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हल्के-फुल्के मिजाज की फिल्म चश्मेबद्दूर

चश्मेबद्दूर (Chashme Buddoor) एक पर्सियन शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- बुरी नजर से दूर या नजर ना लगे. चश्मे बद्दूर (1981) दिल्ली विश्वविद्यालय के तीन दोस्तों की कहानी है, जो रूम शेयरिंग करके एक ही कमरे में अड्डा जमाए रहते हैं. कमरे के दरवाजे पर एक ड्रेगन का चेहरा बना रहता है और उसके नीचे लिखा मिलता है- चश्मेबद्दूर. उसके बगल में लिखा मिलता है-कुत्ते से सावधान. हालांकि उनके पास कोई पैट नहीं रहता, फिर भी लिखा रहता है. बस यूँ ही. फिल्म के बहाने युवा-मनोविज्ञान, उनकी जीवनचर्या फिल्म में बड़े हल्के-फुल्के ढंग से दिखाई गई है. फिल्म विट और व्यंजना से लैस है. फिल्मी चकाचौंध से दूर, सई परांजपे का यथार्थ को बारीकी से पकड़ने का कौशल इस फिल्म में देखते ही बनता है. कला और यथार्थ के विरल संतुलन को उन्होंने बड़ी नफासत के साथ साधा है.

सड़कों के दोनों छ़ोर और पेड़ों की कतारें, पार्कों में खिल रहे रंग-बिरंगे फूल, चिड़ियों की चहचहाहट अस्सी के दशक की शुरुआत की मोहक सी दिल्ली की याद दिला जाती हैं.

‘ये धुआँ सा कहाँ से उठा है’ मेहंदी हसन की इस गजल के साथ कमरे में सिगरेट का धुआँ बिखरा-बिखरा सा दिखाई देता है. ओमी (राकेश बेदी), जोमो (रवि वासवानी) को सुलगी हुई सिगरेट पास करते हुए नजर आता है. दर्शकों को पहली ही नजर में किसी ‘को-शेयरिंग’ वाले कमरे का नजारा झट से पहचान में आ जाता है. छात्रावासों, डेलीगेसीज में रहने वाले छात्रों के जीवन-संसार का यथार्थ ऐसा ही तो रहता था. एक कोने पर तख्त, दूसरे पर ढीले निवार की चारपाई और तीसरे कोने में जमीन पर पड़ा हुआ एक बिस्तर.

पढ़ाई-रोजगार की अभिसंधि पर खड़े नौजवानों का हुलिया, बैचलर्स लाइफ की इन्नोसेंस. सेकंड हैंड खटारा मोटरसाइकिल. जोमो, नीचे उछल-उछलकर राजदूत पर किक मारता है, जब वह स्टार्ट नहीं होती, तो वह खीझते हुए मोटरसाइकिल को हल्की सी लात जमाता है. फिर गेट से बाहर निकलते हुए गेट पर जोर से जमाता है. स्टूडेंट्स के ओवर एग्जॉस्टेड साधनों की शाश्वत समस्या. वह बड़ी बेफिक्री से कंधे पर हेलमेट लटकाए सीधी राह पकड़ लेता है. तभी पीछे से आकर कोई उसकी गरदन दबोच लेता है, “कहाँ चल दिए बुलबुल. कोई और भी कर्जेदार लग गया, तेरे पीछे.“

लल्लन मियाँ (सईद जाफरी) बीच रास्ते में उससे हिसाब का तगादा करने लगते हैं. जय छूटते ही कहता है, ‘काट दिया ना मेरा रास्ता. अब मेरा काम नहीं होगा.‘ लल्लन मियाँ उसकी गर्दन तो नहीं छोड़ते, लेकिन रहम खाते हुए कहते हैं “गनीमत समझ कि, मैं तुझे थाने नि ले जा रिया.”

वे

बलपूर्वक उसे अपने पान भंडार तक ले जाते हैं और बकाए की वसूली के लिए उससे पान पर चूना-कत्था लगवाना चाहते हैं. दाम के बदले मजदूरी. वे उसके सिगरेट के उधार खाते का हिसाब दिखाते हैं, जो कुल जमा साढ़े सड़सठ रुपये निकलता है. इस पर जय कहता है, “पचास पैसे तो छोड़ दो.” लल्लन मियाँ तपाक से कहते हैं, “किस खुशी में छोड़ दूँ. बरात में आए हो.”

