समाज

नैनीताल का ईसाई कब्रिस्तान: वक्त के पथराये गाल और आँसू की बूंदें

निश्चित ही कब्रिस्तानों का एक आकर्षण होता है!

निस्तब्धता, निरभ्रता, शायद इस जगह से मुखर कहीं ओर नहीं होती. और फिर पहाड़ों के कब्रिस्तान तो सम्मोहित सा करते हैं अक्सर. नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा, लोहाघाट, सातताल जैसी जगहों में यह एहसास ही- कि चीड़ ओर देवदार की पत्तिओं से ढकी इन पहाड़ी ढलानों में न जाने कब से सोये पड़े हैं वो लोग जिन्होंने इन स्थानों को बसाया था, संवारा था, प्यार किया था इन्हें –वक्त के गलियारे में कहीं बहुत पीछे धकेल देता है आपको. थोड़े वक्त के लिए ही सही, भूले बिसरे इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं आप. और फिर, अतीत से जुड़ कर वर्तमान को जीना शायद आपकी समवेदना, अंग्रेज़ी में ‘इम्पैथी’ कहते हैं जिसे, को कहीं न कहीं उद्दीप्त जरूर करता है.

कब्रिस्तान का प्रवेशद्वार. फोटो: राजशेखर पन्त

नैनीताल से भीमताल जाते समय, निगाहें अक्सर ठहर जाती हैं साइप्रस के एक शताब्दी से भी पुराने पेड़ों के नीचे फैले सन्नाटे में लिपटे उस धुंधलके में, जिसके अंतहीन विस्तार में सोये हैं न जाने कितने लोग. ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं की इस कब्रिस्तान की स्थापना 1895 में की गयी थी. पर यहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के छठे दशक की भी कुछ कब्रें हैं, जिनके आलेखों (एपीटाफ्स) को आसानी से पढ़ा जा सकता है. ऐसी ही कुछ कब्रें इसके प्रवेश द्वार का हिस्सा बन गयीं हैं अब. शायद अघोषित रूप से बहुत पहले से दफनाये जाने की प्रक्रिया यहाँ शुरू हो चुकी होगी.    

भीमताल और टूट चुके पत्थर का दर्द     

शाताब्दियों से मृत्यु के अनवरत सिलसिले के मौन साक्षी रहे, उदास से दीखने वाले, पथरीले मेहराबदार दरवाज़े से होता हुआ मैं सामने चीड़ की पत्तियों से अटी पड़ीं ढलान पर उतर रहा हूँ- उन तीन लड़कों को अनदेखा करते हुए, जो शराब की कुछ बोतलों, चिप्स के पैकेट ओर कोल्ड ड्रिंक्स के साथ गेट की आड़ में बैठे हैं. मेरे सामने मार्क डरल जेम्स की निहायत ही सादी सी दीखने वाली कब्र है. इसके सिरहाने पर उसकी पत्नी द्वारा लगाये गए हेडस्टोन पर जमी काई की परत को सालों पहले कभी आख़िरी बार हटाया था मैंने. गुजरे दशकों में लाईकेन ओर काई की मोटी परत ने फिर से ढक दिया है उस इबारत को जिसे कभी उसकी पत्नी ने सोचा और लिखवाया होगा.

कैप्टेन डरल की कब्र

8 नवम्बर 1896 को बरमूडा में जन्मा, 83 फील्ड बैटरी रॉयल आर्टिलरी का  युवा कैप्टन था डरल. नैनीताल फ्लैट्स में 25 सितम्बर 1936 को खेले जा रहे एक पोलो टूर्नामेंट में घोड़े से गिर कर मौत हुई थी उसकी. शहर के किसी बुज़ुर्ग से बचपन में सुनी हुई, नैनीताल में तब खेले जाने वाले पोलो की कहानी के भूले बिसरे विजुअल्स एक बार फिर सतह पर उतराने लगते हैं. डरल का घोड़ा, जिसकी पीठ से गिर कर मौत हुई थी उसकी, उसके फ्यूनरल प्रोसेशन का हिस्सा था. उसके दोनों ओर लटकी रकाबों को उलट कर पीठ पर  कसी जीन के ऊपर रख दिया गया था. दफनाने के बाद घोड़े को उसी अंदाज़ में कैलाखान के उस हिस्से तक, जिसे टूटा पहाड़ कहते हैं, लाया गया ओर फिर उसे तीख़ी पहाड़ी ढलान के ऊपर खड़ा कर गोली मार दी गयी थी. पता नहीं यह एक अनाथ हो चुके घोड़े को दी गयी श्रद्धान्जलि थी या फिर उसके मालिक की मौत की सजा. हाँ, इस दुर्घटना के बाद नैनीताल में हर दूसरे दिन खेले जाने वाले पोलो के मैच और जून तथा सितम्बर के महिने में होने वाले टूर्नामेंट्स हमेशा के लिए बंद हो गए थे.

डरल की कब्र से थोडा और नीचे की और उतरता हूँ मैं. मेरे बायीं ओर बीसवीं शती के शुरुवाती सालों में बनी कब्रों की एक लम्बी क़तार है. मुझे याद आता है कभी मेरठ और इलाहाबाद में बने निहायत ही कलात्मक और नक्काशीदार टोम्बस्टोंस तथा क्रॉसेज़ से सजी थीं ये कब्रें. पूरी श्रंखला में अब कुछ भी साबुत नहीं बचा है.

