कुमाऊं की बेजोड़ सांस्कृतिक परम्पराओं व लोककलाओं का अपना समृद्ध इतिहास रहा है. इन लोकपरम्पराओं की जड़ें हमें अपने इतिहास तथा पुरातन समाज की गौरवपूर्ण गाथाओं से भी जोड़ती हैं. कुमाऊं का प्रतिनिधि लोकनृत्य छोलिया भी एक ऐसी ही लोककला है, जिसका इतिहास एक हजार वर्ष अथवा उससे भी पूर्व का रहा है. वीर भोग्या वसुन्धरा का यह कुमाऊं अंचल अतीत से ही अपनी वीरता व रणकौशल के लिए विख्यात रहा है और आज भी देश की सीमाओं की रक्षा में यहां के रणबांकुरे प्रथम पंक्ति में शुमार हैं.
(Choliya Uttarakhand Folk Dance)
प्रचलित मान्यताओं के अनुसार कभी कुमाऊं के विजयी राजा ने जब अपने रणकौशल का बखान राज दरबार में किया तो रानियों की बरबस लालसा हुई कि काश वे भी इस रण कौशल को अपनी आंखों से देखने की साक्षी होती. तब राजा ने अपनी ही सेना को ही दो हिस्सों में बांटकर परस्पर युद्ध का छद्म प्रर्दशन रानियों के सम्मुख करवाया, कहा जाता है कि तभी से हर वर्ष इस प्रकार का छद्म प्रदर्शन एक परम्परा के रूप में विकसित हुआ और आज हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक परम्परा का हिस्सा बन चुका है.
इसमें दो राय नहीं कि आज के प्रचलित मार्शल आर्ट जूडो कराटे, कुंग्फू, ताईक्वांडो की तुलना में छोलिया कहीं पुराना एवं विशुद्ध स्वदेशी मार्शल आर्ट है. बात अगर मार्शल आर्ट के इतिहास की करें तो भारतभूमि मार्शल आर्ट की जनक रही है. पौराणिक आधार पर भगवान परशुराम मार्शल आर्ट के प्रथम गुरू बताये जाते हैं. जिन्हें कलरीपायट्टु नाम से जाना जाता था. बाद में बौद्ध धर्म के प्रचारक बोधिवर्मन ने चीन आदि देशों की यात्रा कर इसका प्रचार-प्रसार किया.
कुमाऊं क्षेत्र का छोलिया भी मार्शल आर्ट का ही एक रूप है. ये बात अलग है कि मार्शल आर्ट के अन्य रूप आज एक उद्योग का रूप ले चुके हैं, लेकिन छोलिया का व्यावहारिक उपयोग आत्मसुरक्षा के लिए नहीं बल्कि बल्कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा का हिस्सा भर रह चुका है. जाहिर है कि आज का युग अस्त्र का है शस्त्र का नहीं, इसलिए आत्मसुरक्षा की दृष्टि से यह अपनी प्रासंगिकता खो चुका है, लेकिन इतिहास के उस दौर की याद हमें अवश्य दिलाता है, जब युद्ध कौशल में इसका प्रयोग किया जाता होगा.
(Choliya Uttarakhand Folk Dance)
छोलिया जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, छलपूर्वक युद्ध करना. छोलिया नर्तकों की टोली को छोल्यार कहा जाता है. छोल्यारों की संख्या 10 से 20 तक भी हो सकती हैं. इसमें ढोल, दमाऊ, मशकबीन, तुरही, रधसिंघा वादकों के साथ छोलिया नर्तक शामिल होते हैं. नर्तकों के दायें हाथ में तलवार तथा बायें हाथ में प्रहार को रोकने के लिए ढाल होती है. इसमें वाद्ययंत्रों के वादकों एवं नर्तकों के बीच गजब की जुगलबन्दी होती है. मुख्य नियंत्रण ढोल वादक के हाथों होता है, ढोल वादक की ताल के साथ ही नृत्य पदचाप परिवर्तित होते हैं. कहा तो ये भी जाता है कि तब युद्ध के समय ढोल वादक की ढोल की थाप ही सैंनिकों के लिए संकेत होती थी कि कब उन्हें किस तरीके से पैंतरा बदलना है और कैसे बचाव करना है.
जब नर्तक थक जाते हैं, तो उन्हें क्षणिक विश्राम देने के लिए चांचरी व छपेली के बोल बीच में कभी-कभार सुनने को मिलते हैं. रणसिंघ जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि युद्ध की घोषणा के लिए रणभेरी हुआ करती थी और साथ में चलता था विजय पताका के रूप में निसाण यानि विजय निशान यानि विजयी होने की पहचान. जो युद्ध की ओर प्रस्थान करते समय संघर्ष का प्रतीक लाल कपड़े की पताका आगे और शान्ति की प्रतीक सफेद पताका पीछे होती जब कि विजय प्राप्त कर लौटते समय सफेद पताका आगे तथा लाल पताका पीछे रखने की परम्परा थी. आज भले युद्ध में इस पताका का इस्तेमाल न होता हो लेकिन सामाजिक व धार्मिक उत्सवों में किसी प्रयोजन विशेष के लिए जाते समय तथा प्रयोजन सिद्ध होने पर लौटते समय इसी परम्परा का निर्वाह किया जाता है.
