राज्य में क्लीनिकल इस्टेब्लिशमेंट एक्ट (सीईए) बड़ा विवाद का विषय बन गया है. यह विवाद 2010 से ही है, जब एक्ट बना. 2015 में इसे लागू करने का आदेश हुआ. तब भी निजी अस्पतालों के डाॅक्टरों ने इसका विरोध किया था. लाचार सरकार ने इसे लंबित रख दिया. सीएमओ को ऐसे आदेश दिए, जैसे काम ही नहीं करना हो. एक बार फिर हाईकोर्ट के आदेश के बाद सरकारी अधिकारियों की नींद खुली है. तंत्र में हलचल नजर आ रही है. सख्ती दिखने लगी है. राज्य में कोई भी ऐसा प्रावइेट अस्पताल नहीं, जो इस मानक पर खरा उतर सके. इसलिए सभी निजी अस्पतालों से जुड़े डाॅक्टरों ने 15 सितंबर से अनिश्चितकालीन बंद का ऐलान कर दिया है. सरकार व निजी डाॅक्टर आमने-सामने आ गए हैं. सरकार की मंशा सुधार की होगी, लेकिन आइएमए का तर्क है, इससे इंस्पेक्टर राज कायम हो जाएगा. इन दोनों की लड़ाई का खामियाजा जनता भुगतेगी. फिलहाल इस बाद का क्या नतीजा निकलेगा, अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है.
सीईए में ये सख्त नियम हैं. इलाज को लेकर अस्पतालों की जवाबदेही तय होगी. अस्पताल प्रबंधन मरीजों से जुड़े मेडिकल रिकार्ड सुरक्षित रखेंगे. इमरजेंसी में पहुंचे मरीज को स्टेबल करेंगे, फिर रेफर करेंगे. निर्धारित कीमतों को सार्वजनिक करना होगा. मनमाना शुल्क नहीं वसूल पाएंगे. इमरजेंसी में 24 घंटे एमबीबीएस डॉक्टर ही रहेंगे. गलती होने पर अस्पताल प्रबंधन व डाॅक्टर कार्रवाई की जा सकेगी.
आइएमए पदाधिकारियों का कहना है, क्लीनिक इस्टेब्लिशमेंट एक्ट लागू होने पर शहरों के आधे से ज्यादा अस्पताल व क्लीनिक बंद हो जाएंगे. बड़े अस्पताल ही रह जाएंगे. इनमें भी इलाज महंगा हो जाएगा. काॅरपोरेट घराने ही अस्पताल चलाएंगे. राज्य में सीईए के कठोर नियमों का पालन संभव नहीं है. इससे केवल इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा मिलेगा. भ्रष्टाचार बढ़ेगा. सरकार हमारे अस्पतालों व क्लीनिकों को बंद करे, इससे पहले हम ही बंद कर देते हैं. हम नहीं चाहते हैं बंद करना, लेकिन हमारी मजबूरी है.
एक अनुमान के तहत प्रतिदिन नैनीताल जिले में ही 15 हजार मरीज प्रतिदिन ओपीडी में दिखाने आते हैं. 110 से अधिक अस्पताल हैं. 200 क्लीनिक हैं, इसमें लगभग 300 डॉक्टर कार्यरत हैं. अगर सभी अस्पताल बंद हो जाएंगे, तो मुसीबत बढ़ जाएगी. राज्य में सरकारी अस्पतालों में न्यूरोसर्जन, न्यूरोलॉजिस्ट, कॉर्डियोलॉजिस्ट, प्लास्टिक सर्जन, नेफ्रोलॉजिस्ट आदि सुपरस्पेशलिस्ट नहीं हैं.
सीईए के तहत नैनीताल जिले में केवल 81 अस्पताल ही पंजीकृत हैं. लेकिन, इसमें से कुछ ही अस्पतालों ने एक्ट के तहत पंजीकरण किया है, लेकिन अधिकांश अस्पतालों में एक्ट का पालन नहीं हो रहा है. स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का कहना है, हल्द्वानी के बड़े अस्पताल ही नियम लागू करने को तैयार नहीं हैं. यही हाल, देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर जिलों का है. पर्वतीय क्षेत्रों के निजी अस्पताल का हाल और भी बुरा है.
अभी दो सप्ताह नहीं बीता है, हाई कोर्ट ने प्रदेश में फर्जी तरीके से संचालित अस्पताल-क्लीनिकों को बंद करने के आदेश दिए हैं. कोर्ट ने सरकार को कानूनों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित कराने के साथ ही मेडिकल जांच व परीक्षणों का शुल्क निर्धारित करने के निर्देश दिए हैं. ऊधमसिंह नगर जिले में दोराहा बाजपुर के बीडी अस्पताल व केलाखेड़ा के पब्लिक हॉस्पिटल के खिलाफ कार्रवाई नहीं होने के मामले में दायर जनहित याचिका पर सनुवाई के बाद यह आदेश पारित किया है. कोर्ट ने हैरानी जताई कि दोनों अस्पतालों में विशेषज्ञ चिकित्सक की गैरमौजूदगी के बाद भी चिकित्सालय संचालन की अनुमति व पंजीकरण प्रमाण पत्र उपलब्ध था. इसके बाद भी मरीजों के ऑपरेशन किए जा रहे थे. जांच टीम को ऐसे दस मरीज भर्ती मिले, जिनके ऑपरेशन किए जाने थे. कहा कि चिकित्सकों के पास एमबीबीएस तथा सर्जरी की डिग्री तक नहीं थी.
ऊधमसिंह नगर निवासी अहमद नवी ने जनहित याचिका दायर की गई थी. जिसमें कहा गया था केलाखेड़ा समेत राज्य के तमाम अस्पताल नियम विरुद्ध तरीके से संचालित हो रहे हैं. चिकित्सकों द्वारा महंगी दवाएं लिखी जाती हैं. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की खंडपीठ ने याचिका को सुनने के बाद प्रदेश के ऐसे समस्त अस्पतालों को बंद करने के आदेश पारित किए, जो क्लीनिकल स्टेब्लिसमेंट बिल के प्रावधानों का अनुपालन नहीं कर रहे हैं. कोर्ट ने सरकारी अस्पताल के चिकित्सकों से मरीजों को ब्रांडेड दवाएं खरीदने का दबाव न बनाएं और जेनरिक दवाएं ही लिखें. मरीजों की तमाम जांच के मूल्य एक माह में निर्धारित किए जाएं. कोर्ट ने कहा कि चिकित्सालय के आइसीयू के सामने की दीवार शीशे की बनाई जाए, ताकि तीमारदार मरीज पर नजर रख सके. इसके साथ ही चिकित्सालय हर 12 घंटे में तीमारदारों को मरीज की स्वास्थ्य संबंधी जानकारी उपलब्ध कराएं. उसकी वीडियोग्राफी भी की जाए। कोर्ट ने जनहित याचिका को अंतिम रूप से निस्तारित कर दिया है.
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