पान वाले को फुसलाना लड़कों के लिए बाएं हाथ का खेल रहता है. वह उनसे गुलाबी कमीज, लहरिया दुपट्टा का हुलिया बताकर, उसके जाने की दिशा तो पूछता ही है, सिगरेट भी झटक लेता है.

कमरे का दृश्य: ओमी का स्वर गूँजता है- बहुत स्टॉक पड़ा है. ऐशट्रे में टोटे के टोटे भरे हुए हैं. वे सिगरेट के बड़े टोटे छाँट-छाँटकर पीते हैं. तभी ओमी, अपराध जगत के पन्ने से कोई फिरौती की खबर पड़ता है. फिरौती की रकम एक लाख है और सूचना देने वाले को बस एक हजार रुपए का इनाम. इस पर वे मगजमारी करते हैं.

जोमो, एक दिलचस्प खबर लेकर आता है. वह आस-पड़ोस में किसी युवती के पदार्पण की सूचना लाता है और चहकते हुए दोस्तों को बताता है. जायका ले-लेकर वे इस खबर पर संभावना तलाशते हैं, जिसको लेकर उनमें तकरार होती है. तो इस बात का निश्चय ताश के पत्तों से होता है. पान की बेगम, ओमी हिस्से में आती है.

ओमी, शेरोशायरी में ढेरों बातें बनाता है. परिवार को प्रभावित करने की पूर्वयोजना बताता है, ‘कितना शरीफ, हैंडसम और इंटेलिजेंट हूँ.‘ वह आत्ममुग्ध सा नजर आता है. प्रभाव जमाने की इरादे से वह पड़ोस के उस घर में जा पहुँचता है. अपने मुताबिक वो काफी सज-सँवर कर जाता है. कॉलबेल बजते ही नेहा (दीप्ति नवल) दरवाजा खोलती है.

नव युवती..बिल्कुल ‘द गर्ल नेक्स्ट डोर’ वाली छवि. उनकी सादगी-ताजगी देखते ही बनती है. अभिनेत्री दीप्ति नवल में स्टारडम जैसी भव्यता नहीं दिखती थी, जिससे आम दर्शक के मन में बरबस ही यह खयाल उठने लगता था कि, ये तो अपने आसपास की ही सी लगती हैं. किसी तरह का कोई ग्लैमर नहीं. रूप-रंग और आभा में उनका दर्शकों पर जो प्रभाव पड़ा, वो काफी बुनियादी किस्म का था, जो लंबे अरसे तक बना रहा. सहज, भोली सी मोहक मुस्कान, सादगी में शरारत. बिल्कुल वही छवि, जिससे युवा अपने स्वप्न-संसार में मिलने का आकांक्षी रहता है.

तो नेहा दरवाजे खुलते ही उसे अंदर बुलाती है. दरअसल वह उसे प्लंबर का आदमी समझ बैठती है. वह उसे बाथरूम में चोक-बेशन और फ्री टोंटी को दुरुस्त करने के ढ़ेरों निर्देश, एक ही साँस में गिना जाती है. ओमी औजार लेने के बहाने बाहर आता है और सर पर पैर रखकर भागता है. वहाँ से निकलकर वह निरुद्देश्य इधर- उधर भटकता है. अंत में किसी पार्क की बेंच पर आकर बैठ जाता है. फेरीवाले से चवन्नी की मूँगफली खरीदता है. तभी एक युगल आकर उस बेंच पर आकर जा बैठता है.

शाम ढ़ले वहकमरे पर पहुँचता है, तो दोस्तों से कहता है, ‘यारों मुझसे बात मत करो. मैं अभी चांद-सितारों की दुनिया से नीचे उतरा नहीं हूँ.’