छोल्यारों की वेशभूषा भी वर्तमान समाज व संस्कृति से एकदम भिन्न होती है. विभिन्न रंगों की फुन्नियों से बना रंगबिरंगा घेरेदार चोला या झगुला, चूड़ीदार पैजामा, सिर पर सफेद साफा अथवा पगड़ी, पैंरो में घुघरू, कमर में रंगीन कमरबन्द तथा श्रृंगार के रूप में चेहरे पर चन्दन व सिन्दूर से कलात्मक आलेखन. यह हमें आज से एक हजार वर्ष पूर्व उस दौर की वेशभूषा का आभास कराता, जब सैंनिकों की यही वेशभूषा हुआ करती होगी. पगड़ी तो एक शताब्दी पूर्व तक हमारे पहनावे का हिस्सा रहा ही है, साथ ही चुश्ती व फुर्ती के लिए चूड़ीदार पैजामा सैनिकों के लिए अनिवार्य हुआ करती होगी. हमारे समाज ने समय के साथ वेशभूषा में बदलाव आया लेकिन पारम्परिक संस्कृति का यह लोकनृत्य उसी परम्परा का निर्वाह करता आ रहा है.
(Choliya Uttarakhand Folk Dance)
ढाल व तलवार से युद्ध का अभिनय चपलता के साथ छल पूर्वक इस अन्दाज में किया जाता, कि प्रतिद्वन्दी के अनुमान के विपरीत हैरत में डालकर प्रहार करना ताकि प्रतिपक्षी को बचाव का मौका ही न मिले और उसी चपलता से सामने वाले के प्रहार से स्वयं को बचाने का करतब ही इस लोकनृत्य के अभिनय की प्रमुख विशेषता है.
धारचूला क्षेत्र के रं समाज में महिलायें ही छोल्यारों का किरदार निभाती हैं. इसके विपरीत आज छोलिया नृत्य के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करने के उद्देश्य से पुरूष छोल्यारों के बीच महिला का स्वांग रचने की जो परम्परा चल पड़ी, वह हमारी संस्कृति में फूहड़ता ही परोसती है. जाहिर है कि इस तरह की परम्परा न तो इस लोकनृत्य के इतिहास का हिस्सा रही है और न पर्वतीय नारी की अस्मिता के अनुकूल ही है.
इस लोकरंजक परम्परा को बाद में वैवाहिक उत्सवों, मेलों व धार्मिक आयोजनों का हिस्सा बना दिया गया. विशेष रूप से राज परिवारों की शादियों का छोलिया लोकनृत्य हिस्सा बन गया. तब राज परिवारों में दुल्हन को कभी बलात् जीतकर भी लाया जाता था. बारात के साथ जाने वाला लोकनर्तकों का यह समूह एक तरह से बारात में सेना की टुकड़ी का प्रतिनिधित्व करता था. साथ चलने वाले निशाण जहां दूर से बारात आगमन का संकेत देते वहीं पताका विजय का प्रतीक भी मानी जाती.
(Choliya Uttarakhand Folk Dance)
मान्यता ये भी रही है कि शादी के समय नये जोड़े पर बुरी आत्माओं के प्रकोप की भी संभावना ज्यादा रहती है और यह माना जाता है कि छोलिया के शौर्यपूर्ण प्रदर्शन के सम्मुख भूत-प्रेम आदिं बुरी आत्मायें इससे दूर रहती है. इसलिए भी छोलिया नृत्य विवाह के वक्त बारातों का एक सांस्कृतिक हिस्सा बन गयी.
इसके अतिरिक्त विभिन्न लोकोत्सवों, मेलों एवं धार्मिक उत्सवों में छोलिया नृत्य आज भी प्रमुख आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है. अन्य लोकोत्सव, देवीधुरा का बग्वाल मेला, बागेश्वर का उतरैणी का मेला, स्याल्द विखौती का मेला, नन्दादेवी आदि स्थानीय मेलों में छोलिया लोकनृत्य के साथ होते हैं. नन्दा देवी महोत्सव में भी कदली वृक्ष लाने व शोभायात्रा के लिए भी दल की अगवानी छोल्यारों द्वारा ही की जाती है.
वर्तमान डिजीटल दुनियां में डीजे की कर्कश ध्वनि व बैण्ड बाजे के शोर शराबे के बीच तथा परम्परागत लोकनर्तकों की इस पेशे से उदासीनता इसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनकर उभर रहा है. लेकिन दूसरी ओर कुछ संस्कृति प्रेमी विशेषरूप से पिठौरागढ़ की कुछ संस्थाऐं छोलिया लोकनृत्य प्रतियोगिताओं का आयोजन कर इसे प्रोत्साहित भी कर रहे हैं. कुमाऊं के इस प्रतिनिधि लोकनृत्य के संरक्षण के लिए शासन व प्रशासन द्वारा भी इस दिशा में भरपूर प्रोत्साहन की दरकार है.
(Choliya Uttarakhand Folk Dance)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें: उतरैणी के बहाने बचपन की यादें
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…