कुछ विवादस्पद सवालों से भरी है अम्बेडकर -गाँधी के ‘जाति, नस्ल और जाति के विनाश’ पर हुए संवाद से उपजी अरुन्धति रॉय की किताब, “एक था डॉक्टर एक था संत” जो उनकी Caste, Race and Annihilation of Caste का अनिल यादव व रतन लाल द्वारा किया अनुवाद है.
क्या गाँधी ने बाबा साहेब के आंदोलनों पर और देश के दलितों, पिछड़ों के जायज अधिकारों पर एक साजिश के तहत कुठाराघात किया? कैसे गाँधी ने जाति व्यवस्था से पीड़ित, वंचितों को चिरकाल तक स्थायी रूप से वंचित बनाये रखने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाकर हरचन्द कोशिशें की. दलितों, पिछड़ों, मजदूरों और नीग्रो के विषय में गाँधी कितनी अमानवीय सोच रखते थे. कैसे उन्होंने पग – पग पर बाबा साहेब के जायज संघर्षों में टांग अड़ाई? क्या गाँधी ने जातिवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए तमाम मर्यादाएं तोड़ते हुए ऐसे तुच्छ प्रयास किये जिनका पूरा आभास दशकों तक न हो पाया.
अरुन्धति राय तर्क रखतीं हैं, प्रमाणिकता के लिए सन्दर्भ देती हैं, उद्धरण देतीं हैं. अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहतीं ! अम्बेडकर ने पूरी हिम्मत से, जो हिम्मत आज के बुद्धिजीवी नहीं जुटा पाते, कहा था, “अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायनो में एक नर्क है. “अम्बेडकर का भाषण, ‘जाति का विनाश’भी इसी शांति को भंग करता है. अम्बेडकर ने कहा था जाति व्यवस्था से बढ़ कर अपमानजनक सामाजिक संगठन हो ही नहीं सकता. यह एक ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को शिथिल, पंगु और विकलांग बना कर, उन्हें कुछ भी उपयोगी गतिविधि नहीं करने देती.
गाँधी ने अपने भाषण में कहा, “जाति का व्यापक संगठन ना केवल समाज की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करता है बल्कि यह राजनीतिक आवश्यकताओं को भी परिपूर्ण करता है. जाति व्यवस्था से ग्रामवासी ना केवल अपने अंदरूनी मामलों का निबटारा कर लेते हैं बल्कि इसके द्वारा वह शासन करने वाली शक्तियों द्वारा उत्पीड़न से भी निबट लेते हैं. एक राष्ट्र जो जाति – व्यवस्था उत्पन्न करने में सक्षम हो उसकी अद्भुत संगठन शक्ति को नकार पाना संभव नहीं.
गाँधी नवजीवन में लिखते हैं किया यदि हिन्दू समाज अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो वजह यह है कि इसकी बुनियाद जाति व्यवस्था के ऊपर डाली गई है. जाति का विनाश करने और पश्चिमी यूरोप की सामाजिक व्यवस्था को अपनाने का अर्थ होगा कि हिन्दू अनुवांशिक -पैतृक व्यवसाय के सिद्धांत को त्याग दें जो जाति व्यवस्था की आत्मा है.
अम्बेडकर बहुत लिख़ते थे पर गाँधी, नेहरू या विवेकानंद की किताबें हर कहीं पंहुच में हैं वहीं अम्बेडकर की किताबें ढूंढे नहीं मिलतीं. उनके लेखन में जाति का विनाश सबसे मौलिक पाठ है. उनके तर्क का निशाना हिन्दू कट्टरपंथी या चरमपंथी नहीं हैं. वस्तुतः वे लोग हैं जो स्वयं को नरमपंथी समझते हैं. उन्हें ‘हिन्दुओं में सर्वोत्तम की संज्ञा देते हैं अम्बेडकर. और साथ में हैं कुछ शिक्षाविद जिन्हें वह ‘वामपंथी हिन्दू’ पुकारते थे.