वह दोस्तों को अपनी मनगढंत उपलब्धियाँ गिनाता है: फ्लैशबैक में जो दृश्य उभरता है, उसमें लहजा, अभिव्यक्ति, परिवेश सबकुछ उर्दूमय रहता है. वह शायरी वाले अंदाज में कहता है, “कितना हसीन गुनाह किए जा रहा हूँ मैं.“ बेंच पर अच्छी-खासी शायरी करता है. इतना ही नहीं वह नौका-विहार भी करता है. प्रेम की पींगें बढ़ाता नजर आता है. ‘इस नदी को मेरा आईना मान लो’ स्तर का डुएट भी गा लेता है. मजे की बात यह है कि वह बेंच पर बैठे युगल से स्वयं को रिप्लेस कर बैठता है.

अगले दिन, इसी क्रम में जोमो अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़ता है. फिर, वही दरवाजा खोलती है. दरवाजे पर ही, वह उसे फिल्मों में चांस देने की ऑफर करता है, जिस पर वह कहती है कि उसे कोई इंट्रेस्ट नहीं, मेरे भैया को जरूर इंट्रेस्ट है. उसके भैया को दिखाया जाता है, जो योद्धा टाइप पर्सनैलिटी का इंसान है और विलेन बनने में हद से ज्यादा इंट्रेस्ट जताता है. यही नहीं, वह जोमो को अपनी प्रखर प्रतिभा का डेमोंस्ट्रेशन भी दिखा देता है.

शर्मा क्लीनिक का साइनेज दिखता है. टूटा-फूटा, मलहम लपेटे जोमो दिखाई पड़ता है.

यहाँ पर फिल्ममेकर की सूक्ष्म दृष्टि देखते ही बनती है: हार-जीत फिल्म का पोस्टर लगा है, जिसमें जोमो की दृष्टि ‘हार’ पर आकर ‘जूम’ कर जाती है, जो उसके मनोवेगों को व्यक्त करने का एक सहज प्रतीक बनकर उभरती है.

कुल मिलाकर, वह देर शाम अच्छे-खासे निशान लेकर लौटता है. ओमी गमछा लपेटे खटिया पर दौड़ लगाता है और उसे सहारा देकर खटिया पर बिठाता है. फिर वही युवा मनोवृत्ति. वे उत्सुकता से उससे आज के वाकये का नतीजा पूछते हैं.

वह कराहते हुए एकदम विपरीत और मनगढ़ंत ब्यौरा पेश करता है. उसके ब्यौरे में नेहा का भैया बहुत ही शालीन दिखता है. वह उन्हें बातचीत का पूरा स्पेस देता है.

पैरोडी में जोमो कभी सलीम के कॉस्ट्यूम में दिखाई देता है, तो कभी राज कपूर के अंदाज में पियानो बजाता है. यह श्रृंखला अनवरत चलती है, फिरोज खान से लेकर देवानंद तक.

वास्तविकता के विपरीत, उसके विवरण में रोमानी वातावरण का बोलबाला छाया रहता है.

ओमी और जोमो, त्याग- समर्पण, दोस्ती की खातिर पीछे हटने, जैसे जुमले बोलते हैं. वार्तालाप का वही स्तर, जो छात्रावासों में रोजमर्रा सुनने को मिलता था, “यार भाई मैंने तेरे लिए ये रास्ता छोड़ दिया, तू ही अपनी किस्मत को संभाल.”

लल्लन मियाँ की दुकान का दृश्य दिखाई देता है. सिद्धार्थ सिगरेट खरीदने गया है, उधार. इस पर लल्लन मियाँ कहते हैं, “आखिरी चानस दे रिया हूँ. तुम्हारे तीतर-बटेर जैसे दोस्त, चोरों की तरह मुँह छिपाकर फिर रहे हैं.” सिद्धार्थ यह भी जताता है कि, जिस दिन उसे कोई ऐसी ‘वो’ मिल जाए, जो बोले कि सिगरेट छोड़ दो, तो छोड़ के दिखा देंगे. तब के युवाओं के मध्य एक आमफहम सी शर्त. व्यसन छोड़ने के लिए भी एक खास ‘परंतुक’ की दरकार रहती थी.

