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बोर्निओ के नरमुंड शिकारी

वह प्रकृति के बीच रहते हैं. जल और जंगल की ये जमीन ही उनकी पालनहार है. इसके हर पत्ते, हर शाख, पहाड़ी गुफा के हर आसरे, दरारों से रिसते पानी, कल कल बहते धारे, तीव्र गतिमान भंवर में गोल गोल घूमती चकर घिन्नी सा जीवन यापन , हवा के थपेड़ो में मचलती बेलौस जिंदगी, अपने दल अपने समूह अपने जत्थे से जुड़े उनके प्राण,उनके हाथ में पकड़े भाले की जहर बुझी नोक किसी भी बड़े ह्रिँस पशु को धराशायी कर डालती है तो आदमजात क्या चीज़ है. वह तो बस खेल -खेल के लिए खच्च से काट दिए नर मुंड की बढ़ती हुई गिनती से अपने बल पराक्रम और शौर्य का प्रदर्शन कर उत्सव की तैयारी में मगन हैं .अब बजेंगे ढोल ढमा ढम, जिसकी हर थाप गहरी गमक पर नाचेंगे कदम, थिरकेगी कमर, झूमेगा बदन.जंगल की हर शाख पत्ते पेड़ तक इसका कम्पन जाएगा.
(Borneo Ke Narmund Shikari Book)

सारावाक के आदिम कबीलों के ये लोग इतिहास के प्रारंभिक काल के लोगों की तरह नहीं हैं, वे इतिहास के प्रारंभिक काल के लोग ही हैं यानी आदिम मनुष्य के एकदम सही उदाहरण. इंसानी खोपड़ियों का आखेट उनका प्रिय खेल रहा. नर मुंडों को वह बड़े शौक से जमा करते हैं और इस खेल में उन्हें अपनी प्रियतमाओं और पत्नियों का दिलो जान से समर्थन मिलता है. यहाँ के इबान कबीले में तो नरमुंड हासिल करना पुरुषत्व की निशानी समझा जाता है. इस कबीले की कोई हसीन दिलरुबा तब तक उस युवक का प्रणय निवेदन स्वीकार न करेगी जब तक वह अपनी प्रेयसी के सम्मुख नरमुंड काट कर अपने रक्त रंजित हाथों से उसकी कदम बोसी न कर दे.

ये उस सत्य कथा का एक छोटा सा परिचय है जिस पर भारत के प्रसिद्ध फ़िल्मकार फणि मजूमदार जोखिम ले कर अंग्रेजी में फिल्म बनाते हैं जिसका नाम है,’लोंग-हाउस ‘ और फिल्म बनाने में उस स्थान में हुए रोमांचक व सनसनी खेज अनुभवों को जब लिख डालते हैं तो यात्रा वृतांत की ऐसी अनमोल पुस्तक सामने आ जाती है जिसका नाम है, “बोर्निओ के नरमुंड शिकारी. संभावना प्रकाशन हापुड़ से प्रकाशित इस पुस्तक का अनुवाद नूतन प्रेमाणी ने किया है।

फणि मजूमदार ने हिंदी में ‘आरती’ जैसी फिल्म बनाई जिसने रजत जयंती मनाई. आरती एडिनबरो फिल्म उत्सव में शामिल की गयी थी. फिर बनी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘ऊँचे लोग ‘. अपनी खुद की फिल्म निर्माण संस्था से उन्होंने ‘आकाशदीप ‘ बनाई. ‘सावित्री’ फिल्म का लेखन निर्देशन किया. चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए उन्होंने कई पटकथाओं को रचा और निर्देशित किया.

फणि मजूमदार 1941 में बम्बई आ गये थे. वह 1931 से प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक प्रथमेश चंद्र बरुआ के सहायक रहे. 1932 में न्यू थियेटर में काम करने लगे. ‘अशोक ‘, देवदास, ‘गृहदाह’, ‘माया ‘और ‘मुक्ति’ जैसी कई फ़िल्में न्यू थिएटर ने बनायीं जिनमें वह पी सी बरुआ के प्रथम सहायक रहे थे. निर्देशक प्रफुल्ल राय की दो फिल्मों, ‘अभागिन’ और ‘अभिज्ञान’ की पटकथा फणि दा ने ही लिखीं. 1937 में न्यू थिएटर की दो सफल फिल्मों ‘स्ट्रीट सिंगर’ और ‘साथी’ उन्हीं के लेखन व निर्देशन में बनीं. बॉम्बे आकर उन्होंने 20 फ़िल्में बनायीं. इनमें ‘दासी’ फिल्म को पुरस्कृत किया गया तो इसके नायक पृथ्वीराज कपूर को भी सम्मानित होने का अवसर मिला. फणि दा प्रयोगवादी फिल्मकार थे. उनकी भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास पर बनी फिल्म ‘आंदोलन’ ऐसी कृति बनी जिसमें वैदिक काल से आरम्भ कर देश के आज़ाद होने की दास्तान दिखाई गयी.

1955 में शा ब्रदर्स के आमंत्रण पर वह सिंगापुर चले गये.यहाँ चार साल रह उन्होंने चीनी, मलय और अँग्रेजी भाषाओं में ग्यारह फ़िल्में बनायीं जिनमें “हाँग तुआह” और “अनकू सजाली”को दक्षिण पूर्व एशिया फिल्मोत्सव में अनेक पुरस्कार मिले.अँग्रेजी और मलय भाषा में बनाई गयी फिल्म “लौंग- हाउस” विश्व सिनेमा में ऐसा साहसिक प्रयोग बन गई जिसने बोर्नियो के ख़तरनाक नर मुंड शिकारियों के जीवन के रोमांचकारी व भावनात्मक घालमेल को परदे पर साकार कर दिया. इस फिल्म की कहानी के साथ साथ इसे परदे पर उतारने की कोशिशों का वृतांत भी झकझोरने वाला है. “लौंग – हाउस” फिल्म की कहानी और इसके निर्माण की यह दास्तान “बोर्नियो के नर मुंड शिकारी” फणि मजूमदार की सधी बेबाक लेखनी का नवप्रवर्तन भरा प्रयास है. उपक्रमी ही जोखिम लेता है,साहस उपजाता है और यहाँ उसका रूप लेखक का है.

