समाज

लोकगीत में अमर स्मृति : चंद्रसिंह गढ़वाली

वैचारिक रूप से प्रखर, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली की ख्याति 23 अप्रैल 1930 के पेशावर विद्रोह के कारण अधिक है पर इससे पूर्व उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस व मेसोपोटामिया में भी भाग लिया था. देशभक्ति समझ चंद्रसिंह गढ़वाली ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग तो लिया था पर वो ब्रिटेन की स्वार्थी नीति से असहमत भी थे जैसे युद्ध समाप्ति के पश्चात आधे सैनिकों को वापस घर भेज देना, भारतीय सैनिकों को, प्रमोशन्स खत्म कर पूर्व पदों पर ही रखना आदि. Chandra Singh Garhwali in Folklore

निहत्थे अफगानियों पर फायर का आदेश तो उन्हें पूरी तरह बेतुका लगा और उन्होंने अपना आदेश, गढ़वाली सीज़-फायर घोषित कर दिया. फलस्वरूप 23 अप्रैल 1930 का दिन, पेशावर विद्रोह के रूप में पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया.

87 वर्ष की अवस्था में 1979 में उनका निधन हआ तो उनकी इच्छानुसार उनकी भस्मी को ले जाकर दूधातोली में उनकी समाधि बनायी गयी. समीप ही उत्तराखण्ड का नवनिर्मित विधानसभा भवन भी अब निर्मित हुआ है.

गौरतलब है कि पेशावर विद्रोह, भारत की आज़ादी की दिशा में प्रमुख मील का पत्थर था. चंद्र सिंह गढ़वाली के महत्व को महात्मा गाँधी के इन शब्दों में समझा जा सकता है –

यदि मेरे पास एक और चंद्र सिंह गढ़वाली होता तो भारत बहुत पहले स्वतंत्र हो जाता.

पंडित मोतीलाल नेहरू ने भी मृत्युशय्या पर लेटे हुए कहा था कि वीर चंद्रसिंह गढ़वाली को देश न भूले.

भूला उनको, उनका लोक भी नहीं था. ये खूबसूरत लोकगीत प्रमाण है कि उत्तराखण्ड के लोकसमाज ने अपने सपूत, देश के हीरो और दुनिया को लीक से हटकर चलके दिखाने वाले नायक को अपने दिलो-दिमाग में कितने प्यार से संजो रखा है. इस लोकगीत में प्रथम विश्वयुद्ध छेड़ने के लिए जर्मनी व ब्रिटेन, दोनों को कोसा गया है.  Chandra Singh Garhwali in Folklore

 जै हो चंद्रसिंह गढ़वलि! जै हो! जै हो! जै हो! दा!
 लगुलि कु लेट गढ़वलि, लगलि कु लेट दा!
 तमलेटु को पाणि गढ़वलि, मुरछनूं का पेट दा!
 झेड़ि तोड़ि केड़ि गढ़वलि, झेड़ि तोड़ि केड़ि दा!
 जरमना को म्वार गढ़वलि, जैन लड़ाई छेड़ि दा!
 दाथुला की धार गढ़वलि, दाथुला की धार दा!
 जरमनाल् करि गढ़वलि, बम गोलों की मार दा!
 झेड़ि तोड़ि केड़ि गढ़वलि, झेड़ि तोड़ि केड़ि दा!
 अंगरेजा को म्वार गढ़वलि, जैन लड़ाई छेड़ि दा!
 हीलि जौंला मीलि गढ़वलि, हीलि जौंला मीलि दा!
 देशभक्ति समजि गढ़वलि तिन्न, ईं लड़ै मा मीलि़ दा!
 बूति जीरो गढ़वलि, बूति जालो जीरो दा!
 पेशावर को कांड गढ़वलि, जैको छै तू हीरो दा!
 गंगा जि को पाणि गढ़वलि, गंगा जि को पाणि दा!
 त्याइस अप्रैल, उन्नीस सौ तीस, संसारल् जाणि दा!
 रौलि लगाइ मौलि गढ़वलि, रौलि लगाइ मौलि दा!
 तेरि समादि फूल चढ़ांदु, द्यबठौं दूधातोळि दा!
 जै हो चंद्रसिंह गढ़वलि! जै हो! जै हो! जै हो! दा. 

पेशावर काण्ड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, निडर-बहादुर सैनिक होने के साथ एक कुशल शिक्षक भी थे. ब्रिटिश सेना में उन्होंने सैनिकों को साक्षर करने हेतु शिक्षक की भूमिका भी निभायी. पढ़ाते-सिखाते हुए उन्हें पढ़ने का चस्का भी लगा. इसी से वे देश-दुनिया में चल रही राजनीतिक गतिविधयों और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास और उभार की बेहतर समझ विकसित कर सके थे. और इसी अध्ययन की वजह से वे आदेश पर सवाल उठाने और उसको नकारने का साहस कर सके.

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. .

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