जोमो और ओमी राजदूत पर सवार होकर ‘शिकार’ पर निकलते हैं. फिकरे कसना, जुमले बोलना और सीटी बजाना उनका रोजमर्रा का काम है. जैसे ही वे लल्लन मियाँ की दुकान पर पहुँचते हैं, ओमी सिगरेट खरीदने के लिए पान की गुमटी पर खड़ा हो जाता है, तभी ओमी उसको छोड़कर भाग जाता है. वह लहराते हुए राजदूत चलाता है और किसी अनाम लड़की(विन्नी परांजपे) को लिफ्ट देता है. मौके पर जैसे ही वह उसे उतारता है, वह दौड़ते हुए पार्क की तरफ दौड़ लगाती है. नतीजतन वह किसी अन्य के साथ चली जाती है. जय स्टैंड पर मोटरसाइकिल स्टार्ट करने की बेतहाशा कोशिश करता है. हताश-निराश जय राजदूत को पैदल खींचकर लाता है.

शेयरिंग रूम के हालात दिखाई देते हैं. अखबार, मैगजीन को कैंची से काटकर, कटिंग्स दीवार पर चिपकाना. दीवारें, सिने तारिकाओं की तस्वीरों से अटी दिखाई पड़ती है. विज्ञापनों में नौकरी खोजना. तभी कमरे में अयाचित कॉलबेल सुनाई पड़ती है. जोमी जोशोखरोश में दरवाजे की तरफ दौड़ लगाता है. जैसे ही वह की-होल से देखता है, दरवाजा खोलने के बजाय, पीछे की तरफ सरपट दौड़ लगाता है. कपड़े लपेटते हुए उछलकर जीना चढ़ते हुए, सीढ़ी पर कूदकर भागता है. दोबारा कॉलबेल बजती है. ओमी अक्सर कमरे में उठक- बैठक लगा रहा होता है अथवा योग का कोई आसन कर रहा होता है. कॉमन रुम्स में एक-न-एक शरीर-सौष्ठव का शौकीन निकल ही आता था. खैर, वह दौड़कर दरवाजा खोलने के लिए जाता है. की- होल से देखते ही, वह सहसा उल्टे पैर दौड़ लगाता है. उसी रफ्तार से उसी रास्ते भागता है. दोनों, बालकनी के छज्जे पर छुपे हुए नजर आते हैं. अयाचित घंटी तीसरी बार बजती है, तो सिद्धार्थ सोचता है, एक-एक करके दोनों दरवाजा खोलने गए थे, कहाँ मर गए. दरवाजा खोलने उसे खुद जाना पड़ता है. उसके चेहरे पर शेविंग क्रीम लिपटी हुई है. जैसे ही वह दरवाजा खोलता है, डोर-टू- डोर चमको साबुन का डेमोंस्ट्रेशन करने वाली सेल्सगर्ल नेहा दिखाई पड़ती है. जैसा कि आम जनजीवन में होता है, वह सेल्सगर्ल को वहीं से लौटाने का बहाना आजमाता है, लेकिन जब वो कहती है कि, ‘सैंपल बॉक्स’ मिलेगा. मैं साबुन बेचने नहीं, कंपनी का डेमोंस्ट्रेशन करने आई हूँ, तो उसे अंदर आने का मौका दे देता है. बाल्टी में डिटर्जेंट घोलकर कपड़ा डाल दिया जाता है. वह कहती है कि, पाँच मिनट का समय लगेगा.