बोर्नियो भूमध्य रेखा पर स्थित है. यह वह देश है जहां के पुरुष सादे पुरुष हैं. स्त्रियां बिना बनाव श्रृंगार की स्वाभाविक स्त्रियां हैं. बंदर मुक्त विचरण करने वाले बंदर हैं. आर्किड फूल खिलते हुए फूल हैं. सभी प्राणी अपने सहज स्वाभाविक अविकृत रूप में रहते हैं. आप जब इन जंगल के आदमियों से मिलते हैं तो वे आपकी तरफ उदास आँखों से देखते हैं. लगता है जैसे इन्होंने अभी अभी डारविन की पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पिसीज’ पढ़ी है और इन्हें मालूम हो गया है कि अपनी ही नस्ल के कुछ लोगों की तुलना में ये कितने पिछड़ गये हैं. पता नहीं ये कब से यहाँ रहते आए. इस समय वहां जो निवासी हैं उनके पूर्वज पिछली कई सदियों में रह -रह कर होने वाले निष्क्रमण के माध्यम से यहाँ बसे. पहले के आए हुए अधिक असभ्य निवासी नवंगतुकों के आने पर दूर दराज़ के अंदरूनी इलाकों में जाते रहे. धीरे -धीरे विभिन्न आदिम जातीय समुदाय बने. फिर कई नस्ली गुट, अपने अपने सामाजिक संगठन, रीति रिवाज और परम्पराएं उभरती रहीं.

पुराने दिनों में नर मुंडो का आखेट उनका प्रिय खेल था. और इस खेल में उन्हें अपनी प्रियतमाओं और पत्नियों से हार्दिक प्रोत्साहन मिलता था. जाहिर है,इंसानी खोपड़ी हासिल करने और उनकी संख्या की हर वृद्धि के पीछे की उत्प्रेरक ऊर्जा यही रागात्मक सम्बन्ध थे. जैसे जैसे अगले नर मुंड का शिकार होता शिकार का पुरुषत्व भी बढ़ा हुआ माना जाता. कबीले की कोई भी कुमारिका किसी युवक के प्रस्ताव को तब तक स्वीकार न करती जब तक वह रणबाँकुरा नरमुंड काट पेश न कर दे.

नरमुंड के आखेट की यह लत कैसे पड़ी इस पर अलग – अलग राय हैं. ऐसा कुछ सम्बन्ध तब स्थापित हुआ जब परिवार में कबीले में मुखिया की मृत्यु हुई. मातम का शोक मना. अब माना गया कि मुखिया की दूसरी दुनिया में चली गयी आत्मा तब तक शांत नहीं हो सकती जब तक उसकी सेवा के लिए कोई सेवक न मार दिया जाये. इसलिए क़ुरबानी दी गयी और उसका सर काट मृत मुखिया की कब्र के पास रख दिया गया.

नर मुंड शिकार की ऐसी पाशविक वृतियों से कबीलों में रक्त -पिपासा का नशा चढ़ा और हत्याकांडों के प्रति हिचकिचाहट न रही.नर मुंड शिकारी के अभियानों का वीरता पूर्ण या सम्माननीय होना जरुरी न था. चालाकी या मक्कारी से शिकार करना उतना ही प्रशंसनीय माना जाता था जितना बहादुरी दिखा कर किया जाने वाला वध . विरोधी पर पीछे से किया गया हमला करना बेहतर माना जाता था क्योंकि सामने से किए गए हमले की तुलना में इसमें सफलता की गुंजाइश ज्यादा होती थी. किसी असमर्थ बूढ़े आदमी का सिर उतना ही विजय सूचक माना जाता था जितना कि किसी बलशाली युवक का.
(Borneo Ke Narmund Shikari Book)

बोर्नियो पर सुल्तान का शासन था. गवर्नर लापरवाह थे. समुद्री डाकू लूटपाट के साथ गांवों में हमला कर औरतों बच्चों को उठा ले जाते और बेच देते. धीरे -धीरे लोगों में असंतोष उपजा और विद्रोह हुआ. मसालों की खोज में अपनी नौका ले यात्रा में भटकता 27 साल का युवा जेम्स ब्रूक इस द्वीप में एक नई उथल पुथल कर गया. जेम्स यहाँ के राजा हाशिम से मिला. हाशिम चाहता था की किसी तरह उसकी फौज विद्रोहियों को पस्त कर दे ताकि वह अपने सुल्तान की नजरों में ऊँचा उठ सके. पर फौज तो नकारा थी. हाशिम ने जेम्स से कहा कि अगर वह नदी के ऊपरी इलाके में जा उसकी स्थानीय फौज की कमान संभाल विद्रोह समाप्त कर दे तो वह उसे सारावाक का गवर्नर बना देगा और इस प्रान्त पर शासन करने के लिए उसे पूरी सत्ता दे देगा. सारावाक की सीधी सादी जनता और उनकी दुर्दशा ने उसे आहत कर दिया था.उसने राजा हाशिम की बात मानी. कूटनीति और राजा की फौज की शक्ति के बल से उसने विद्रोहियों से आत्मसमर्पण करवा दिया. अब जेम्स ब्रूक अपनी स्थिति मजबूत करते रहा और अंततः गवर्नर घोषित कर दिया गया. उसकी दिली चाहत थी कि वह जनता को ऐसा न्याय पूर्ण शासन दे जो सम्पूर्ण बोर्नियो में सर्वोत्तम हो. अभी कई मलय गुट उसके लिए मुश्किल पैदा कर रहे थे. बाहर से गुलाम जमा करने वाले समुद्री डाकू और नर मुंड शिकारियों का आतंक जारी था. डाकू इस बात के आदी हो चुके थे कि वह हमले करें और सिर काटने की मुहिम चालू रखें. जेम्स ब्रूक अपनी स्थिति मजबूत करते रहा, उसने सुधार जारी रखे, बाहरी खतरों से प्रान्त को सुरक्षित करने के कार्य करता रहा. सुल्तान के प्रति वफादार रहा और उससे हुए एक समझौते के तहत अब उसे इस राज्य का स्वामी बना दिया गया. नरमुंड शिकारियों द्वारा आबाद बस्ती का गोरा राजा जिसने 1868 तक राज किया और फिर उसका भतीजा चार्ल्स राजा घोषित किया गया.

