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क्रिसमस ट्री : सिर्फ पेड़ नहीं, परम पिता परमेश्वर में हमारी आस्था व विश्वास का प्रतीक

क्रिसमस का त्यौहार आ गया है. आइए, आज ‘क्रिसमस ट्री’ की बात करते हैं.
(Christmas tree Deven Mewari)

क्रिसमस ट्री यानी वही हरा-भरा, प्यारा-सा पौधा जिसे क्रिसमस यानी बड़े दिन के त्योहार पर घर में खूब सजाया जाता है. उसमें रंग-बिरंगी पन्नी लगाई जाती है. चमकीले तारों, कांच के मोतियों, रिबन, रंगीन बल्बों और झालरों से सजाया जाता है. और हां, उसमें छोटे-छोटे पैकेट और टोकरियां लगा कर, उनमें मजेदार उपहार छिपाए जाते हैं!

क्या आप जानते हैं, ‘‘क्रिसमस ट्री’ के रूप में कौन-से पेड़ सजाए जाते हैं? स्प्रूस! ठीक कहा आपने. और कोई पेड़? ‘फर’? हां, यह भी बिल्कुल ठीक. और डगलस फर? हां, डगलस फर भी ठीक है. ये सभी कोनिफर यानी शंकुधारी पेड़ हैं. इनके फल शंकु के आकार के होते हैं. जैसे, चीड़ और देवदार के फल. स्प्रूस हो या फर, इनके पेड़ नीचे से चौड़े और ऊपर की ओर लगातार पतले होते जाते हैं. इसीलिए देखने में ये तिकोने लगते हैं. स्प्रूस हो या फर, या फिर डगलस फर- ये तीनों पेड़ चीड़ परिवार के ही सदस्य हैं. लेकिन, इनका वंश और जाति अलग-अलग है. वनस्पति विज्ञानियों की भाषा में स्प्रूस ‘पीसिया’, असली फर ‘एबीज’ और डगलस फर ‘स्यूडोसूगा’ कहलाता है. दुनिया भर में डगलस फर के हर साल लाखों पेड़ उगाए जाते हैं. सात से 12 वर्ष में वे दो मीटर तक लंबे हो जाते हैं. तब उन्हें क्रिसमस ट्री बनाने के लिए काट लिया जाता है.

स्प्रूस का पेड़

‘फर’ तो ‘फर’ ही है, फिर ‘डगलस’ फर क्यों? इसलिए कि डेविड डगलस नामक सज्जन ने सन् 1826 में इस ‘फर’ की खेती शुरू की थी. उनके सम्मान में लोगों ने इसे ‘डगलस फर’ कहना शुरू कर दिया. जंगलों में इस ‘फर’ के पेड़ 20 से 100 मीटर तक ऊंचे होते हैं.

और, स्प्रूस के पेड़ों की ऊंचाई अधिक से अधिक 60 मीटर तक होती है. यों, ज्यादातर पेड़ों की ऊंचाई इससे कम ही होती है. इसके पेड़ बहुत सुंदर लगते हैं. इसीलिए अंग्रेजी भाषा में स्प्रूस का अर्थ है सजाना या सजावट करना. यूरोप में अधिकतर इसी के क्रिसमय ट्री बनाए जाते हैं. आपको यह जान कर खुशी होगी कि हमारे देश के उत्तर-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में कश्मीर से उत्तराखंड तक स्प्रूस के सदाबहार पेड़ पाए जाते हैं. उत्तराखंड में इन्हें कथेला, मोरिंडा या काला चीलू कहा जाता है. कश्मीर, शिमला, डलहौजी और चकराता (देहरादून) में स्प्रूस के पेड़ों की शोभा देखते ही बनती है. उत्तराखंड के वनों में असली ‘फर’ यानी एबीज के पेड़ भी पाए जाते हैं. वहां लोग इन्हें रेंसल या रागा कहते हैं. वनों में स्प्रूस को एबीज और देवदार के साथ उगना बहुत पसंद है.