यह पाँच मिनट का दृश्य, खासा रोचक है. दोनों अपरिचित हैं. ऐसी परिस्थिति आन पड़ी है कि कमरे में कुछ निश्चित समय काटना है. लड़का भी शर्मीला सा है. असहज सी होती सेल्सगर्ल दीवारों पर निगाह डालती है. एक ही झलक में लड़कों के कमरों का नजारा दिख जाता है. हर दीवार पर ढेरों पिनअप्स. सिने तारिकाओं, मॉडल्स से पटी हुई दीवारें. कुछ चित्र तो ऐसे हैं जो केवल ‘मैस्कुलिन ऑडियंस’ के देखने लायक हैं. जैसे ही, उसकी नजर उस दीवार पर पड़ती है, वह झट से तौलिया टाँगकर उसे ढँक लेता है. फौरन अपनी सफाई में कहता है, “ये दीवार मेरी नहीं है. मेरी वो है, गांधीजी वाली.“ अभी भी कपड़ा धुलने में समय बाकी है, तो वह असहज भाव से कहता है, “दूध नहीं है. नहीं तो आपको चाय पिलाता.“ वह माँ के हाथ के बने हुए लड्डू अनुनय-विनय करके उसे खिलाता है. अपने दोनों दोस्तों के विपरीत, सिद्धार्थ करियर-केंद्रित युवा है. वह नेहा से कहता है, मुझे मेरे दोस्त एब्नॉर्मल कहते हैं. मेरा मजाक उड़ाते हैं.

डिटर्जेंट में कपड़ा धुलने के बाद, वह कहती है, देखो, कितना साफ हो गया, तो वह बड़ी मासूमियत से कहता है, “मैंने तो आपको लॉन्ड्री का धुला हुआ तौलिया दिया था. आपको बिना धुला कपड़ा कैसे दे सकता था.“ वह जाते-जाते, उसे सैंपल बॉक्स दे जाती है. उसके जाने के बाद, वह दिए हुए डिटर्जेंट को एकसाथ घोलकर, ढ़ेर सारा झाग उड़ाता है. वह उल्लास, वह उद्दाम भाव, वह तरंग देखते ही बनती है. कोरे मन पर संचित खुशी, साक्षात् छलकती हुई दिखाई पड़ती है. यह शॉट बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है.

नेहा, सरगम संगीत विद्यालय में संगीत सीखती है. विनोद नागपाल, पहला अंतरा गाते हैं- काली घोड़ी द्वार खड़ी… येसुदास की शहद भरी मीठी सी आवाज.. नेहा दोहराती है. गीत शास्त्रीयता से ओतप्रोत है.

सिद्धार्थ उसी राजदूत पर सवार दिखाई पड़ता है और बस स्टॉप पर खड़ी नेहा को देख लेता है. वह उसे लिफ्ट देने की पेशकश करता है. फिर किसी रेस्तरां में जाने के लिए पूछता है. वह पूछता है, ‘इस वक्त के लिए कौन सा राग होगा.’ दोनों अपनी-अपनी पसंद की कॉफी और टूटी फ्रूटी मँगाते हैं. जब नेहा उससे उसकी हॉबी के बारे में जिज्ञासा जताती है, तो बताता है कि, वह बड़े चाव से इकोनॉमिक्स पड़ता है, जैसे लोग जेम्स हेडली चेइज के नॉवेल पढ़ जाते हैं. इस आकस्मिक भेंट पर नेहा कहती है, “क्या इत्तेफाक है कि, मैं बस स्टॉप पर थी और आप आ गए.” इस पर सिद्धार्थ बड़ी साफगोई से कहता है, “दरअसल इस इत्तेफाक के लिए मैं खुद जिम्मेदार हूँ.” “मैं चार बजे से ही संगीत स्कूल के आसपास चक्कर लगा रहा था.” वह भी उतने ही सहज भाव से कहती है, “संगीत स्कूल की टाइमिंग मैंने जानबूझकर लीक की थी.”

वह बेतकल्लुफी से दूसरे दौर की कॉफी और टूटी फ्रूटी मँगाता है, ताकि उसे साहचर्य का थोड़ा सा ज्यादा समय मिल सके. फिर वही मध्यवर्गीय युवाओं के छोटे-मोटे तौर-तरीके, जो युवा दर्शकों का हृदय स्पर्श कर जाते हैं.