जेम्स ब्रूक के सारावाक का राजा बनने के सौ साल बीत गये और फिर जापानियों ने देश पर कब्जा कर लिया. उनके क्रूर सैनिक वर्ग ने न तो पैगन रीति रिवाजों का सम्मान किया, न ही उनकी रूचि और नीयत यहाँ की लोक थात बचाने की रही.यहाँ के देसी चावल की फसलों से उन्होंने अपने गोदाम भरे, सरदारों से अपने लिए शिकार खिलवाये और बगावत के डर से उनकी बंदूकें जब्त कर ली.उन्होंने कबीले के लोक विश्वास और परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ा दी.

ऐसे में अलग -थलग हो पड़े व जंगल की ओर जाने वाले जापानी सिपाही कभी वापस न लौटे. ये भटके हुए सिपाही किसी अनजाने स्थान पर लड़खड़ा कर अचानक गिर जाते थे. धूप और छाया में ततैये की तरह उड़ने वाली एक छोटी चीज आकर उनसे टकरा जाती थी. वह कहाँ से आई ? वह क्या चीज थी ?अपने शरीर को देखने पर घायल को लगता था कि एक छोटी सी नोकदार चीज उसके मांस में घुस गयी है. बेसहारा हो कर वह जमीन पर गिर पड़ा है और मदहोशी छा जाती है. वह नोकदार चीज़ इपोह वृक्ष के जहरीले रस में डुबोई गयी थी. यह रस जहरीला होता है. यह अपना काम कर रहा था.

अचानक झाड़ियों में हलचल – सी हुई और अपने अचूक निशाने के सही परिणाम से मद में झूमता नर मुंड शिकारी पेड़ों की ओट से बाहर निकल आया. चुपचाप वह जमीन पर पड़े हुए जिस्म के पास गया. म्यान से उसने अपना ‘परांग’ निकाल लिया. बिजली की गति से तलवार लहराई.उसके एक ही झटके में उसने अपना पुरस्कार प्राप्त कर लिया.खून की बौछार के साथ एक नर मुंड गर्दन से छिटक अलग हो गया था. परांग अपनी म्यान में वापस जा चुकी थी. आदिवासियों द्वारा जमा किए गये जापानी सिरों में एक और की वृद्धि हो गयी थी. दुश्मनों के मन में भय और आतंक की लहर बनाए रखने के लिए बस यही आदिम तरीका सबसे कारगर था.

उधर मित्र राष्ट्र के सैनिकों के द्वारा स्थानीय निवासियों के समूहों को संगठित किया जा रहा था और जापानियों को खदेड़ने की हर संभव कोशिश की जा रही थी. कई जगह सारावाक निवासियों ने संगठित सैनिक टुकड़ियों के आने की प्रतीक्षा भी न की. उन्होंने दुश्मन पर खुद ही हमला बोल दिया . अपने हथियारों और परांगों का उन्होंने खुलकर उपयोग किया और जी भर कर नर मुंडो का खेल खेला. आखिरकार सारावाक में जापानियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. लोग आजादी के आलम में खुश थे और सोचते थे कि अब उनका राजा लौट आएगा.राज्य में अमन चैन होगा. धान की नई फसल लहराएगी. पोखर, ताल, नदी से और मछलियां पकड़ी जाएंगी. जंगल से शहद और फल फूल बटोरने में कोई रोक टोक न होगी. वह फिर गाएंगे, नाचेंगे, जाम छलकाएंगे. अच्छी आत्माओं से सीधे संपर्क रखने वाले उनके ओझा ने उन्हें साफ बताया है कि गोरा अंग्रेज ही उनके लिए खुशी लेकर आएगा.

वास्तव में ऐसा न था. उथल पुथल के दौर में उनके तीसरे राजा चार्ल्स वाइनर ब्रूक ने सारावाक का शासन इंग्लैंड के बादशाह को सौंप दिया था. इससे जनता दुखी हो गयी थी . सदियों पुराने रीति रिवाजों के अनुसार वे एक खास तरह की जीवन प्रणाली अपनाये थे. उनकी अलिखित नीति -संहिता थी जिसे ‘आदत लामा ‘के नाम से जाना जाता था. उन्हें भय था कि नया शासक उनकी परम्पराओं को खत्म कर देगा.. इसीलिए जब आखिरी राजा ने उनसे विदा ली तो जंगल के सीधे सादे निवासियों को ऐसा लगा कि जैसे महज दोस्त या नेता से बढ़ कर उनका कोई नजदीकी ही उन्हें छोड़ कर चला गया है. नये ब्रिटिश शासन के प्रति मलय असंतोष की आग का भड़कना यहीं से शुरू हुआ. असंतुष्ट मलय में ‘तेरह की समिति’ नामक एक गुट बना जो अनजान जगहों में गुप्त रूप से बैठकें करने लगा था . उन्होंने कई हत्याएं करने की शपथ भी ली थी .यह हत्याएं कोई मामूली हत्या न थीं.इनके पीछे पूरे कबीले के टूट गये सपनों की स्याह परछाइयां थीं.

इस बीच कई षड़यंन्त्रों की खिचड़ी पकती रही. सारावाक में कई राजनीतिक परिवर्तन होते रहे . गवर्नर बदले. अब कुचिंग में स्टीवर्ट को गवर्नर बनाया गया. लोगों ने उसका स्वागत किया. वह सबसे खुल कर मिलता जुलता. उनके रीति रिवाज, उनकी वेशभूषा को देखने, उन्हें जानने समझने का प्रयास करता. ऐसे ही एक जलसे में स्कूली बच्चों के बीच से वह गुजरा. बच्चों ने अपने नन्हे हाथों से उसका स्वागत किया अपनी मीठी आवाज में गीत गाए. स्टीवर्ट उनकी कतारों के बीच से गुजरता गया.