स्प्रूस के फल

आज से करीब 150 साल पहले तक डगलस फर को देख कर वनस्पति विज्ञानी यह तय ही नहीं कर पा रहे थे कि इसे कहें तो क्या कहें? क्योंकि, यह चीड़ जैसा भी लगता था और स्प्रूस, एबीज व सूगा जैसा भी. लेकिन, एक बात जरूर थी. इसके फल यानी शंकु बहुत सुंदर और अलग प्रकार के थे. तब फ्रांसीसी वनस्पति विज्ञानी करिअरे ने सन् 1867 में इसे नकली सूगा मान कर स्यूडोसूगा वंश में रख दिया था.

स्प्रूस का पेड़

यह तो हुई वनों में उगने वाले इन पेड़ों की बात. मगर, वन से ये क्यों मन में बस गए और घर भीतर के क्रिसमस ट्री बन गए? बहुत पुरानी है इसकी कहानी…

कहते हैं, सातवीं सदी में इंग्लैंड के डेवोनशायर प्रांत में क्रेडिटन का एक मठवासी धार्मिक उपदेश देने के लिए जर्मनी गया. वहां थुरिंजिया क्षेत्र में रहा. वह परम परमेश्वर, परमेश्वर-पुत्र यानी प्रभु मसीह येशु और पवित्र-आत्मा-प्रभु के इन तीनों रूपों को समझने के लिए फर के तिकोने पेड़ का उदाहरण देता था. तब लोगों ने फर को प्रभु का पवित्र पेड़ मानना शुरू कर दिया. उससे पहले तक वे बांज यानी ओक के पेड़ों को पवित्र मानते थे.

डगलस फर

कहा जाता है ‘क्रिसमस ट्री’ पहली बार सन् 1510 में लातविया में सजाया गया था. मार्टिन लूथर नामक आदमी ने सोलहवीं सदी में अपने बच्चों को दिखाने के लिए क्रिसमय ट्री पर मोमबत्तियां सजाईं कि देखो, अंधेरी रात में तारे इसी तरह टिमटिमाते हैं! फिर तो जर्मनी में क्रिसमस बाजार लगने लगे. उनमें क्रिसमस ट्री सजाने के लिए कागज के फूल, रंगीन तार और तरह-तरह का सामान मिलने लगा. लोग क्रिसमस ट्री को स्वर्ग की अदन वाटिका का पवित्र पेड़ ‘ट्री आॅफ पैराडाइज’ मानने लगे. उन दिनों मेज पर छोटे-छोटे क्रिसमस ट्री सजाए जाते थे. सन् 1610 में चांदी की चमकीली पन्नी का आविष्कार हुआ और क्रिसमस ट्री इससे सजाए जाने लगे. तीन-साढ़े तीन सौ साल तक चांदी की कीमती पन्नी से ही क्रिसमस ट्री चमकते रहे.

जियोर्जियाई राजाओं के साथ क्रिसमस ट्री जर्मनी से इंग्लैंड पहुंचा. इंग्लैंड में रहने वाले जर्मन व्यापारी क्रिसमस के त्योहार पर अपने घरों में क्रिसमस ट्री सजाने लगे. लेकिन, ब्रितानी लोगों को जर्मन राजा पसंद नहीं थे. इसीलिए क्रिसमस ट्री में उन्होंने खास रुचि नहीं ली. फिर भी, जर्मन पड़ोसियों की देखा-देखी कुछ लोगों ने घर भीतर क्रिसमस ट्री सजाना शुरू कर दिया.

फिर क्या हुआ? फिर एक मजेदार बात हुई. वर्ष था सन् 1846. महारानी विक्टोरिया और जर्मन राजकुमार अल्बर्ट का एक चित्र छपा जिसमें वे बच्चों के साथ क्रिसमस ट्री के चारों ओर खड़े थे. बस, उनको देख कर आम लोग भी घरों में क्रिसमस ट्री सजाने लगे. यह रिवाज इंग्लैंड से अमेरिका तक लोकप्रिय हो गया. महिलाएं बड़ी मेहनत से क्रिसमस ट्री सजाने लगीं. उसमें नन्हीं टोकरियां लटका कर उनमें मीठे बादाम रख देतीं. पेड़ की चोटी पर देवदूत सजातीं. इस तरह पेड़ की सजावट बढ़ती गई.

