यात्रा पर्यटन

अन्वालों के डेरे और ब्रह्मकमल का बगीचा

अंग्रेज भले हमें सालों गुलाम बना कर गए हों उनके प्रति हमारा आकर्षण कभी कम नहीं हुआ. जैसे ही हमें कोई अंग्रेज नजर आता है हम कोशिश करते हैं कि कैसी भी अंग्रेजी में उससे बात कर ही लें. एक और मजे की बात यूरोप, अमरीका, ऑस्टेलिया, कहीं से भी कोई गोरा आया आये हमारे लिए वह अंग्रेज ही होता है. लेकिन कोई नादान हमें अंग्रेज समझ बैठे तो उसे क्या कहें. (Brahmakamal in Munsiyari)

हम गनघर से मापा होते हुए मर्तोली की चढ़ाई पार कर गाँव में पंहुचे ही थे कि सामने एक फौजिनुमा नौजवान आँख में बढ़िया स्पोर्ट्स ग्लास और पीठ पर रक्सेक बांधे चला आ रहा था. हमको देखते ही एकदम कड़क स्टाइल में हाथ मिलाकर भाई ने पूछा “ह्वेयर आर यू?” इत्तेफाक से सबसे आगे मैं ही था और पहला तारूफ मुझसे ही हुआ. मुझे सवाल बूझता तो जवाब सूझता. लेकिन मुझे माजरा समझ में आ गया. अगले भाई ने हमको भी विदेशी समझ लिए. हालाँकि अंग्रेज तो हम किसी दमची को भी नहीं दिख सकते थे. पर जो भी हो मैंने अगले को कुमाऊनी में जवाब दिया तो उसने भी फट से चश्मा उतारा और बहुत गर्मजोशी से कुमाऊनी में बतियाना शुरू हुआ.

यहाँ एक एक्सपिडिशन नंदा देवी के लिए आ रहा था जिसकी कुछ एडवांस पार्टी पांगर पट्टा जा चुकी थी और यह लड़का कुमाऊं स्काउट में था और इस दल का सदस्य था. वह हमारे साथ साथ ही मर्तोली में पंहुचा. मर्तोली में हम मुन्ना के घर में रुके जिसके पास हम पहले भी रुक चुके थे. हम शाम तक गाँव के आसपास टहले और ऊपर नंदा देवी मंदिर तक हो आये. (Brahmakamal in Munsiyari)

अगले दिन हम ल्वा के लिए निकल गए जहाँ हमें अकेली अम्मा मिली. ल्वा गाँव दो नदियों के बीच में उभरी हुई पहाड़ी पर बसा है. दांयी ओर नंदा देवी बेस से आने वाली नदी है और बांयीं ओर सलांग ग्लेशियर से आने वाली जलधारा. दोनों ही अच्छी खासी ढलान में बहती हुई ल्वा के नीचे आपस में मिलती हैं और थोड़ी सी दूरी पर गोरी में समा जाती हैं.

ल्वा से भारी मन के साथ लौटने के बाद हम सलांग की तरफ निकल गए. चूँकि वहां हमारा दिन भर का काम था इसलिए हम बड़े रक्सेक वहीं पर अपने एक साथी के पास छोड़ कर आगे बड़े. यहाँ डेन्थोनिया ग्रास के बड़े- बड़े गुच्छे पूरी पहाड़ी पर फैले हुए हैं. मर्तोली के ऊपर से भोज और रातपा का घना जंगल इस तरफ फैला हुआ है जो धीरे कम होता हुआ सलांग से नीचे जाने तक गायब हो जाता है.

