उत्तराखंड का इतिहास भाग – 8
गंगा और रामगंगा तक फैली भाबर की उत्तरी सीमा पर फैली शिवालिक की निचली शाखा का प्राचीन नाम मयूरपर्वत या मोरगिरी था. गंगाजी के पूर्वी तट से चंडीघाट होकर लक्ष्मणझूला की ओर इसकी एक शाखा गयी है. इस शाखा को महाभारत में उशीरगिरी कहा गया है. पर्वतों की इसी शाखा को बौद्ध और पालीसाहित्य में उशीरध्वज, अहोगंग या अधोगंग कहा गया है. कनखल के निकट स्थित इस पहाड़ी तक बुद्ध अपने जीवनकाल में पहुंचे थे. इसप्रकार बुद्ध के जीवनकाल में ही उशीरध्वज, गंगाद्वार और कनखल के निकट का क्षेत्र बुद्ध के अनुयायीयों के लिये पावन स्थल बन चुका था.
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद इस बौद्ध स्थविरों के चिंतन-मनन का मुख्य केंद्र बन गया. बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद के शिष्य साणवासी सम्भूत के विषय में माना जाता है कि वह कनखल के पास अहोगंग पर्वत पर ही रहते थे. बौद्ध संघ में जब अनेक प्रकार की बुराईयां आने लगी तब अनेक बौद्ध भिक्षु अहोगंग पर्वत पर साणवासी सम्भूत के पास पहुंचे. साणवासी सम्भूत और रेवतस्थिविर के प्रयत्नों से ही कालाशोक के समय बुद्ध के महापरिनिर्वाण के सौ बरस पूरे होने पर द्वीतीय बौद्ध संगीति आयोजित की गई.
अशोक के काल में हुई तीसरी बौद्ध संगीति के अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स भी हिमवंत के आचार्य माने जाते हैं. माना जाता है कि मोग्गलिपुत्त तिस्स उशीरध्वज में रहा करते थे. अशोक के पुत्र महेंद्र के उपाध्याय मोग्गलिपुत्त तिस्स जब अशोक की याचना पर पाटलिपुत्र आये. अत्यंत वृद्ध होने के बावजूद मोग्गलिपुत्त तिस्स ऐसे किसी वाहन से पाटलिपुत्र आना अस्वीकार किया जिसे किसी जानवर द्वारा खींचा जाता हो. इस तरह गंगा में नाव के द्वारा मोग्गलिपुत्त तिस्स को पाटलिपुत्र लाया गया. जब मोग्गलिपुत्त तिस्स पाटलिपुत्र पहुंचे तो अशोक ने मोग्गलिपुत्त तिस्स को उतारने स्वयं जांघों तक के पानी में उतर आये और अपने दाहिने हाथ का सहारा देकर मोग्गलिपुत्त तिस्स को नाव से उतारा.
साणवासी, मोग्गलिपुत्त तिस्स, मज्झिम और कस्सपगोत ऐतिहासिक व्यक्ति थे. उनके प्रयत्नों से ही उत्तर भारत में बौद्ध मत के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ आई थी. सांची के स्तूपों से प्राप्त धातु-पात्रों में अहोगंग निवासी स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स, हिमवंत के आचार्य कस्सपगोत , मज्झिम, स्थविर, हारीतिपुत्र तथा गोत्तिपुत्र के अस्थि अवशेष मिले हैं. इन धातुपात्रों के ढक्कन पर अशोककालीन लिपि में इन स्थविरों के नाम अंकित हैं. इससे यह पता चलता है कि उत्तराखण्ड के इन स्थविरों को बौद्ध समाज में चरम प्रतिष्ठा प्राप्त थी. सांची के अभिलेख से पता चलता है कि मोरगिरी पर्वत के पास स्थित गांवों के निवासियों ने भी सांची पहुंचकर स्तूप निर्माण में योगदान दिया. सांची के स्तूप में मोरगिरी के निवासी अर्हदत्त, सिंहगिरी और भिक्षु देवरक्षित ने भी अपने नाम को अंकित करवाया था.
भारहुत के दान-अभिलेखों से पता चलता है कि मोरगिरी के निवासी घाटिल की माता ने, जितमित्र ने, स्तूपदास ने और पुष्पा ने इस स्थान पर स्तूप के स्तंभादि के निर्माण के लिये दान दिया था. भारहुत में नागरक्षित और उसकी माता चक्रमोचिका का दानलेख, मोरगिरि का नागिला ( नागरक्षिता ) भिक्षुणी का दानलेख और धनभूति की पत्नी नागरक्षिता का दानलेख और धनभूति के दो स्तंभलेख मिलते हैं. इन सभी अभिलेखों को संयुक्त रूप से देखने पर यह ज्ञात होता है कि उत्तराखण्ड में प्रत्येकबुद्ध की प्रमुख तपोभूमि थी.
कुलिन्दों के समय उत्तराखंड के दक्षिण भाग में भाबरप्रदेश में हीनयान की विशेष मान्यता थी. जातक कथाओं से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रत्येकबुद्ध नन्दमूलकपर्वत में ही तप किया था. नन्दमूलक पर्वत की पहचान नन्दादेवी पर्वत के रूप में किया जा सकता है. नन्दमूलक पर्वत में साधना करने वाले प्रत्येकबुद्ध समय-समय पर मैदानी इलाकों में आया करते थे. कुलिन्दों में हीनयान की मान्यता हमेशा ने बनी हुई है. युवानचांग ने उत्तराखण्ड के अधिकांश बौद्ध भिक्षुकों हीनयान का अनुयायी ही माना है. गोविषाण के सभी भिक्षुओं को भी उसने हीनयान का अनुयायी ही माना था.
जातक कथाओं के अनुसार ही बुद्ध ने अनेक बार बोधिसत्व के रूप में कुलिन्द राज्य में जन्मग्रहण किया. वे महाकपि के रूप में हिमालय में गंगातट पर रहते थे. उत्तराखण्ड में भी सभी जगहों के समान महायान द्वारा प्रचारित बोधिसत्वों की गाथाएं लोकप्रिय हुई थी. लेकिन स्त्रुघन, मयूर, अहोगंग, मतिपुर, गोविषाण के बौद्धकेन्द्रों ममें मुख्यतः हीनयान की ही प्रधानता रही.
उत्तराखण्ड में आज भी पूजे जाने वाले घंटाकर्ण नामक ग्राम देवता के विषय में एटकिंसन का मानना है कि घंटाकर्ण वीतराग अब्जपाणि नामक बोधिसत्व का रूपांतरण है. इसी प्रकार की समानता अन्य ग्रामदेवताओं में भी मिल सकती है.
पिछली कड़ी मौर्यकाल के दौरान उत्तराखण्ड की स्थिति
शिवप्रसाद डबराल की पुस्तक उत्तरांचल-हिमांचल का प्राचीन इतिहास पुस्तक के आधार पर.
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