इस तरह क्रिसमस ट्री का प्रचलन बढ़ता ही चला गया. इससे जर्मनी में एक नई समस्या पैदा हो गई. क्रिसमस आता और लाखों फर के पेड़ों के सर कलम हो जाते. जानते हैं क्यों? इसलिए कि फर के ऊपरी हिस्से को काट कर लोग क्रिसमस ट्री बना लेते. इस तरह लाखों पेड़ों की बढ़वार रुक जाती. बस, फिर क्या था, जर्मनी में कानून बना कर फर का सर कलम करने पर पाबंदी लगा दी गई. फल यह हुआ कि वहां हंस के पंखों से बने नकली क्रिसमस ट्री बनाए जाने लगे.

नकली क्रिसमस ट्री

यह तो हुई इंग्लैंड और जर्मनी की बात. अमेरिका में गृह युद्ध चल रहा था. मध्य जर्मनी के हेसे प्रांत के सैनिक वहां गए तो अपने साथ क्रिसमस ट्री भी ले गए. सन् 1747 के आसपास तक वहां पेंसिल्वेनिया राज्य में क्रिसमस के त्योहार पर लोग सामूहिक क्रिसमस ट्री सजाते रहे. प्रचलन बढ़ता गया और क्रिसमस ट्री घर भीतर पहुंच गया. घरों में बड़े-बड़े फर सजाए जाने लगे. जिस अमीर का जितना बड़ा घर, उसमें उतना ही बड़ा फर! सजा-धजा, चमचमाता फर.

बीसवीं सदी शुरू हुई. सन् 1901 में महारानी विक्टोरिया का निधन क्या हुआ कि ब्रिटेन में लोग शोक में क्रिसमस ट्री सजाना ही भूल गए. सजाने का मन ही नहीं होता था. बाद में मन हुआ भी तो लोगों ने नकली क्रिसमस ट्री सजाने शुरू कर दिए. जर्मनी में हंस के पंखों का क्रिसमस ट्री चल ही चुका था. चांदी और एल्युमिनियम के क्रिसमस ट्री बिकने लगे. बस, अपनी-अपनी पसंद का हिसाब हो गया. कोई असली क्रिसमस ट्री सजाता और कोई नकली. लोग घरों में चार मीटर से भी बड़े नकली स्प्रूस सजाने लगे. अमेरिका में ‘सिल्वर पाइन’ नामक क्रिसमस ट्री का पेटेंट कर दिया गया. मतलब उसे बस वही कपंनी बना सकती थी, दूसरा कोई नहीं. मजेदार बात तो यह कि उन नकली पेड़ों पर असली पेड़ों की खुशबू छिड़की जाती थी ताकि वे असली लगें! कई लोग खुश हुए कि इनकी सुईदार पत्तियां भी नहीं गिरतीं. कई लोग मन मसोस कर रह गए कि पत्तियां ही न गिरीं तो भला वह कैसा क्रिसमस ट्री? बहरहाल, नकली क्रिसमस ट्री से भी कई तरह के क्रिसमस मनाए गए जैसे सितारों की रात, गोधूलि, हिमानी क्रिसमस ट्री आदि. मल्या उड़ कर माल-भाबर की ओर जाते थे और हम गर्म इलाके के अपने दूसरे गांव

एक और जरूरी बात. क्रिसमस ट्री घर में कब तक हरा-भरा बना रह सकता है? यह उसके स्टैंड और आपके पानी देने पर निर्भर करता है. स्टैंड में क्रिसमस ट्री के लिए भरपूर पानी होना चाहिए. एक-एक क्रिसमस ट्री एक-एक दिन में तीन-चार लीटर पानी पी लेता है. बाकी चीजें हों न हों, उसे पानी जरूर चाहिए. और, कटाई-छंटाई करके उसे तिकोना रूप देना ही है. तभी तो वह प्रभु के तीनों रूपों का प्रतीक बनेगा- परम पिता परमेश्वर, परमेश्वर पुत्र येशु और पवित्र आत्मा का प्रतीक!

तो, क्रिसमस ट्री केवल एक पेड़ नहीं, परम पिता परमेश्वर में हमारे विश्वास और हमारी आस्था का प्रतीक भी है.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Sudhir Kumar

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