लल्लन मियाँ तगादा करने रूम तक आ धमकते हैं. जोमी तो सटाक से तखत के नीचे छुप जाता है. जब वे उसे बाहर आने को ललकारते हैं, तो वह कहता है, “पहले वादा कीजिए, मारोगे नहीं.“ लल्लन मियाँ कहते हैं, “निकाल टके, कीमती शौक रखते हो, तो चुकाना भी सीखो.“ दोनों उनकी मिजाजपुर्सी में जुट जाते हैं. लल्लन मियाँ बकाए के एवज में बड़े गुलाम अली साहब का रिकॉर्ड जब्त कर लेते हैं. ओमी, स्टोव पर चाय बनाकर उन्हें पेश करता है. पहली घूँट भरते ही, लल्लन मियाँ भभक उठते हैं, “अबे, मट्टी का तेल डाल दिया क्या.“ उस दौर के विद्यार्थियों की नियति. तब स्टोव पर रसोई करना, लड़कों का एकमात्र साधन हुआ करता था. अक्सर चाय में केरोसिन की महक आ जाती थी. दोनों तरह-तरह से लल्लन मियाँ को फुसलाते हैं, एक-दो दिन में मनीऑर्डर आ जाएगा. लल्लन मियाँ, रिकॉर्ड वापस करते हैं और ‘चुकंदर कहीं के’ बोलकर उन्हें बख्श देते हैं.

सिद्धार्थ का मनीआर्डर आता है. वह रिसीव करता है, तो पोस्टमैन बख्शीश के लिए जो भंगिमा बनाता है, वो उस दौर के पोस्टमैन की सहज सी अभिव्यक्ति लगती है. मनीआर्डर से वह बकाया नहीं चुकाता, वरन् अच्छी-खासी खरीददारी करता हुआ नजर आता है. अमजद अली खान साहब के रिकॉर्ड, कपड़े-नेकटाई, इत्र-जूते-ऐनक. फर्स्ट टाइम, फॉल इन लव वाले युवा की सहज अभिव्यक्ति.

सिद्धार्थ-नेहा फिर उसी कॉफी शॉप पर मिलते हैं. ‘शॉपिंग की है.‘ कहते हुए नेहा उसके शर्ट से टैग निकालती है. सिद्धार्थ उसे हिचकते हुए ब्रेसलेट उपहार में देता है. महँगा होने के कारण, वह उसे मना कर देती है. हू-ब-हू वही मनोवृत्ति. कोई निर्णय लेने से पहले, भलीभाँति सोच-विचार. महँगा उपहार लेना, तब चारित्रिक दोषों में गिना जाता था. वह एकदम मना कर देती है. बेचारा सकपकाते हुए उसे वापस भी ले लेता है. उनके वार्तालाप में ‘मेल शॉवेनिज्म की एक झलक सी दिख जाती है.

सिद्धार्थ का नौकरी का कॉललेटर आता है. नौकरी मिलने की पहली खबर वह लल्लन मियाँ को सुनाता है. दोनों दोस्तों को उसके जीवन में इन दिनों हुई तरक्की का पता चल जाता है. दोनों अपनी विफलता से आहत रहते हैं. प्रतिशोध की गरज से वे सिद्धार्थ को सचेत करते हैं, ‘होशियार रहना’, ‘चालू चीज है’. आहत दर्प के चलते, वे उसके बारे में अनर्गल बातें उड़ाते हैं, अफवाह फैलाते हैं. फिर वही मानसिकता, जो दर्शकों को यथार्थ के करीब ले जाती है.

सिद्धार्थ को उनके घर का बुलावा रहता है. वह नेक इरादे से वहां पहुँच भी जाता है, लेकिन एशट्रे का रंग और माला चढ़ी फोटो वगैरह दोस्तों के बताए हुए संकेत चिह्न देखकर, सहसा अविश्वास- नकारात्मक सोच की ओर प्रवृत्त हो बैठता है. वह बिना तर्क के दोस्तों की बातों पर यकीन कर लेता है. नतीजतन वहाँ से निकलकर गेट पर नेहा को बुरा-भला कहता है. आहत कर देता है. संशय-संदेह-शुबहा, तब मध्यवर्गीय चरित्र में अच्छी-खासी मात्रा में पाया जाता था. ऊपर से पुरुषवादी सोच. तब ऐसे वाकए खूब होते थे जिनके कारण कई-कई जमती-जमाती गृहस्थियाँ तबाह होकर रह गई. ‘आपकी कसम’ से लेकर कई फिल्मों का केंद्रीय विषय यही तो रहा है. बड़े गहरे तरीके से इस वाकये को फिल्म में स्थान दिया गया है.

