैं पर यह नाराजगी प्यार की है. अब नींद आती नहीं. पर सपने खूब देखता हूं. मैंने जिसे जमाने में घृणित कहते हैं वह भी किया है. पर किसी का दिल नहीं दुखाया हर जीव को इज्जत देने से मेरे अंदर खुशी के फव्वारे छूटते हैं. मैं सेंटी था, हूं और रहूँगा. यह मेरे लिए बहुत माइने रखती है मुझे बनाती है. रोना मुझे बहुत अच्छा लगता है.

मैं टीवी देखूं या नाटक मैं कुछ देर के लिए वह सब बन जाता हूं. जिंदगी में मैंने कभी चींटी नहीं मारी, पत्ते तक नहीं तोड़े पर कमीनों को मारने में अगर मुझ में दम होता तो एक सेकेंड न लगता. मेरा दोस्त सफ़दर कहता,तुम्हारे अंदर जो आग है वह कुछ न करोगे उससे तुम राख हो जाओगे. वाकई मेरे अंदर आग बीड़ी जलाने की नहीं सब गलत भस्म करने की है पर वो दम तो नहीं, न अक्ल. हम तो बस ऐसे ही जिये तूने जो दर्द दिये.

मेरे अंदर अपना होने का नशा है. मुझसे किसी ने पूछा अगले जनम में क्या बनोगे तो मैंने कहा, प्रभात कुमार उप्रेती और बेहतर प्रभात कुमार उप्रेती. मैंने वह किया है, मैं वह शख्स हूं जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर यह सोचता हूं अपने पर में ही सबसे अच्छा लिख सकता हूं इसलिए लिख रहा हूं. (Collage Memoir by Prbhat Upreti)

मुझे यह इल्म शिद्दत से है हर आदमी में कई आदमी हों न हों पर वह खुद में कुछ खास उसी तरह होता है जैसा कि मैं हूं. और अगर उसे लिखना बोलना आता वह बेहतरीन आत्मकथा लिखता. नज़ीर मेरे प्रिय कवि है. हर जगह आदमी ही तो है. अपनी उम्र में,अपने दुःख में बीमारी में,लम्बी रात बेरात चलती यात्राओं में मैं दीवानी राम का गाया वह गीत खीसे में ले के चलता हूं और जब तब हाथ थाम लेता है. सफ़दर को भी वह गीत बहुत पसंद था है.

निंग निंग निंग न्योरी बासव
सांझ को बेला जंगल को बाटो

सारी अकेले पन को ब्यक्त करते उसकी अंतिम पंक्ति है

नील गगन बीचैय मां तारा चमकि रहै छौ
जीवन को साझैंय मां एक बत्ती निम्द रहै छ

मैं सब पाना चाहता था खुदा भी, विसाले सनम भी. आज तक यह मुहिम जारी है. हम कबाड़खाने की चीज है. क्या पता वक्त बेवक्त किसी को हमारी जरूरत पड़ जाये. कोई हमें उठा ले हम काम आ जायें.

ऐसा कुछ कर जायें यादों में बस जायें यारा दिल दारा मेरा दिल कर दा का गीत अभी भी गतांक से आगे क्रमशः है.


(Collage Memoir by Prbhat Upreti)

प्रभात उप्रेती 

इसे भी पढ़ें: ग्यांजू: एक जोशीले सरल पहाड़ी की लोककथा

किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.

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