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चैत्र के महीने में उत्तराखंड के तीज-त्यौहार और परम्परा

सब ओर प्रकृति में हरियाली सज जाती है. नई कोंपलों में फूल खिलने लगते हैं. चैत मास लग चुका है. ऋतु रैण की परंपरा रही थी बरसों पहले तक. जब गाँव-गाँव बादी या नैका  हारमोनियम, सारंगी ढोलक की ताल के साथ लोकगीत गाते व उनकी स्त्रियां नाचती ठुमकती लोकथात को बनाये बचाये रखीं थीं. जीवनयापन भी जुड़ा था इन शिल्पों में. फसल कटने पर गाँव के हर परिवार से उन्हें अनाज भेंट किया जाता दक्षिणा मिलती. ऋतुओं के पावन स्पर्श से प्रकृति पुलक उठती. Tradition and Festivals in Uttarakhand

पिङ्गइ फूली के दैणा  एगो चैती  महेणा.
याद ऐ गई भुलि बैणा हो भुलि बैणा.

चैत्र माह में टिहरी गढ़वाल तथा उत्तरकाशी जनपद में कुंवारी कन्याएँ फुलवाड़ी मनाती हैं. उनके साथ छोटे बच्चे भी साथ-साथ घर के द्वार पर फूल बिखेरते हैं जिससे आछरी-मातरी व अन्य देवियां साल भर खुश रहें और रोग-व्याधि-बाधा-क्लेश से मुक्ति मिले. वहीं भागीरथी की सहायक जलकुर उपत्यका के इलाके में रेंका-रमोली पट्टी में मनाया  जाता है अन्यार कुट्टा जिसमें पशुचारक या ग्वाले आसपास की वनस्पतियों को तोड़ कर उन्हें आपस में मिला कर प्रसाद रूप में पशुओं को खिलाते व खुद भी खाते हैं. यह माना जाता है कि  इससे साल भर जानवरों को किसी वनस्पति या घास का जहर न लगे.

अंकित बिष्ट की इन्स्टाग्राम प्रोफाइल से साभार.

कुमाऊँ में ऋतु रैण के गायन के साथ ही चैती का आरम्भ हो जाता है. चैत्र मास की संक्रांति को मीन संक्रांति कहते हैं. यह फूलों का त्यौहार है. हाथों में थालियां लिए बुरांश और प्यूँली  के फूल सजाये बच्चे गाँव के हर घर की देली में फूल डालते, चावल बिखेरते “फूलदेई, छम्मा छेई, भरभकार देणी द्वार. फूलों की संक्रांति,  तुम सफल करिया हो भगवान” की प्रार्थना करते हैं. चैत्र मास का आरम्भ ही घर की देहरी पर बच्चों के हाथों फूल अर्पित करने से होता है, घर-द्वार की सलामती के गान से होता है:

ये देली सौं नमस्कार, फूले द्वार बार बार…

जिस देहरी, आंगन बच्चे फूल डालते, अक्षत बिखेरते वह परिवार थाली में चावल गुड़ डालता, भेंट में सिक्के रुपये अर्पित करता. हर घर को फूलों की आशीष दे बच्चे अपने घर लौटते. थाली में चढ़ाये चावलों की खीर पकाई जाती. भेंट मिले सिक्के रुपये आपस में बांट लिए जाते. इसी आकर्षण से फूल देली की प्रतीक्षा चैत कृष्ण पक्ष की द्वितीया अर्थात होली के टीके से होने लगती. Tradition and Festivals in Uttarakhand

मान्या पुरोहित की इन्स्टाग्राम प्रोफाइल से साभार.

“फूलदेली-फूलदेली” में द्वार पूजा का निहित भाव यह है कि पुष्प-अक्षत से अभिसिंचित ये देली सदा-सदा फलती रहे. घर की देली को लीप कर उनमें ऐपण  डाले जाते हैं. कई स्थानों में पांच दिन तक द्वार पूजा चलती.  कई जगह बालिकाएं जो चावल द्वार पूजा में प्राप्त करती उसे इकट्ठा कर, उनके लिए किसी विशेष दिन भिटौला पकाया जाता. चैत्र माह में भिटौले की परंपरा है. मायके से आने वाली भिटोली की प्रतीक्षा होती.