ल्वा गाड़ के किनारे की ढलान में चढ़ते हुए हम एक अण्वाल के डेरे में पंहुचे जो अपनी भेड़ों की ऊन उतार रहा था. यह ऊन इकठ्ठा करके यहाँ से मर्तोली या किसी और गाँव में कोई कारीगर खरीद लेगा और इसे परिष्कृत करके सुन्दर दन, शौल, चुटका आदि बनाएगा. यहाँ पर हमने काली चाय पी और आगे का रास्ता पता किया. एक जगह पर आकर रास्ता खत्म हो गया और एकदम खड़ी ढाल सामने थी. इसमें कोई रास्ता न था. बस माहिर पर्वतारोही पहाड़ी भेड़ों के खुरों से एक लीक बनी थी जिसमें चढ़ने के लिए पहाड़ चढ़ने का हुनर तो चाहिए ही.

इस बाधा को जैसे-तैसे पार कर हम जैसे ही ऊपर पंहुचे तो सामने एक अलग संसार खुला था. आज मौसम साफ़ था और बहुत थोड़े बादल ही आसमान में थे. हमारे सामने मीलों फैला सलांग का बुग्याल था और बांयी ओर सलांग ग्लेशियर से निकलने वाली ल्वा गाड़ बह रही थी. नदी के पार नंदा कोट की चोटी अपनी पूरी आभा के साथ चमक रही थी. कुल्हाड़ी जैसी दिखने के कारण इसे यहाँ हम कुछ देर मखमली बुग्याल में पसर गए. यहाँ पर मन भावनाओं के दायरे से बाहर निकल रहा था और भाषा इस भाव को व्यक्त करने के लिए बिलकुल बेकार थी. (Brahmakamal in Munsiyari)

कुछ देर हम सामने टकटकी लगाए देखते ही रहे. इतने में भयंकर गर्जन की आवाज हुई. जैसे कि जोर जोर से बादल गरज रहे हों. लेकिन नीले आसमान में कोई ऐसा बादल नहीं था जो इतना गरज सकता था. इतने में हमारे सामने नदी के पार पहाड़ी में बर्फ का विशाल झरना सा गिरने लगा. भयंकर गर्जना के साथ लगभग मिनट भर तक यह झरना सीधी ढाल में गिरता ही रहा. यह एक एवलांस था जिसे हम कुछ बार पहले भी देख चुके थे. लेकिन यहाँ पर इसकी आवाज पहले सुनी आवाजों से कहीं ज्यादा भयंकर थी.

इस बेहद खूबसूरत बुग्याल में हम आगे बढ़ते ही गए. एक जगह पर हमें पत्थरों से बना एक छोटा झोपडीनुमा घर दिखा. असल में यह घर नहीं बल्कि अण्वालों का डेरा था जो अब इस मौसम में अब खाली हो चुका था. सितम्बर आधा बीत गया था और बुग्याल में घास भी इतनी नहीं थी कि भेड़ें पेट भर सकें. इसलिए इस डेरे को अगले मौसम तक यहीं छोड़ अण्वाल जा चुके थे.

यह डेरा बहुत ही सुन्दर ढलान पहाड़ी की एक उभार की ओट में बना था जहाँ यह हवाओं से बच सके. अन्दर से इतनी जगह थी कि पांच छ: लोग सो सकें. कुछ लकड़ियाँ एक माचिस, एक पोलिथीन की पुड़िया में नमक और कुछ छिटपुट चीजें छत की बल्लियों में खोंसी हुई थी. इस डेरे में कोई बड़ा दरवाजा नहीं था न कोई ताला. बस एक सपाट पत्थर को डेरे में मुंह में खड़ा किया था. इसके बाहर छोटी सी क्यारी में धनिया और मूली के कुछ पौधे अभी भी बचे थे. यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक साफ़ जलधारा सर्पिल बनाते हुए बह रही थी जो मुश्किल से तीन फिट चौड़ी होगी. यहाँ पर हमने हाथ मुंह धोया और कुछ देर सुस्ताये. इस डेरे में आस पास लकड़ी के लिए कोई ख़ास व्यवस्था नहीं थी. बहुत बिरले बिल्ल के झाड़ थे जिसे कोई भी अण्वाल काट कर उजाड़ना नहीं चाहेगा. शायद यहाँ रुकने वाले अण्वाल लकड़ियाँ नीचे से लाते होंगे.