जब वह कतार के आखिरी सिरे पर आया तो एक नौजवान शिक्षक आगे की ओर झुका. ऐसा लगा कि वह गवर्नर के कदमों पर गिर रहा हो. आगे बढ़ झुकते हुए उसने गवर्नर की बगल में छुरा घोंप दिया.ये सुलग रहे प्रतिशोध की मात्र एक घटना न थी. पर ये हत्या तो एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या थी.ये हत्या क्योँ की गयी ? सुधार की प्रक्रिया में ये कैसी ताकत क्यों और कैसे हावी हो जाती हैं? आखिर ये सिलसिला कब तक चलेगा ?

इस पृष्ठभूमि में फणि मजूमदार अद्भुत रोमांचक फिल्म,’लाँग – हाउस ‘ को रचते हैं. इसकी कथा के विस्तार, पटकथा की बारीकी, लोकेशन के चुनाव और फिल्म की शूटिंग के लिए उस प्रदेश की यात्रा करते हैं. यह यात्रा वृतांत अनुभव ‘बोर्नियो के नर मुंड शिकारी’ में लिपिबद्ध हो पुस्तक के रूप में सामने आता है. यह इस वजह से भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि भारतीय यात्रा साहित्य में ऐसा परिवेश पहले कहीं रचा ही नहीं गया था. आदिम समाज और नये जमाने की टकराहट को ऐसे लिखा गया है जैसे कैमरा दृश्य सामने रखते जा रहा हो जिनके संयोजन में एक तरफ सीधे साधे आदिवासी समुदाय हैं.उनके जीवन यापन का एक सहज सरल ढंग है. प्रकृति का अद्भुत परिवेश है. उनके निरंतर शोषण की तस्वीरें हैं. राज सत्ता की निरंकुशता है. आतंक है उन समूहों का जो सब कुछ पा अपने वैभव, मद और अहम् की तुष्टि को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं. और इन सबके साथ है वह खतरनाक खेल जिसमें हर नर मुंड काट एक प्रतिज्ञा पूरी होती है. इसे शूरवीर कहें या हत्यारा जो एक नये मुंड के कटने पर अपने हाथ पर गोदने की एक काली धारी गुदवा लेता है .ये जितनी ज्यादा होंगी उतनी ऊँची बनती जाएगी हैसियत, बढ़ेगा अभिमान.

सारावाक के सबसे बड़े शहर कुचिंग के बाद सीबू यहाँ के तीसरे डिवीज़न की राजधानी है जहां नदी किनारे पर बसी है. यहाँ हरियाली है ,सुंदर वृक्ष लगे हैं , खूबसूरत घर जिनके आसपास सफाई से कांट छांट कर बनाई गयी बाड़ बहुत ही आकर्षक दिख रही है. आगे तेज उठती लहरों और घुमावदार भंवरों में बहाव की प्रतिकूल दिशा में तेज बढ़ती नाव का सफर लुभावना है. आसपास रबर के चीनी बागान, भयानक जंगल हैं . नदी तट पर पहुँचने पर मचानघरों से गुजरते हुए सामने दिखते दृश्य ध्यान खींचते हैं.

बड़े उत्साह से करीब दस साल का लड़का घने पेड़ों के बीच कीचड़ के रास्ते भाग रहा है . वह पूरी तरह नंगा है सिवाय कमर पर लिपटे एक चीथड़े के. उसके लम्बे काले बाल पीछे की तरफ ऐसे उड रहे हैं,जैसे किसी दौड़ते हुए घोड़े की लम्बी पूँछ. उसका इरादा है कि धारा की तरफ बढ़ती एक नाव में कूद जाये और वाकई जैसे जंगली बिल्ली कूद कर पेड़ की डाली पर चढ़ जाती है वह नाव पर जा बैठता है.

मचान घर से निकलती इठलाती बलखाती युवतियाँ. देख रहा हूं उनकी भोंएं कमान की तरह हैं, आंखें तिरछी हैं. होंठ भरे पूरे हैं. कमर से घुटनों तक ही उनका शरीर ढका था, बाकी खुला खुला.इसे हवा छू रही थी .सूरज की गुलाबी धूप इसमें सुवास पैदा कर रही थी. झीनी बारिश की बूंदों ने इसके पोर पोर में मद भर दिया था. धरती के स्पर्श से इस खुले सुगठित भाग में चुम्बक सी खींच लेने की समर्थ शक्ति आ चुकी थी ऊपर की गोलाइयाँ वशीकरण के सटीक तंत्र का संधान करती फिरतीं थीं.

रात को रुकने के लिए एक दुकान और मकान के बीच दो ड्रमों पर दो तख्ते का बिस्तर मिल पाया था.किसी तरह गर्दन सीधी कर पड़ा रहा. रात को जब करवट बदली तो दो तख्तों के बीच चमड़ी फँस गयी थी.नीचे जमीन पर चूहे और तिलचटटों की दौड़ जारी थी.

अगले दिनों में कई गाँव देखे कुछ चल रहे युद्ध से पूरी तरह ध्वस्त थे.जल कर खाक हुए मकान और अनगिनत झोपडियां जिनमें हरकत दिखाई देती थी. पास में नये बस रहे शहर भी थे,पर ज्यादातर छोटे कस्बे थे. कुछ सुरुचि संपन्न जिला अधिकारियों की बेहतर रूचि और वास्तु की जानकारी से कई पुरानी कोठियाँ चमकने लगीं थीं. मरम्मत कर भव्य बना दिया किला भी देखा. फिल्म बनाने के लिए पूरे परिवेश को समझना जरूरी था. सारी शूटिंग आउटडोर लोकेशन में संभव थी.

