कैंजा दूसरे नंबर की थी. उसकी परवरिश कुछ उपेक्षा के साथ हुई थी. नाम था लछिमा. इजा कहती थी, वह मूरख थी, लाटी जैसी, मुझे वह बेहद खुबसूरत लगती थी. उसकी नाक विशुद्ध पहाड़ी थी. वह भोली थी लेकिन उनमें ममता भरी हुई थी. जब मैंने कैंजा को देखा वह बेहद उदास रहती थी. उसके चेहरे पर रस की कमी खलती थी. वह मुझे हमेशा गोद में ही लिए रहती थी. उसे मैंने अक्सर इजा से यह कहते सुना था कि गोपू को मुझे दे दे. (Childhood Memoir Govind Singh)
मौसी की शादी झलीमा नामक गाँव में हुई. उसका पति प्रताप सिंह बेहद खुबसूरत था. लम्बा चौड़ा-चौड़ा हट्टा-कट्टा जवान. वह समय रहते फ़ौज में भर्ती हुआ. कैंजा से उसकी शादी तो हुई लेकिन उसने कभी कैंजा को अपनाया नहीं. हमेशा मार-पीट ही करता. वह फ़ौज से घर आता और कैंजा को मार-पीट कर भगा देता. कैंजा के सास-ससुर भी ऐसा करने लगे. प्रताप सिंह की दूसरी शादी कर दी.
घर में सौत के आने के बाद भी कैंजा ने बुरा नहीं माना. कहती कि नौकरानी बना कर रखो, लेकिन मैं रहूंगी यहीं लेकिन प्रताप सिंह और उसके मां-बाप कैंजा को मारपीट कर भगा देते. अंत में कैंजा को लौटकर मायके आना पड़ता. एकबार उन्होंने कैंजा के सारे अच्छे कपड़े, जेवर आदि छीन कर मायके लौटा दिया. जब प्रताप सिंह हवलदार फ़ौज से रिटायर होकर पेंशन लेकर घर आ गया तो कैंजा ने एक बार और सुलह की कोशिश की लेकिन इस बार भी उन्हें पति की दुत्कार ही मिली. बाद में कांसबाबू यानि मौसाजी ने जौराशी में दुकान खोल ली थी.
एक बार जौराशी मेला लगा था. रात का यानि बासा. मेरी उम्र छः साल की होगी में कैंजा के साथ मेला गया था. अक्तूबर का महिना रहा होगा. जौराशी काफ़ी ऊँचाई पर है. बांज ओर देवदार के पेड़ हैं, लिहाजा वहां रात को हल्की गुनगुनी ठंड पड़ने लगी थी. लीमा के लोगों ने एक जगह घेर रखी थी, सभी उसी जगह पर बैठे होते. (Childhood Memoir Govind Singh)
क्या औरत क्या मर्द, कैंजा पर तरह-तरह के तंज कसते कि हौल्दारनी, तेरे पति की तो इतनी बड़ी दुकान है, तू हमारे बीच क्यों बैठी है? कैंजा एक फीकी सी मुस्कान फेंक देती. लेकिन उनका तनमन सब उसी तरफ था जिस तरफ इनके पति की दुकान थी.
कैंजा की गांठ में मुश्किल से एकाध रुपया रहा होगा, जिसमें से कुछ पैंसों की नारंगी टॉफ़ी वह मुझे दिला चुकी थी. रात के दुसरे पहर कैंजा ने हिम्मत बटोरी और कांसबाबू की दुकान के पास ले जाकर मुझे छोड़ती हुई बोली, जा बेटा जा, वह रही तेरे कांसाबाबू की दुकान. वह मूछ वाला तेरा कांसबाबू है. जा अपने कांसबाबू की दुकान पर जा. तुझे देखते ही वह तुझे पहचान जायेंगे और ग्वाला मिसरी देंगे. जुलपी देंगे. ले आना मेरे लिए भी.
मैं कांसबाबू की दुकान पर गया और मैंने कहा कि कैंजा वहां पर बैठी है. उस अबोधावस्था में भी निश्चित रूप से मैं यह जान गया था कि कांसबाबू ने मुझे पहचान लिया था. लेकिन उन्होंने मुझे ऐसे भगा दिया जैसे मैं कोई भिखारी हूँ.