बोअर वॉर कैदी शिविर. बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों का फोटो.

टूटे हुए क्रॉसेज़ के टुकड़े, सायास उखाड़ कर पलटाये हुए हेडस्टोंस इधर-उधर बिखरे पड़े हैं. मुझे तलाश है बोअर वार के उन तीन कैदियों की कब्रों की जिनके बारे में मैंने कहीं पढ़ा था. 1900 के आस-पास बोअर वार के पश्चात अफ्रिकी कैदियों का एक कैंप भीमताल में बना था. उन कैदियों ने इस क्षेत्र की सामाजिक परिसंपत्तियों के निर्माण में अपने श्रम का जबरन ही सही पर महत्वपूर्ण योगदान दिया था. इन कब्रों की तलाश मुझे शराब की खाली बोतलों के एक बड़े से ढेर के पास ले जाती है. पास ही एक कटा हुआ नीबू, मट्टी के बर्तनों में आटा जैसा कुछ, और एक ताज़ा कटे हुए मुर्गे का शरीर पड़ा हुआ है.

नैनीताल को बर्बाद होना है, हो कर रहेगा

कब्रगाह की निरभ्रता, साईप्रस के उनींदे से पेड़ों और आज़ की दुनिया से लगभग शताब्दी भर पीछे छूट गयी पहाड़ी ढलान पर यह सब कुछ देख कर अज़ीब सा लगता है. तभी मेरी निगाह एक खुली हुई कब्र पर जाती है. वाल्ट के भारी पत्थर को हटा कर बहुत गहरे तक खोद दिया गया है इसे. शायद किसी ने कुछ तलाशने की कोशिश की है. बहुत पुरानी, शायद उन्नीसवीं शती की कब्र है यह. इसके हेडस्टोन के टुकड़े इधर-उधर बिखरे पड़े हैं.

बोअर वॉर के एक कैदी की कब्र

मैं कोशिश करता हूँ कि इन टुकड़ों को जोड़ कर इसके एपीटाफ को पढ़ सकूं, पर ऐसा हो नहीं पाता. कब्रिस्तान के बाहर सड़क पर भुट्टे बेचने वाला लक्ष्मण बाद में मुझे बताता है कि रात के अँधेरे में यहाँ कभी-कभी कुछ लोग बाहर से आकर कब्रों को खोदते हैं, शराब के नशे में धुत्त. उसने उन्हें पुरानी कब्रों के अन्दर सोना और कीमती चीज़ों के दफनाये होने की संभावनाओं पर बातें करते सुना है.

सामने पहाड़ी ढलान के ऊपरी हिस्से में बनी एक कब्र के हेडस्टोन पर किसी आर. बी. बौश का नाम लिखा है. बोअर वार के एक कैदी की कब्र है यह जिसकी मृत्यु 26 दिसम्बर 1902 को भवाली में हुई थी. पता नहीं इसके दो अन्य साथिओं की कब्रें यहाँ चारों ओर फैली बर्बरता के बीच कहीं बची भी हैं या नहीं. इतिहास के नाम पर शायद हम सिर्फ विजेताओं और आक्रान्ताओं का परिचय ही सहेज कर रख पाते हैं. वो जो अभिशप्त थे अपने घर आँगन से दूर, बहुर दूर किसी गुमनाम सी पहाड़ी ढलान में दफ़न होने के लिए, अतीत के अँधेरे गलियारे में अक्सर कहीं खो जाते हैं.        

शाम की ठंडी हवा में झूलती साईप्रस की टहनियों की सरसराहट बोझिल सा कर रही है वातावरण को. इधर-उधर बिखरे संगमरमर के टुकड़ों पर उकेरे शब्दों में सिमटी किसी पत्नी के वेदना जिसका पति कहीं  दूर युद्ध में मारा गया था; किसी पिता का दर्द जिसने अपनी 14 वर्ष की इकलौती बेटी को किसी बीमारी के चलते खो दिया था; या फिर किसी किशोर के सपने जो बहुत कुछ करना चाहता था इस दुनिया में!

ये सब, खुदी हुई कब्रों, शराब की खाली बोतलों के ढेर और कटे हुए सर वाले मुर्गे के बिम्बों के साथ गड्ड-मड्ड हो कर विचलित कर रहे हैं मुझे. बाहर निकलना चाहता हूँ मैं इस बोझिल माहौल से. बेजान पत्थरों से बनी कब्रिस्तान के फाटक की जर्जर मेहराबों को उस पर उग आये एक पेड़ की जड़ों ने लपेट लिया है- जैसे कह रहा हो इनसे, “मैं तुम्हें ढहने नहीं दूंगा …”  अच्छा लगता है देख कर. कोई तो है जो बचाना चाहता है वक्त के पथराये गालों में ठहरी आसुओं की इन भूली-बिसरी बूंदों को.  

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कला-फिल्म-यात्रा-भोजन-बागवानी-साहित्य जैसे विविध विषयों पर विविध माध्यमों में काम करने वाले राजशेखर पन्त नैनीताल के बिड़ला विद्यामंदिर में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. फिलहाल रिटायरमेंट के बाद भीमताल स्थित अपने पैतृक आवास में रह रहे हैं. पछले करीब चार दशकों में उनका काम देश-विदेश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं-अखबारों में छपता रहा है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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  • गणेश मर्तोलिया की पोस्ट पूरी तरह जीवंत है। बधाई।

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