शहर के एक किनारे पहाड़ी की चोटी पर बना स्कूल था जिसके अमेरिकी शिक्षक और उसकी चीनी पत्नी से भेंट होती है. बहुत सहज और व्यवहारकुशल लगे. स्कूल में आठ से अठारह की उम्र के बीस छात्र – छात्राएं. उनको स्थानीय पोशाक पहनने की सख्त मनाही थी. अपने बोरनियन नाक नक्श के अलावा वो सिंगापुर के आधुनिक बच्चे लग रहे थे. साफ था कि बंदूक और व्यापार के बल पर नहीं बल्कि सलीब और ईसाई नैतिकता के आधार पर यहाँ सभ्यता कर प्रवेश हो रहा था. इन स्कूलों से निकलने के बाद ऐसे सैकड़ों बच्चे अपने ही परिवेश -वातावरण में बेमेल हो जाते हैं. बेहतर रहन -सहन की आस में वह कस्बों की ओर जाने लगते हैं. बेकारी के कारण कुछ लड़कियां वैश्यावृति आरम्भ कर देती हैं तो कुछ लड़के, लड़कियों की दलाली करते हैं. कई बुरे धंधे में फंस जाते हैं. प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले ये विकास के नये तरीके, ये मशीनें, टोकरी में भर रहीं नई वस्तुएं परंपरागत देसी जीवन की यादों को लगातार धुंधला कर देती है. अब ये सवाल उठना जायज है कि ये नये तौर तरीके विनाश ज्यादा करते हैं या सृजन? इसका आधार तो उन्हें लागू करने की व्यवहारिकता और समझ पर निर्भर करता है.बाहर से भले ही लगे कि कुछ बदल रहा है पर वह परिवेश एकबारगी ही नहीं बदलता. सदियों से धीमे धीमे कई कड़ियाँ आपस में जुड़ उस अवलम्बन को रच रही होतीं हैं जिसमें जीवन को जीने उसे भोगने का अलग स तरीका है.

यहाँ जो घर बनाए जाते हैं वह सुरक्षा के लिहाज से ऊँचाई पर होते हैं. इनके पीछे आदिमानव की समूह में रहने की प्रवृति, सामूहिक जीवन के आर्थिक लाभ और तमाम अन्य जरूरतों से उसे एक मजबूत किला बना देने की होती है. इन घरों में पहले चबूतरा है जिसे पार कर भीतर पहुँचते है जो फर्श से दो तीन फुट ऊंचाई पर होता है. फिर पहला खास कमरा जो खाने, बातचीत और सोने के लिए है, गैलरी जो एक सार्वजनिक कमरा है. यहीं अविवाहित युवक सोते भी हैं. कई जगह कुंवारी लड़कियां भी. लकड़ी की छोटी सी एक सीढ़ी सार्वजनिक शयनकक्ष तक जाती है. अब कोई युवक यदि किसी लड़की को चाहे तो अंधेरा होने के बाद वह ऊपर चला जाता है. रुकता है उस युवती के पास जिसे वह चाहता है. फिर बातें होती हैं और अगर वह युवती युवक से अपने लिए सुपारी लाने या सिगरेट लपेटने को कहे तो इसका मतलब है कि उसे युवती ने रात भर रहने की मंजूरी दे दी है. आगे वह लड़की पलंग के पास रखे दीपक को जला देती है तो इसका मतलब है कि वह उसे नहीं चाहती. यहाँ की सामाजिक संहिता में प्रायोगिक विवाह की प्रथा को मान्यता मिली है. शादियां जल्दी हो जाती हैं, अमूमन वह एक ही शादी करते हैं और विवाह के बाद अपने साथी के प्रति वफादार रहते हैं.

गाँव के सरदार कुलेह की मेहमान नवाजी में रहना था. वह सिर्फ लंगोट पहने था और उसके बाल गांठ मार पीछे बंधे थे. चेहरे पर अधिकार, भावना और स्नेह शीलता देखी जा सकती थी. घर से निकली एक किशोरी ने मेरा स्वागत किया आगे बढ़ मुझे एक ग्लास दिया जिससे शराब की महक आ रही थी और बोली ‘बुआई ‘. तब साथ चल रहे चोंग साहिब ने बताया कि अब इस तरल पदार्थ को मेरे कंधे के ऊपर से गिराया जाएगा ताकि मेरे साथ चल रही आत्मा संतुष्ट रहे. यहाँ ये विश्वास हैं कि हर किसी के साथ एक अदृश्य साथी, एक रक्षक देवदूत या एक शैतान रहता है. मेहमाननवाजी में सबसे पहले साथ आने वाली प्रेतात्मा को संतुष्ट कर दिया जाता है.

सरदार के लिए लाये उपहारों को देख वो खुश हुआ.. अचानक मेरा ध्यान बूढ़े सरदार के हाथ की ओर गया जो कलाई से ले कर उँगलियों तक नीले रंग के गोदने से गोदा हुआ है. पता चला कि यह सरदार नर मुंडो कर एक बहुत बड़ा शिकारी रहा है. एक नर मुंड को काटने के बाद ऊँगली के एक जोड़ पर एक गोदना गुद जाता.जब दोनों हाथों के जोड़ गोदने से भर जाएँ तो हाथ के पिछले हिस्से की कलाई की ओर गोदना बनाया जाता.सरदार का तो पूरा हाथ ही गर्व के अनगिनत प्रतीकों से सजा था. अब थका जान वह मुझे अपने खंड ले गया. जहां बेंत की चटाई बिछी थी और अलग -अलग उम्र की चार पांच स्त्रियां हमेशा की तरह अधनंगी वहां बैठी -पसरी थीं . मेरे लिए भी वहीं उनके बीच एक चटाई बिछी और सो जाने को कहा गया.इतनी सारी औरतों के बीच मैं कैसे सोता? तभी छोटे लड़कों की एक टोली वहां आ घुसी और मुझे देख ही ही करते चुहल की. फिर बाहर भाग गये. अब कमरे में एक बूढ़ी औरत आई. पहले उसने मुझे एक गिलास पीने का पानी दिया फिर उसने दीवार पर टंगी पारंग मतलब तलवार निकाली और मेरे सर के पास बैठ गयी. फिर उसने एक सुपारी निकाली और एक सुपारी के दो टुकड़े कर दिए. फिर पान के पत्ते में चूना लगा उसमें वह सुपारी रख मुझे दी जो मैं खा गया. वह सरदार की बीबी थी और मेरे पान खा लेने पर वह बहुत खुश हो गयी . ये रस्म मेहमान के सम्मान की रस्म थी. इसे वह ‘गुआ तामूल’ कहते थे. ‘गुआ’ का मतलब सुपारी और ‘तामूल’ यानी ताम्बूल या पान. उसने मुझे ‘अनाक’ कहा अर्थात बेटा. अब मैं भी उसे ‘ए नाय ‘कहूंगा ‘यानी मां. वह मेरे लिए मां से बढ़ कर साबित हुई. कैसे? ये बात तो मैं बाद में बताऊंगा.आखिर में.