अम्बेडकर ने गाँधी को केवल राजनीतिक या बौद्धिक चुनौती ही नहीं दी, बल्कि नैतिक चुनौती भी दी. पर इतिहास गाँधी पर मेहरबान रहा वह यथास्थिति के संत हैं. इतिहास ने अम्बेडकर के साथ बहुत ही निर्दयता पूर्वक व्यवहार किया. पहले कालकोठरी में बंद किया और फिर महिमामंडित कर दिया. इतिहास ने उन्हें अछूतों का नायक बना दिया, उनके लेखों को दुनिया की नज़र से छुपा दिया. उनकी इंकलाबी बौद्धिकता पर इतिहास ने डाका ड़ाला और तेज़ धार जबान को भोथरी करने की कोशिश की.
जब भी यह सवाल उठा कि गाँधी के बाद कौन है सबसे महान भारतीय? तो अम्बेडकर हर बार पहली पंक्ति में आते हैं. और इस चुनाव का एक कारण भारतीय संविधान निर्माण में उनकी भूमिका है.आपको यह एहसास हो सकता है कि सूची में उनका नाम आरक्षण और राजनीतिक न्याय के दिखावे के कारण है. इसके नीचे उनके खिलाफ प्रतिवादी फुसफुसाहट जारी रहती है_’अवसरवादी ‘(क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश वायसराय कि कार्यकारी परिषद के लेबर सदस्य के(1942-46) रूप में काम किया, ‘ब्रिटिश कठपुतली ‘(क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की प्रथम गोल मेज़ सम्मलेन का निमंत्रण स्वीकार किया, जब कांग्रेसियों को नमक क़ानून तोड़ने के लिए जेलों में बंद किया जा रहा था, ‘अलगाववादी ‘(क्योंकि वे अछूतों के लिए अलग निर्वाचिका चाहते थे ), ‘राष्ट्र विरोधी ‘(क्योंकि उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया, और क्योंकि उनका सुझाव था कि जम्मू और कश्मीर को तीन भागों में विभाजित कर देना चाहिए. पर अम्बेडकर का महान योगदान यह तो है ही कि एक ऐसे जटिल, बहुमुखी राजनीतिक संघर्ष में, जिसमें जरुरत से ज्यादा सम्प्रदायवाद था, अन्धकारवाद था ठगी थी, वे प्रबुद्धता ले कर आए.
गाँधी के नैसर्गिक राजनीतिक अन्तराभास, सियासी समझ, ने कांग्रेस की खूब बढ़िया सेवा की. उनके मंदिर-प्रवेश कार्यक्रम ने, अछूत आबादी की एक बड़ी संख्या को कांग्रेस से जोड़ने का काम किया. अम्बेडकर बेहद प्रज्ञावान और बुद्धिमन्त थे, लेकिन उनके पास समयबोध नहीं था, शातिरपना भी नहीं था, धूर्तता भी नहीं थी और अनैतिक रास्तों पे चलना तो उनकी फितरत में था ही नहीं _वे सभी गुण जो एक ‘अच्छे’राजनीतिज्ञ की परम आवश्यकता होते हैं. उनके राजनीतिक जनसमूह में, गरीबों में सबसे गरीब, सर्वाधिक पीड़ित लोग थे. 1942 में अम्बेडकर ने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ‘का पुनर्गठन ‘अनुसूचित जाति फेडरेशन’ में करके स्वयं को और ज्यादा आत्म -सीमित कर दिया. टाइमिंग गलत थी.
उस समय तक राष्ट्रीय आंदोलन फिर से गरमा गया था. गाँधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आव्हान कर दिया था. मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग भी जोर पकड़ चुकी थी. कुछ समय के लिए जातीय पहचान का मुद्दा कम मह्त्व का हो गया था, और हिन्दू -मुस्लिम मुद्दे ने जोर पकड़ लिया था.
1940 के दशक के मध्य में जैसी ही विभाजन की समस्या अवश्यम्भावी लगने लगी थी, अधीनस्थ जातियों के लोगों का विभिन्न प्रदेशों में, हिन्दू धर्म में ‘समावेश ‘ होने लगा था. इन जातियों के लोगों ने उग्र हिन्दू रैलियों में भाग लेना शुरू कर दिया. तब से ही राजनीतिक हिन्दू धर्म की व्यापकता और विस्तार बढ़ और फैल रहे हैं.