सरगम संगीत विद्यालय में गायन अभ्यास चलता है. ‘कहाँ से आए बदरा…. घुलता जाए कजरा…’ डुएट सॉन्ग है, येसुदास और हेमंती शुक्ला के स्वरों में. येसुदास के सधे हुए सुर का कोई जवाब नहीं. गंधर्वों सा स्वर. इस गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है, मानो श्रोता फुहार से भीग रहा हो. आनंद रस से सराबोर हो रहा हो. येसुदास की गायकी की खास बात यह है कि उनका स्वर-लालित्य, अंतरतम से निकल/ता है. हालांकि इस गीत में विरह की प्रतिध्वनि गुंजित होती है, लेकिन उसमें एक मीठी सी रागात्मकता भी सुनाई पड़ती है. उनकी गायकी, मौलिकता-शास्त्रीयता और लोक के अद्भुत संयोजन का नमूना पेश कर जाती है. कई दशकों तक सुधी श्रोता, इस गीत से एकमएक होते रहे.

आवेश में आकर सिद्धार्थ जो कुछ भी कर बैठा है, उसके हृदय को इसका गहरा आघात लगता है. उसके दिन भारी उहापोह में बीतते हैं. ‘इमोशनल क्राइसिस’ के इस दौर में वह नौकरी से रिजाइन करने की सोचता है. उधर दोनों दोस्त किसी ढाबे में खाना छक रहे होते हैं. वे सिद्धार्थ को लेकर बातें करते हैं. वे उसकी मनोदशा, उसकी उदासी पर चर्चा करते हैं. जोमो कहता है कि ‘उसे हार्ट फेल हुआ है’, तो ओमी उसे करेक्ट करता है ‘हर्टफेल नहीं, हर्टब्रेक. हमारा तो रोज होता है, हम रोज सँभल जाते हैं. उस बेचारे को पहली बार हुआ है, इसलिए संभाले नहीं संभल रहा है.’

वे रूम पर उसकी दराज में टिक-ट्वेंटी देखते हैं. दोनों उसके सामने खुलासा कर बैठते हैं, हमने तुमसे पहले जो कुछ कहा, वह सब झूठ था.

सिद्धार्थ नेहा से मिलने की कोशिश करता है. अंत में वे किसी गिरोह को पकड़वाते हैं और नाटकीय ढंग से इस कथा का सुखांत समापन होता है. उन्हें गिरोह को पकड़वाने के एवज में ईनाम मिलता है. सिद्धार्थ लल्लन मियाँ से कहता है कि, “आपका एहसान नहीं भूल सकता.“ इस पर लल्लन मियाँ तपाक से कहते हैं, “अहसान-वहसान छोड़ो, बस मेरा कर्जा चुका दो.“ ईनाम की राशि से दोनों दोस्त सफारी सूट पहने ललन मियाँ की दुकान पर हाजिर होते हैं और अपना कर्ज चुकाते हैं. इस बार वेव डनहिल की डिब्बी नहीं, वरन पूरा-का-पूरा कार्टन उठाते हैं. ईनाम-राशि शौक में फूँककर, फिर से उधारी शुरू कर देते हैं.

सई परांजपे की इस अद्भुत प्रस्तुति से मन एकदम प्रसन्नचित्त हो उठता है. हल्के-फुल्के मिजाज की यह फिल्म यथार्थ के करीब थी. धूम्रपान का अतिरंजित प्रयोग होने के बावजूद, उनका कसा हुआ निर्देशन, संवाद-पटकथा उनकी असाधारण सोच और प्रतिभा के मणिकांचन योग का नमूना प्रस्तुत करती है. जीवन-संसार के चरित्र और घटनाओं को फिल्म में ढ़ाल देने में उन्हें महारत सी हासिल थी. फिल्म का आस्वादन दर्शकों को मंत्रमुग्ध सा कर देता है. अपने जीवन के करीब होने के चलते फिल्म सोंधी- सोंधी सी लगती है, अपने जीवन के आसपास की सी लगती है.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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