सरदार के परिवार की मेहमानवाजी में हर पल स्वागत है. हर लम्हा गर्मजोशी से भरा. मुझे पता चला कि जब समारोह होगा तो महफ़िल में लड़कियां जबरदस्ती पिलाएंगी. अब ये तो मेरे लिए धर्म संकट होगा क्योंकि मैं पीता नहीं. सरदार हंस के कहता है कि जब कोई भी लड़की पीने को कहे तो मैं स्वीकृति दर्शाने के लिए प्याले को ऊँगली से छू लूं और कहूँ, ‘निरूप’ जिसका मतलब है तुम पियो और जब वह पीना शुरू करे तो प्याले को उसके मुहं से लगाये रखूँ, जब तक शराब की एक एक बूंद उसके गले न उतरे, में उसके सिर को ऊपर न होने दूं.
(Borneo Ke Narmund Shikari Book)

ये जो समारोह होगा उसमें सजाये कई व्यंजन अच्छी और बुरी आत्माओं के लिए भी परोसे जाएंगे. इन्हें तीन देवताओं पर भरोसा होता है.. पहला जो मनुष्य का सृजक है. दूसरा जो खेती बाड़ी का रक्षक और तीसरा युद्ध का निर्णायक. अलौकिक शक्तियों के निचले क्रम में आत्माएं हैं जंगल नदी पर्वत और धान के खेतों पर छोटे देवताओं का राज होता है. किसी न किसी माध्यम से ये अपनी इच्छाएं प्रकट कर देते हैं, हरे रंग के मकड़खोंना पक्षी,चमकीले बैंगन, मंडराते हुए बड़े – बड़े बाज. ये आत्माएं ओझा के शरीर में प्रवेश का जाती हैं. कबीले के लोगों की सारी जिंदगी ही बुरी आत्माओं को खुश करने और अच्छी आत्माओं से मैत्री करने में बीत जाती है.

इबान आदिवासियों की अर्थव्यवस्था सरल है. खेती और मछली मारी. खूब चावल पैदा हो और भात खाया जाय की ख्वाहिश सबसे बड़ी है.जंगल काट जमीन में छेद की कतार बनाते आदमी और बीज डालती औरतें दिखती हैं खेत के चारों ओर बाड़ डाल दी जाती है ताकि हिरण और सूअर आ-जा न सकें. फसल पके -कटे -सूखे तो उत्सव मनाता है.नई जमीन की खोज ओझा के देखे सपने से होती है. पंछी शगुन बताते हैं. सूअर और मुर्गी पाली जाती है, जंगल से शिकार किया जाता है. फल और कंद तोड़े जाते हैं. कई चीजें बटोरी -इकट्ठा की जाती हैं, गेटापारचा, साबूदाना, शहद, मोम, बेंत, पक्षियों के घोंसले आदि आदि.नदी के किनारे की दुकानों में इन्हें बेच दिया जाता है. चीनी व्यापारी तड़क -भड़क की पोशाक, गहने बेचने आते हैं अदला -बदली होती है. लड़कियां अपनी परंपरागत पोशाकों में सजधज चालाक चीनी दुकानदारों से हँसते -शरमाते मोलभाव करती हैं. उन्हें गले के लिए हार चाहिए तो कानों के लिए बुँदे. उन्हें और खूबसूरत भी दिखना है. बहुत हसीन और जवां. यही तो मुझे अपनी फिल्म में भी दिखाना है. धान के खेत, झोंपड़ी, तीन ओर से घेरे जंगल और बीच में लहलाहते पौंधे जो हवा चलने पर लहरों की तरह मचल उठते हैं. नदी में तेज पानी का वेग उछाल मारता है , किनारे के पत्थर से टकराता है. ऊपर आसमान मैं कभी गड़गड़ाते बादल हैं तो कभी पूरा खिला हुआ चांद. ये दृश्य तो अद्भुत है यही सोचते अचानक मैं गिर पड़ा. अपनी कहानी के साक्षात् दृश्य मेरे सामने थे. मैंने देखा ही नहीं कि जहां मैं चल रहा था वो जमीन गीली और रपटीली है.ऐसा फिसला कि पाँव जख़्मी हो गया. हाथ का अंगूठे में गहरी चोट आई. इस दर्द ने अब बेचैन कर दिया.खूब परेशान किया. जो देखा था उसे लिखना भी तो था अब लिखूंगा कैसे? बड़ी मुश्किल से बाएँ हाथ से टाइप करते गया. जेम्स ब्रोक का महल, उसे छूती कुचिंग नदी, नाव में मुसाफिरों का इंतज़ार करते खलासी, छायादार पेड़, भरपूर हरियाली, संग्रहालय और वहां से बटोरी आदिवासियों की जानकारी.सब समेट सिंगापुर को वापसी अपने निर्माता शां साहिब को सब जानकारी दी उन्हें बताया कि मौसम को देखते शूटिंग में क्या परेशानियां आएंगी. मैं इसे ब्लैक एंड वाइट बनाने कि सोचता था पर मेरे निर्माता शा साहिब ने कहा कि इसे तो रंगीन ही बनाना है. भले ही कितनी ही रकम खर्च हो जाये. अब कहानी स्पष्ट थी, लोकेशन देखी जा चुकी थी. सो अब पटकथा पर काम शुरू हुआ.