प्रताड़ित होते हुए भी उनके मन में अपने पति के लिए कोई दुर्भाव नहीं था. सौत के बेटे-बेटियों को वह अपना ही समझती थी. सौत का एक बेटा था – नारायण. वह मेरा हमउम्र था. जब मैं नवीं में था तो एक बार मैं झलीमा की धार से होते हुए जौराशी जा रहा था जहां से मुझे कनालीछीना जाना था. झलीमा की धार में अक्सर वहां के बच्चे अपनी गाय-बकरियां चराने आते थे. मैंने वहीं से आवाज लगाई – कैंजा-कैंजा. लीमा के अपने खेत में कैंजा काम कर रही कैंजा को लगा कि हो न हो नारायण ही होगा. वह जैसे फूल के कुप्पा हो गई. बोली, इजा आज कैसे आ गई मेरी याद? मैं बोलता रहा मैं गोविन्द हूँ, नारायण नहीं, लेकिन कैंजा अपने सपने से बाहर ही नहीं आना चाहती थी. वह बार-बार कहती कि नारायण… इजा तेरे पिताजी कैसे हैं? इजा कैसी है, बाकीभाई-बहन कैसे हैं. मैं उदास होकर आगे बढ़ा.
एक बार कैंजा को पता चला कि प्रताप सिंह हवलदार की तबियत काफी खराब रहने लगी है और अब सभी डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं. ऐसे में कैंजा हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकती थी, वह पंडित गोपाल दत्त के पास गई पाराकोट. पंडितजी ने सलाह दी कि यदि तुम गंगनाथ के मंदिर में सात दिन सात रात तपस्या करो, सात गोदान करो तो तुम्हारा पति ठीक हो सकता है. कैंजा से ऐसा ही करने की ठानी. पहाड़ की क्लासिक प्रेमकथा : कोसी का घटवार
लीमा के पास जंगल में गंगनाथ का एक छोटा सा मंदिर है. आस-पास बांज के पेड़ हैं. सुरम्य स्थल है. कैंजा वहां पहुंची. आरती वाले दिये में तेल डाला, दीप जलाया और बैठ गयी मंदिर के द्वार पर. रात को यह जगह एकदम वीरान हो जाया करती थी. लोग बाघ-भालू के डर से बाहर भी नहीं निकलते लेकिन कैंजा तपस्या में बैठ गयी. न खाया, न पानी पिया. आग जलाई दीप जलाया और बाबा गंगनाथ का स्मरण कर करने लगी तपस्या. एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता. दिन में मायके के लोग आते, यह देखने कि लछिमा बची हुई है कि नहीं. शाम होते-होते लछिमा से अनुरोध करते कि घर चल, लेकिन वह नहीं मानती. कहती मैं मरुँ या जियूं, यहीं रहूंगी.
अन्य गांव के लोग भी देखने आने लगे कि एक औरत गंगनाथ के मंदिर में सात दिन के अखंड व्रत में बैठी है. आखिर कैसी है यह औरत? यहां तक की झलीमा से भी लोग आए और कैंजा की भक्ति ओर शक्ति का गुणगान करके चले गये.
इस तरह सात दिन तक इस वीरान मंदिर पर कैंजा ने अखंड तपस्या की अंतिम दिन कैंजा ने सबसे छोटे सौतेले भाई रामसिंह को जौराशी भेजा कि अपने जीजा से कहना तुम्हारी पत्नी अखंड व्रत में बैठी है. आज आखिरी दिन सात गोदान किये जाने हैं, पंडित को देने के लिये कुछ दक्षिणा और कुछ प्रसाद की सामग्री लेते आना. राम सिंह दीदी के आदेश पर जौराशी पहुंचा. भीना से सारी बात कही.
हवलदार ने रामसिंह को डांटा और मां-बहन की गाली दी. गंगनाथ बाबा को भी गाली दी और कहा मैंने तेरी बहन को कब का छोड़ दिया, तुम लोग मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ रहे हो. कुछ ही दिन बाद लगभग 50-52 साल की उम्र में कैंजा की मृत्यु हो गई. कुछ अर्से बाद हवलदार का भी देहांत हो गया. (Childhood Memoir Govind Singh)
अव सुनते हैं कि कैंजा भूत बनकर अपने ससुराल वालों के घर चली गई है और वे सब लोग परेशान हैं. उन्हें उसकी पूजा करनी पड़ रही है.
‘पहाड़‘ में छपे गोविन्द सिंह के लेख ‘बचपन की छवियां’ से
देश के वरिष्ठ संपादकों में शुमार प्रो. गोविन्द सिंह सभी महत्वपूर्ण हिन्दी अखबारों-पत्रिकाओं के लिए काम कर चुके हैं. ‘अमर उजाला’ के मुख्य सम्पादक रहे गोविन्द सिंह पहले उत्तराखंड मुक्त विश्विद्यालय और फिर जम्मू विश्विद्यालय के मीडिया अध्ययन विभागों के प्रमुख रह चुके हैं. पिथौरागढ़ जिले से ताल्लुक रखते हैं.
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