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मथुरा के जमुनापार ने बनाया अपना सिनेमा

[दिल्ली में रहनेवाले संजय जोशी की जड़ें पहाड़ों में बहुत गहरे धंसी हुई हैं. वे नामचीन्ह लेखक शेखर जोशी के योग्य पुत्र हैं और पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं जिसने हाल ही में वीरेन डंगवाल की समग्र कविताओं के संकलन के अलावा ढेरों शानदार किताबें छापी हैं. संजय जोशी ने सिनेमा पर किया अपना तकरीबन सारा लेखन काफल ट्री को सौंप दिया है ताकि उसे आप तक पहुंचाया जा सके. उनके आलेख आप लगातार पढ़ते रहेंगे.]

मथुरा के जमुनापार इलाके के एक गरीब मुस्लिम मजदूर परिवार में पैदा हुए हनीफ मदार, मोहम्मद गनी और सनीफ मदार की खुद की शिक्षा तो बहुत ऊबड़ –खाबड़ तरीके से हुई लेकिन उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझते हुए अपने उपेक्षित इलाके जमुनापार के लिए हाइब्रिड नाम का स्कूल खोला जो सहकारी स्वामित्व पर चलाया जा रहा है, जिसमे बच्चों की फीस न्यूनतम है , जहां बहुत से गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा भी दी जाती है , जहां उनके चौमुखी विकास के लिए कोवलंट नाम से एक थियेटर समूह भी पिछले कई वर्षों से सक्रिय है . हाइब्रिड के एक संचालक मोहम्मद गनी पेशे से दर्जी रहे हैं और बकायदा दर्जीगिरी में प्रशिक्षित होकर मथुरा के जमुनापार इलाके में एक दुकान भी चलाते रहे हैं. दर्जीगिरी के अलावा फोटोग्राफी करना मोहम्मद गनी का पहला प्यार रहा है . कोवलंट समूह चलाते हुए मथुरा का यह समूह पहले नाटक और फिर धीरे –धीरे सिनेमा के नजदीक भी आया .

वे सिनेमा के माध्यम की व्यापकता और अपने माध्यम नाटक की सीमितता को भी गहरे समझते रहे हैं . कुछ स्कूल से जुड़े होने और कुछ फोटोग्राफी के दीवाने होने के कारण जब गनी साहब की नज़रों से ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘कैद’ गुजरी तो वे सबकुछ छोड़कर इस कहानी को फीचर फिल्म में रूपांतरित करके बड़े परदे के जरिये अधिक से अधिक लोगों तक पहुचाने के ख्वाब को साकार करने में जुट गए . इस ख़्वाब को पूरा करने के लिए जमुनापार के इन संस्कृतिकर्मियों ने जन सिनेमा की नीव डाली जिसके लिए 50000 रुपये की आधार राशि हाइब्रिड स्कूल की एक और संस्थापक अनीता चौधरी ने दी .

जन सिनेमा में उपकरणों की खरीद के वास्ते मोहम्मद गनी ने एक बड़े निर्णय के तहत अपने पुराने पेशे को छोड़कर फोटोग्राफी को ही शौक से ऊपर तरजीह दी और अपनी दर्जी की दुकान बेचकर सारा पैसा जन सिनेमा में लगाया . मोहम्मद गनी और जमुनापार मथुरा के उनके दूसरे दोस्त कुछ वर्ष पहले ही फैज़ा अहमद खान की दस्तावेजी फिल्म ‘सुपरमैन ऑफ़ मालेगांव’ देख चुके थे जिसमे मालेगांव के शफीक के सिनेमा बनाने के जुनून और साथ ही तकनीक के विभिन्न जुगाड़ों पर विस्तार से चर्चा हो चुकी थी . मोहम्मद गनी के साथ हनीफ मदार , सनीफ मदार , कोवलंट के उत्साही कलाकारों और हाइब्रिड स्कूल के तमाम सहयोगियों की टीम थी जो अपना सिनेमा बनाने को उत्सुक थी . गनी ने फिल्म का विषय भी स्कूली जीवन और शिक्षा से जुड़ा उठाया जिससे वे हर रोज दो- चार होते थे .

हिंदी कहानीकर ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘कैद’ का चुनाव हुआ और हर तरह के जुगाड़ लगाकर फिल्म का निर्माण हुआ . कैमरे की लागत के अलावा कुल 2500 रुपयों में 104 मिनट की फीचर फिल्म तैयार थी . फ़िल्म अंधविश्वास के खिलाफ अभियान चलाकर शहीद हो जाने वाले नरेन्द्र दाभोलकर को समर्पित थी . जब श्री दाभोलकर के साथियों को पता चला चला कि मथुरा में इस तरह एक फीचर फिल्म का निर्माण हुआ है और वह स्कूली शिक्षा के साथ –साथ अंधविश्वास पर भी सवाल करती है तो उन्होंने आगे बढ़कर जन सिनेमा को 10000 रुपयों की बिना शर्त मदद भी की .

अब बात थी फिल्म को दिखाने की और कैद के बहाने स्कूली शिक्षा और किशोरों के मन को समझने की और साथ ही साथ समाज में फैले अंधविश्वास पर हमला बोलने की . कैद की निर्माता टीम जन सिनेमा ने मथुरा के पी वी आर ( भारतीय शहरों में सिनेमा हालों का एक बड़ा नेटवर्क जिसने सबसे पहले हिन्दुस्तान में मल्टीप्लेक्स {बहुस्क्रीन} सिनेमाघरों की शुरुआत की) समूह से बात की तो अकेले मथुरा में ही उन्होंने कुछ शो के इंतज़ाम के लिए डेढ़ लाख रूपये मांग लिए .

जन सिनेमा ने अब एकदम नए तरीके से अपने नए बने सिनेमा को दिखाने की शुरुआत की . एक सफ़ेद चादर , सस्ता एल सी डी प्रोक्जक्टर और लैपटॉप के इंतज़ाम का बजट पी वी आर के डेढ़ लाख के कुल बजट का सिर्फ एक फीसद यानि 1500 रूपये था . अकेले मथुरा में जन सिनेमा ने विभिन्न स्कूलों , लोगों के घरों और गाँव की चौपालों में हुई तकरीबन 15 स्कीनिगों में कुल 7000 दर्शकों तक कैद फिल्म की बहस को आम लोगों तक पहुंचा दिया और इस दौरान 300 रुपये से लेकर 1700 रुपयों तक का सहयोग भी मिला जो कुल मिलाकर 5000 रूपये तक था. साल 2014 और 2015 में प्रतिरोध का सिनेमा के गोरखपुर , आजमगढ़ , उदयपुर, पटना और महाराजगंज फिल्म फेस्टिवलों में यह कुल 2000 दर्शकों द्वारा सराही गयी और करीब 150 दर्शकों ने इसकी डी वी डी को खरीदकर आगे दिखाने का भरोसा दिया . मथुरा के जमुनापार में बनी इस फिल्म के यह आकंडे क्या किसी नए समय की सूचना नहीं देते ? मैं समझता हूँ कि यह बिलकुल एक नए समय की बात है जिसमे सिनेमा बनाना जितना आसान और संभव है उससे भी ज्यादा खास है इसको स्वतंत्र तरीके से दिखा पाना.

संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.

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