यहाँ से हमें और आगे जाना था. इस ग्लेशियर से मोरेन तक. यानी बुग्याल के अंतिम छोर और ग्लेशियर के मिलन स्थान तक. जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे खग्गी दा हमें यहाँ के बारे में बताते जा रहे थे. वह यहाँ पर नंदा अष्टमी की बहुत ख़ास पूजा के लिए पहले आ चुके थे. हम बुग्याल के छोर पर लगभग पंहुचे ही थे कि खग्गी दा ने हमें इशारे से रुकने और शांत रहने को कहा. हम सब बहुत ख़ामोशी से अपनी जगहों पर झुक कर बैठ गए. हमसे कुछ ही दूरी पर एक भरल अपने दो बच्चों के साथ चर रहा था. कुछ ही देर में उसे हमारे होने का आभास हो गया और वह पलक झपकते आँखों से ओझल हो गया.

अब हम जिस जगह पर थे वह कहलाता है ब्रह्म कमलों का बगीचा. हमारे आसपास ब्रह्मकमल के घने गुच्छे शान से खिले हुए थे और उनकी महक से माहौल अजब का मादक हुआ था. दूधिया हरी रंगत वाला यह फूल हमारे राज्य का राज्य पुष्प है. कहते हैं यह देवताओं का प्रिय फूल है इसलिए हर साल नंदा अष्टमी को जोहार से नंदा के उपासक यहाँ जात लेकर आते हैं और यहाँ पर अपने लायी भेंट चढ़ाकर ब्रह्मकमल प्रसाद के रूप में लेकर जाते हैं.

भेंट के रूप में ककड़ी, भुट्टा जैसी चीजें होती हैं जो एक पहाड़ी किसान के पास हो सकती हैं. यहाँ आने और पूजा करने के भी कड़े नियम कायदे हैं. इस ग्लेशियर को श्रद्धालु नंगे पैर पार करके यहाँ आते हैं और बर्फीले ठंडे पानी में नहाने ने बाद भूखे पेट नंदा को पूजकर पहला ब्रह्मकमल अपने मुंह से तोड़ते हैं. यह जताने के लिए हे हिमाल हम तेरे पशु हैं जो तेरी शरण में आये हैं. यहाँ ब्रह्मकमल तोड़ने के भी कायदे हैं.

नंदा अष्टमी से पहले कोई भी कमल नहीं तोड़ सकता. असल में अष्टमी आते आते ब्रह्मकमल के फूल चटकने लगते हैं और उनके बीज आसपास बिखर जाते हैं. अगले मौसम में नए पौधे उगें इसके लिए पुष्ट बीज जमीन में पड़ना जरूरी है. यहाँ पर कुछ देर ठहरना हमारे लिए ऐसा अनुभव था जो मेरे लिए शब्दातीत है. कोई कविता, कोई शेर कोई चित्र और कोई कहानी उस अनुभव को व्यक्त नहीं कर सकती जो हिमायल के इस छोर में एक बर्फानी के ऊपर ब्रह्म कमलों के बीच पसरे हुए हमें हुआ. अगर देवता भी यहाँ आ जाएँ तो शायद ही स्वर्ग को वापस लौट पाएंगे.

अब वापसी में हम फिर से उस डेरे के पास रुके जहाँ कोई मेहनती और जिंदादिल अण्वाल हर साल आकर इस स्वर्ग में भेड़ें चराता होगा. यहाँ से हमारा सफ़र अब वापस उस दुनिया की तरफ जा रहा था जहाँ लोहे और सीमेंट की सभ्यता इस स्वर्ग से अनजान किसी अंधी दौड़ में भागी जा रही थी. लेकिन वापसी इतनी सीधी हो जाय तो वह वापसी कैसी अभी तो बहुत कुछ होना था. (Brahmakamal in Munsiyari)

लॉकडाउन के बीसवें दिन विनोद द्वारा बनाई गयी पेंटिंग

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विनोद उप्रेती

पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.

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