चंद राजाओं के समय कुमाऊँ का शासन बहुत व्यवस्थित माना जाता है. हर गाँव में एक पधान होता था, जिसके नीचे एक कोटाल काम करता था. कोटाल को पधान चुनता या हटा सकता था. यह पधान का सहायक था और लिखने का काम भी करता था. इनके अलावा हर गाँव में एक पहरी होता था जो चौकीदार की तरह काम करता था. वह चिट्ठियाँ ले जाता, अनाज इकट्ठा करता, पहरेदारी करता और छोटे-मोटे काम करता था. पहरी ज्यादातर वर्णव्यवस्था के आधार पर शूद्र कहे जाने वाले वर्ण के हाथ होती थी. उसे हर परिवार से फसल के समय अनाज और त्योहारों पर कुछ चीजें मिलती थीं. यह व्यवस्था चंद राजाओं के स्थानीय शासन का एक बेहतरीन उदाहरण है.
(Chand dynasty and system uttarakhand)
कूर्मांचल (कुमाऊँ) अंग्रेजों और गोरखालियों के आने तक स्वतंत्र रहा. एक छोटे से पहाड़ी राज्य ने अपने प्रबंधन को जिस तरह चलाया, वह तारीफ के काबिल है. उस समय न तो घूमने-जानने की ज्यादा सुविधाएँ थीं और न ही शिक्षा का इतना प्रसार था. फिर भी, इस शासन की तारीफ मशहूर लेखक मिस्टर एटकिंसन ने की. उन्होंने लिखा –
“I can therefore thoroughly put this account forward as an unique record of the civil administration of a Hill state untainted almost by any foreign admixture, for until the Gorkhali Conquest and Subsequently the British occupation Kumaon was always independent.”
(मैं इस विवरण को एक पहाड़ी राज्य के नागरिक प्रशासन के अनोखे रिकॉर्ड के रूप में पेश कर सकता हूँ, जो लगभग किसी विदेशी प्रभाव से अछूता रहा, क्योंकि गोरखाली विजय और ब्रिटिश कब्जे तक कुमाऊँ हमेशा स्वतंत्र था.)
मिस्टर ट्रेल के अनुसार, चंद राजाओं के समय जमीन का असली मालिक राजा होता था, जैसा कि बाद में अंग्रेजों और गोरखाओं ने भी किया. राजा की आय सिर्फ जमीन के कर तक सीमित नहीं थी. व्यापार, खदानें, जंगल की संपत्ति, न्याय व्यवस्था और कानूनी कार्रवाइयों से भी पैसा आता था. कई तरह के कर थे, जैसे घी-कर हर भैंस पर सालाना लगने वाला कर था और कपड़ा बुनने वालों से लिया जाने वाला कोलियों का कर था.
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ऊपरी इलाकों में हिस्सा और नीचे की अच्छी जमीन से आधा लिया जाता था.खानों का कर: खानों की आय का आधा हिस्सा राजा का होता था.कर वसूली दो तरह से होती थी- एक साल जमीन से और अगले साल लोगों से. तराई-भावर में गाय चराने का भी कर था. सिरती कर हल्का था, लेकिन राज्य चलाने के लिए ‘मौ-कर’ और ‘घर-कर’ जैसे अतिरिक्त कर भी थे. इन करों को ‘छत्तीस रकम’ और ‘बत्तीस कलम’ कहा जाता था. कहने को 68 कर थे, लेकिन असल में इतने नहीं थे.
ज्यादातर कर चावल के रूप में लिया जाता था, जिसे ‘कूत’ कहते थे. कहीं एक बट्टा तीन हिस्सा तो कहीं दो बट्टे पांच हिस्सा लिया जाता था. एक बीसी जमीन (जो एक एकड़ से 20 गज कम होती थी) से 26 मन चावल और 10 मन गेहूँ पैदा होते थे. ‘कूत’ के अलावा ‘भेंट’ भी देनी पड़ती थी. कुछ लोग मालिक की जमीन जोतते थे और उसका बोझ भी ढोते थे. अच्छे गाँवों में कर की दर कम थी, और कम उपजाऊ जमीन पर साधारण कर लिया जाता था.
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चंद राजाओं ने बहुत सारी जमीन मंदिरों को दान दी. उस समय मंदिर बनाना और जमीन चढ़ाना प्रजा और भगवान को खुश करने का तरीका था. अगर पुजारी अच्छा होता, तो वह शिक्षा और अच्छे कामों से माहौल बेहतर करता. लेकिन कई बार गलत लोग मंदिरों को बुराइयों का अड्डा बना देते थे. कुमाऊँ की उपजाऊ जमीन का बड़ा हिस्सा मंदिरों के पास है. कुछ लोग मौज करते हैं, जबकि आम लोग परेशान रहते हैं.
फ्रांसिस हैमिल्टन ने नेपाल के इतिहास में कुमाऊँ के बारे में लिखा. उनकी जानकारी दो विद्वान भाइयों- प्रतिनिधि तिवारी और कनकनिधि तिवारी से मिली. ये दोनों कुमाऊँ से नेपाल गए थे. इनके पूर्वज राजा सोमचंद के साथ आए थे और मंत्री रहे थे. एक अन्य विद्वान हरिवल्लभ पांडे ने भी चंद राजाओं की वंशावली बताई. पहले चंद राजा ने चंपावत में राज्य बनाया, तब उनकी आय 3000 रुपये सालाना थी. बाद में रुद्रचंद ने चालाकी से करबीरपुर का राज्य हथिया लिया.
चंदों के समय अल्मोड़ा में 1000 घर थे. अगर एक घर में 10 लोग माने जाएँ, तो 10,000 की आबादी थी. अगर 5 लोग माने जाएँ, तो 5000. चंपावत और कूर्मांचल में 200-300 घर थे. गंगोली और पाली में 100 से ज्यादा घर थे. कुमाऊँ में 50,000 परिवार थे. अगर एक परिवार में 10 लोग माने जाएँ, तो 5 लाख की आबादी थी, और 5 लोग माने जाएँ, तो ढाई लाख.
ब्राह्मण साफ-सफाई से रहते थे और खान-पान में सावधानी रखते थे. अहीर, जाद, लोधी और चौहान जैसी किसान जातियाँ नीची मानी जाती थीं. पहाड़ों में ताँबा, शीशा और लोहे की खानें थीं. पनार नदी से थोड़ा सोना भी मिलता था. कूर्मांचल की आय 1,25,000 रुपये थी, जो ब्राह्मणों की जागीरों से अलग थी. सरकार अच्छी थी और लोग सुखी थे. गढ़वाल के राजा अजयपाल के वंशज करबीरपुर को कर देते थे.
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कुछ लोग कहते हैं कि चंद वंश थोरचंद से शुरू हुआ, लेकिन यह गलत है. चंद वंश राजा सोमचंद से शुरू हुआ, यह बात साफ है. उस समय की नकद आय 1,25,000 रुपये थी, जो आज के हिसाब से सवा बारह लाख हो सकती है. इसके अलावा ‘कूत’ के रूप में अनाज और दूसरी चीजें भी ली जाती थीं. चंद राजाओं की आय अच्छी थी और वे धनी थे. आखिरी समय में लूटपाट और लड़ाइयों ने उनका खजाना खाली कर दिया, वरना उनका राज्य ताकतवर और समृद्ध था.
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नोट – बद्रीदत्त पाण्डेय की किताब कुमाऊं का इतिहास के आधार पर.
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