मैली काँठा बुरूशी फूलि गेछ ईजा.
घुर घुर घुघूती घुरे छे
मेरी भिटौली किले नि आई.

भाई आएगा भिटोली लाएगा. इस भेंट में परिवार की बहन बेटियों को नये वस्त्र दिये जाते. साथ में होते पकवान, फल, मिठाई और शगुन के रूप में रखी हरी सब्जी में पालक और लाई जिनके साथ होती दही से भरी ठेकी. विवाहिता बैणी को उसकी ससुराल जा कर भाई उसे भिटौली देता. जिन कन्याओं की शादी नहीं हुई होती उन्हें उनकी ईजा से भिटोली मिलती. नवविवाहित जोड़े को शादी के बाद पड़े पहले चैत में चैत के पूरे महिने या कम से कम पांच दिन एक दूसरे से अलग रखा जाता. शादी के बाद पहला भिटौला पाने वाली नववधू को पहले चैत्र में भिटौला नहीं देते. Tradition and Festivals in Uttarakhand

चैत्र मास में घर कुड़ी की साफ सफाई पर बहुत ध्यान दिया जाता. लिपाई की जाती चूने कमेट से पुताई होती. पूरी साफ सफाई के बाद घर गोठ को भी भिटौला दिया जाता. सारे पकवान बनते.

चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा को हरेला बोया जाता. इसे दशमी के दिन काटा जाता. घर की बालिकाएं हरेले के तिनड़े सबके सर में रख आशीर्वाद भी लेतीं और दक्षिणा भी प्राप्त करतीं. चैत्र प्रतिपदा को ही नया संवत्सर प्रारंभ होता. नए साल का पतड़ा ख़रीदा जाता और पंडित जू नये संवत में कौन सा ग्रह राजा और कौन मंत्री होंगे और देश प्रान्त में इसके क्या फल होंगे जैसी बात बताते. मुख्य बातें भैरव-भवानी संवाद के रूप में होती. 

भैरव भवानी से पूछते हैं, ‘दो हज़ार सत्तत्तर संवत के संवत्सर का करो बखान, किसे ग्रहों ने चुना वर्षपति और कौन आमात्य प्रधान?’ तब भवानी नये साल के वर्षपति और आमात्य की स्थिति के साथ नव ग्रहों और बारह राशियों पर इनके प्रभाव के बारे में विस्तार से बताती. अपनी राशि का वर्षफल जानने की उत्कंठा हर किसी में होती. Tradition and Festivals in Uttarakhand

 चैत्र प्रतिपदा को व्रत भी रखा जाता और सस्वर दुर्गा सप्तसती का पाठ कर देवी पूजन किया जाता. अब आरंभ होती है नवरात्रियाँ. चेताष्ट्मी को भी त्यौहार मनाया जाता है. मंदिरों में भजनपूजन व कीर्तन किये जाते. नौ दिन तक नव दुर्गाओं का पूजन कर हवन किया जाता है. भंडारे में पूरी, चना, हलवा, आलू की सब्जी परोसी जाती.  चैत्र की नवरात्रियों में कुमाऊं में अनेक स्थानों में मेले भी लगते  जिनमें काशीपुर में बाल सुंदरी का चैती मेला, रुद्रपुर में अटरिया देवी का मेला व देहरादून में झंडेवाला मेला मुख्य है.पिथौरागढ़ में मनाया जाता है चैतोल और गुमदेश में लगता है चैत का मेला.

चैत्र मास के मासांत की रात्रि से द्वाराहाट के समीप विमाण्डेश्वर मंदिर से मेला आरम्भ होता है. समीपवर्ती ग्रामों से ढोल, नगाड़े बजाते ग्रामवासियों के साथ छोलिया नर्तकों के समूह पहुँचते हैं. झोड़ा, चांचरी भगनौले की धूम मचती. फूलदेई-फुलवाड़ी का समापन विषुवत संक्रांति अर्थात वैशाख के प्राम्भ के दिन होता जिसे बिखोत कहा जाता. विश्वव्रत संक्रान्त या विखोत के दिन गढ़वाल में उत्तरकाशी, टिहरी, कोटेश्वर, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार व श्रीनगर में स्नान का महाकुम्भ होता है. Tradition and Festivals in Uttarakhand

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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