आज भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय, लोक हिन्दू धर्म के रूप में ‘आत्मसात’ किया जा रहा है. नरमदल ने, ‘सेक्युलर राष्ट्रवाद ‘ के रूप में, ज्योतिबा फुले, पंडिताइन रमाबाई और यहाँ तक कि अम्बेडकर को भी अपने खेमे में भर्ती कर लिया है. इन सभी ने हिन्दू धर्म कि घोर निंदा की थी, लेकिन अब ये सभी ‘हिन्दू बाड़े ‘ में हैं, उन हस्तियों के रूप में जिन पर हिन्दुओं को नाज है. अम्बेडकर को भी दूसरे तरीके से आत्मसात किया जा रहा है -गाँधी के दूसरे जोड़ीदार के रूप में -जिन्होंने आपस में मिल कर अस्पृश्यता के खिलाफ एक साझा लड़ाई लड़ी.
वस्तुतः अम्बेडकर का हिन्दू धर्म से मोह भंग हो चुका था, उसके ऊँचे पुरोहितों, उसके संतों और राजनेताओं से भी. फिर भी मंदिर- प्रवेश पर जो अछूतों की प्रतिक्रिया थी, शायद उसने अम्बेडकर को सिखाया कि किसी आध्यात्मिक समुदाय से जुड़ने की लोग कितनी ज्यादा चाहत रखते हैं, और उसकी तुलना में संविधान या नागरिकों का शासन -पत्र कितना अपर्याप्त है. इन जरूरतों को पूरा करने के लिए.
बीस साल के चिंतन के बाद, जिस दौरान उन्होंने इस्लाम के साथ -साथ ईसाई धर्म का भी अध्ययन किया, अम्बेडकर बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए. उन्होंने कहा “धर्म का उद्देश्य दुनिया की उत्पत्ति को समझाना है.”बहुत कुछ कार्लमार्क्स के अंदाज में बोलते हुए उन्होंने कहा, “धम्म का उद्देश्य दुनिया का फिर से निर्माण करना है.”
14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में, अपनी मृत्यु से चंद माह पहले, अम्बेडकर ने, शारदा कबीर, उनकी दूसरी पत्नी जो ब्राह्मण थीं, और उनके पांच लाख समर्थकों ने त्रिरत्न और पंचशील का व्रत लिया, और बौद्ध शर्म में शामिल हो गए. यह उनका सबसे इंकलाबी कदम था. इसने, पश्चिमी उदारवाद और उसकी विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टि से उनके प्रस्थान को चिह्नित किया. एक ऐसी दृष्टि जिसमें समाज, ‘अधिकारों ‘पर आधारित होता है-जिसका उदगम, आधुनिक पूंजीवाद के उदय के साथसाथ ही हुआ था.
अम्बेडकर के पास पर्याप्त धन नहीं था की बौद्ध धर्म पर अपना प्रमुख लेखन -बुद्ध और उनका धम्म को उनकी मृत्यु से पहले प्रकाशित करा सकें. हां, वे सूट जरूर पहनते थे लेकिन जब उनकी मृत्यु हुई तो वे अप्रत्याशित कर्ज़दार थे. और इन सबके बाद…
आज हम कहाँ जा पहुंचे हैं? जैसा कि महात्मा गाँधी चाहते थे, अमीर के पास उसकी अपनी ( साथ में औरों की भी ) दौलत छोड़ दी गई है. चतुर्वर्ण व्यवस्था बिना किसी चुनौती के, बेरोकटोक चली जा रही है :ब्राह्मण के पास मोटे तौर पर ज्ञान का नियंत्रण है, वैश्य व्यापार पर हावी है. क्षत्रियों की हालत पहले जैसी अच्छी तो नहीं है, लेकिन फिर भी वो अधिकांशतः ग्रामीण जमींदार हैं. शूद्र, इस बड़े घर (हिन्दू धर्म) के तहखानों में रह रहे हैं और घुसपैठियों से इसकी रक्षा का काम कर रहे हैं. आदिवासी अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. और दलित?
इस विषय की विस्तार से चर्चा करती है और सवाल खड़ा करती है कि क्या जाति का विनाश संभव है? एक था डॉक्टर एक था संत.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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