सारावाक की लोक थात दिखानी है जहां अब गोरा अफसर राज करेगा इस शर्त पर कि आदिवासियों की लोक थात यानी उनके ‘आदतनामा में कोई दखल न हो. फसल उगाई जाएगी उस खास नई भूमि के हिस्से में भी जिसे ओझा ने ढूंढा है.सो पहले आत्माओं से पूछना पड़ेगा की उन्हें जमीन पसंद भी है या नहीं. ओझा समाधि में है वह बोलता है की आत्माओं को ये जमीन पसंद है परन्तु काल सूर्यास्त से पहले मचानघर के सामने एक अंग्रेज आदमी बहता हुआ आएगा. अगर गाँव वाले इस अंग्रेज को बचा लेंगे तो आने वाली फसल भरपूर होगी और अगर इस अंग्रेज के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया तो गाँव का हाल बहुत बुरा हो जाएगा.

रात दिन नदी की चौकसी हुई. खनिजों की खोज में अपनी नाव पर निकला गोरा एलेक्स. नदी के विकराल थपेड़ों में उसकी नाव पलट गयी, बेहोश एलेक्स नदी के बहाव में बहने लगा. जब आँख खुली तो रात थी. लुली मच्छर दानी के भीतर बिचौने पर बैठी है उसका सुन्दर चेहरा, सुगठित शरीर का आधा नग्न हिस्सा दीपक की रौशनी में सुनहरा लग रहा था. लुली उसे थपकियां दे सुलाने की कोशिश कर रही थी. गावं वाले नई जमीन पर खेती की तैयारी कर रहे हैं एलेक्स बहुत कमजोर है. लुली उसकी सेवा कर रही है दोनों के सामने भाषा का संकट है. तबीयत में सुधार होते ही एलेक्स भी लुली के साथ खेतों में जाने लगता है. दोस्ताना व्यवहार और खुशमिजाजी से मचानघर के सभी लोगों का वह दिल जीत लेता है.

लुली उसको चाहने लगी है. एलेक्स लुली को बताता है कि उसे वापस तो लौटना ही होगा और ये भी सच है कि लुली ने उसकी जिंदगी को अपने प्यार और समर्पण से भर दिया है. यहाँ की आदिम दुनिया से में वह कैसे रह पाएगा. पर लुली के आँसू उसके लौटने के निर्णय को टाले जा रहे थे.

गाँव में एक शादी है. साँदाई गाँव का एक ताकतवर युवा है. गाँव के सारे लोग इस अवसर पर नाच गा रहे खापी रहे. तभी सरदार अपनी बेटी लुली की शादी साँदाई से करने का एलान करता है. लुली का दिल टूट जाता है. एलेक्स उलझन में पड़ जाता है. भोज के बाद सब गैलरी में सोने के लिए इकट्ठा हैं साँदाई के दोस्त उसे लुली के पास जाने के लिए ठेल रहे हैं. आखिरकार उसने अपने बालों को बांधा और सीढ़ी से ऊपर पहुंचा. लुली बिछौने पर बैठी है.सैंडई को आया देख सिमट जाती है. साँदाई उसकी मच्छरदानी के पास आ झुकता है. लुली पास ही रखी माचिस से दीपक जला देती है. यह साफ संकेत है कि उसे वह पसंद नहीं आसपास की लड़कियां उसे देख हंसती हैं. बाहर गैलरी में बैठे दोस्त उसकी हालत पर तरस खा रहे थे. आखिर लुली से उसकी सगाई हो चुकी थी.वह गाँव का सरदार बनने वाला था. अपनी जवानी में ही उसकी हथेली के पीछे पांच गोदने के निशान थे. लुली ने उसके साथ ऐसा क्यों किया.

अब सब सो चुके थे. साँदाई की बेचैनी बढ़ते जा रही थी. वह सिगरेट पिए जा रहा था. अचानक उसने एक पदचाप सुनी. लुली नदी की ओर जा रही थी. फिर उसे एक और आकृति दिखाई दी और दोनों आकृतियाँ आपस में मिल गईं. साँदाई उछल पड़ा. हाथ में पारंग ले कर वह उनका पीछा करने लगा. जब तक वह नदी तट पर पहुंचा आकृतियाँ अदृश्य हो चुकीं थीं. वह लुली के प्रेमी का सर काट देना चाहता था, अब गुस्से में उसने झटके से एक पेड़ काट डाला.

सुबह साँदाई ने सब कुछ सरदार को बताया. वह सीधे लुली के कमरे में गया और उसके गाल पर एक चाँटा जड़ दिया फिर हिदायत दी कि एलेक्स के साथ कोई सम्बन्ध न रखे.बाहर आ सरदार ने साँदाई से कहा कि वह लुली के साथ खेत चला जाये.एलेक्स ने देखा कि साँदाई लुली और अन्य लड़कियों को नाव में बैठा कर ले जा रहा है. यहाँ सामने खुली गैलरी में खड़ा सरदार उसे गहरी नज़र से घूर रहा है.

साँदाई दल बना नदी किनारे पहरा देने लगा. एलेक्स को महसूस हुआ कि उसे लुली से कितना प्यार है. इस मचानघर से बाहर निकलना भी संभव नहीं हो रहा था.इसी उहापोह में उसने किसी के आने की आहट सुनी देखा तो लुली की सहेली थी. उसने चुप रहने का इशारा कर उसे खिड़की के पास बुलाया और अपने हाथ नीचे पेड़ की ओर किए जहां लुली खड़ी थी. इससे पहले की एलेक्स कुछ कहता लुली ने उसका हाथ पकड़ा और घने जंगल की ओर भागी. अब इत्मीनान से उसने एलेक्स को समझाया कि अगरहम पांच दिन कहीं छिपे रहें और किसी को पता न चले तो यहाँ के कानून के अनुसार हम पति पत्नी स्वीकार कर लिए जायेंगे.इन दिनों में अगर पकड़े गये तो मार दिए जायेंगे ,लुली ने जहर की पुड़िया दिखाते हुए कहा कि अगर ऐसा कुछ हुआ तो वह जहर खा लेगी.

