माता-पिता और परिवारजन बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे हैं, यह आज की प्रमुख सामाजिक समस्या है. माना जाता है कि इस वजह से बच्चे कई असामाजिक गतिविधियों की तरफ चले जा रहे हैं. यह पढ़ते, सुनते ही मैं पुराने दिनों में चला जाता हूँ, जब समस्या इसके उलट थी.
आज से दो-तीन दशक समस्या यह थी कि बच्चों पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जाता था. इस देखभाल से बच्चों का रोम-रोम चीत्कार कर उठता था कि इतना ध्यान मत दो, मत दो इतना ध्यान. बच्चों, किशोरों और युवाओं तक का. आगे मैं इन सभी के लिए बच्चों ही इस्तेमाल करूँगा, पिटते थे तो वही हुए भी.
उन दिनों दो-चार थप्पड़ और लात-घूंसों को मुगली घुट्टी-555 की तरह बच्चों, किशोरों और युवाओं तक के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी माना जाता था. इनकी तीन खुराक प्रतिदिन का नियम था. सिर्फ माँ-बाप और रिश्तेदार ही नहीं स्कूलों के अध्यापक और गाँव-मोहल्ले के लोग भी पूरे हक़ से बच्चों पर हाथ साफ़ कर सकते थे. पीटने के लिए योग्यता का पैमाना बस इतना सा था कि पीटने वाला आपसे उम्र में बड़ा हो और आपके परिजनों से परिचित हो. कभी कोई शरीफ पड़ोसी घर आकर शिकायत करता कि आपका बच्चा… तो घरवाले उसे बीच में ही टोककर बोलते ‘दो थप्पड़ मारते साले को’. हर वह शख्स अभिभावक था जो परिवार का परिचित हो. इनमें इलेक्ट्रिशियन, सब्जी वाला, दूध वाला, अखबार वाला, पोस्टमैन, पंसारी इत्यादि सभी हुआ करते थे, रिश्तेदार, ईस्ट-मित्र, पड़ोसी तो खैर हुए ही. पीटने का विरोध करने वाले दुर्लभ वरिष्ठ जनों को बच्चों के कुसंस्कारों का भागी माना जाता था.
पिटाई के लिए किसी किस्म की प्राइवेसी की जरूरत नहीं थी. वह कभी भी, कहीं भी जायज थी. बल्कि सार्वजनिक पिटाई देखने वालों को भी गुनाह से बचने की शिक्षा देती थी. विशेष मामलों में पिटाई के बाद रोना भी मना था. ऐसे में वॉल्यूम म्यूट कर रोना होता था. ज़रा भी आवाज बाहर आने पर खुराक डबल कर दी जाती थी. इस बाहर निकलने को बेकरार भाव को रोकने से चेहरे की बहुत मार्मिक भंगिमा बनती थी, यह भंगिमा अन्य बच्चों को मर्माहत कर देती थी. अलबत्ता अभिभावक इस दर्दनाक स्थिति को भी हिकारत की ही नजर से देखते.
अध्यापक अपनी रचनात्मक पिटाइयों के लिए कुख्यात हुआ करते थे. कोई हाथ ऊपर करवाकर बेस में संटी बजाता. कोई पेट में पैन घुसेड़ता, कोई ऊँगलियों के बीच पेंसिल पिरोकर मुठ्ठी भींच देता, कोई खड़े स्केल से हथेली के पीछे मारता. जितने शिक्षक थे उतने तरीके, कोई भी दूसरे के तरीके को दोहराता नहीं था.
बांके, दाढ़ी-मूंछ वाले युवाओं को पिटते देखना रोमांचित कर देने वाला अनुभव हुआ करता था. उन्हें अपनी इज्जत का भान हुआ करता था, सो यह उसे बचने की कोशिश भी किया करते थे. इन्हें मर्दानगी का परिचय देते हुए पिटना होता था.
आज आप देखिये ‘अर्बन नक्सलियों’ तक के मानवाधिकारों को बचाने उच्चतम न्यायालय आ जा रहा है. उस युग में बच्चों के मानवाधिकारों की बात सोचना भी बेमानी था. उनको कभी भी पीटा जा सकता था, खुराक बंद की जा सकती थी, किस्म-किस्म की रचनात्मक सजायें दी जा सकती थीं.
उस वक़्त भी कई शूरवीर, नहर या गौला में नहाने, पड़ोसियों के बगीचे से फल चुराने, कॉपी के भीतर कॉमिक्स छिपाकर पढ़ने, क्लास गोल करने, मास्टरों की अलमारी से पाषाणकालीन नोट्स चुराकर फेंकने, उनकी कुर्सी-मेज पर कौंच का पाउडर छिड़कने जैसे दुस्साहसिक कारनामों को अंजाम दिया करते थे. यह बालक अन्य भीरु बच्चों की नजर में नायक हुआ करते थे. आज उनके बारे में सोचने पर लगता है कि वे सभी भी किसी चक्र, किसी वीरता पुरस्कार से नवाजे जाने के अधिकारी थे.
गौला के तट पर झरबेरी की छाँव में घर से चुराई गयी बीड़ी या फिर मेहमानों द्वारा प्राप्त दक्षिणा का हिस्सा घरवालों की नजर से बचाकर खरीदी गयी एवन फ़िल्टर के कश मारने वाले, सिनेमा देखने वाले उस युग के महानायक थे. ऐसे गुनाहों के लिए कलेजा चाहिए था. आज जैसा माहौल मिलने पर ये क्या कुछ नहीं कर गुजरते.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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आपको पढ़ने के बाद एक लम्बी मुस्कुराहट बनी रहती है, या बहुत देर तक मन कचोटता रहता है। .... :)