ये पांच दिन घने जंगल में लगातार भटकते बीते. छटे दिन सुबह जब वह थके हारे नदी के किनारे एक हट्टान पर सो रहे थे सांदाई ने उन्हें ढूंढ़ लिया. एलेक्स को मारने के लिए उसने जहरीला तीर चलाने की तैयारी की पर उसके एक साथी ने उसे रोक लिया क्योंकि एलेक्स ने पांच दिन लुली के साथ गुजार लिए थे. फिर भी उन दोनों को बांध मचान घर लाया गया ताकि फैसला हो सके. काफी भीड़ जमा हो गयी थी. सैंडई और उसके दोस्तों के शोरगुल के बीच लुली ने ओझा की आवाज सुनी. वह हिदायत दे रहा था कि गोरे आदमी को अगर कुछ हो गया तो सर्वनाश हो जाएगा. हाथ पाँव बंधी लुली किसी तरह एलेक्स को यह बताने के लिए घिसटती उसकी ओर जा रही थी कि ओझा उनकी तरफ है. इस कोशिश में उसके बदन की टक्कर से तेल का एक दीपक लकड़ी के फर्श पर गिरा और उसने आग पकड़ ली.लुली और अलेक्स चीखते चिल्लाते रहे. सरदार ने उन्हें बाहर निकालने की कोशिश भी की पर बढ़ती लपटें पूरे मचान घर को घेर चुकीं थीं और देखते ही देखते मचान घर जल कर राख हो गया.

निर्माता शा साहिब को कहानी बहुत पसंद आई.फौरन सारावाक की सरकार को फिल्माँकन की अनुमति के लिए संपर्क किया. पर उन्होंने यह कह टाल दिया कि सारावाक में हालात कठिन हैं. फिर अभी फसल कटाई का वक़्त है आदिवासी व्यस्त हैं. दरअसल सारावाक की सरकार इन नरमुंड शिकारियों के बारे में दुनिया को कुछ बताना नहीं चाहते थे. हर कठिनाई ध्यान में रख हम पहुँच ही गये भले ही जिलाधिकारी को फिल्म की थीम बहुत पसंद आई पर उसने साफ कहा की सरकार के आदेश हैं कि अगर हमारे खिलाफ एक भी शिकायत मिली तो हमें निकाल बाहर कर दिया जाएगा. बहुत तनाव और भय से घिरने का माहौल था. कभी फिल्म का हीरो डेविस पार्टी के बाद आधी रात मुश्किल से मिली नाव की जंजीर खोल नदी में बहने छोड़ देता है तो कभी उसकी खाट का एक पाया दलदले फर्श में धंस जाता है और वो चीखता है. वहां के मचान घरों में घूम -घूम स्थानीय कलाकार चुने जा रहे थे. सिर्फ हमारी नायिका लुली अभी तक मिली न थी. स्थानीय लोगों का दिल जीतने को मुझे डॉक्टर और पादरी भी बनना पड़ा. यूनिट के सदस्यों के लिए दवाइयों का पूरा बक्सा साथ लाया था वह स्थानीय लोगों में बांटता, उनकी अन्य परेशानियां दूर करता. नदी के तीव्र प्रवाह को फिल्माने में नाव की मोटर खराब हो गयी और हम एक टापू में फंस गये. अब कोई नाव गुजरती तो उससे मदद का ही सहारा था. घंटो बाद तीन लम्बी नावें दिखाई दीं जिनमें इवान लोग सरकारी पोशाक में थे. मेरे साथी तो डर गये कि ये नरमुंड शिकारी न हों. पर ये तो एक बारात थी जो दुल्हन को लेने उसके मचान घर जा रही थी. हमने हाथ हिलाया तो वह आए और हमें भी बारात में आने का निमंत्रण दिया. दुल्हन के मचान घर पहुँच खूब शक्ति प्रदर्शन हुआ जैसा की रिवाज था.नाच, गाना, मौज -मस्ती, खूब शराब.नगाड़े बज रहे थे लोग थिरक रहे थे. एक सुन्दर, सुगठित सुडौल शरीर वाली युवती अपने शारीरिक सौंदर्य को पूरी तरह दिखा रही थी. कमर के ऊपर उसका बदन नग्न था. वह मेरे सामने बैठी थी और शर्म से जमीन पर नज़रें गड़ाए हुए उसने गीत गाना शुरू किया. उसके बाल लम्बे थे, उसका रंग गोरा था उसकी आकृति सुन्दर थी. मुझे मेरी हीरोइन मिल गयी थी. वह राजी हो गयी.बाकी और लड़कियां भी इस शर्त पर राजी हुईं कि उन्हें हीरोइन के बराबर पैसे मिलेंगे.

शूटिंग के दौरान कुदरती प्रकोपों से हमारा संघर्ष जारी रहा. रोज की बरसात, बादलों का छाया रहना यातायात की तकलीफ, अच्छे खाने का अभाव, जोखिम से भरा भंवर का सीन. टापू तो मिल गया पर एलेक्स की नाव जहां पानी के तीव्र प्रवाह में डूबती है उसे फिल्माने में बहुत ही खतरा था इसे साँदाई ही कर सकता था. वह कुशल नाविक था और कई जगहों पर हीरो के डुप्लीकेट का कार्य भी उससे लिया जा सकता था .

सैंडई से मिलने उसके मचानघर गया तो उसने मेरा स्वागत किया और वह हर मदद के लिए राजी भी हो गया. उसने आग्रह किया कि रात में उस के घर ही रहूं क्योंकि रात को नदी के तीव्र प्रवाह को पार करना संभव नहीं. जापानियों की हुकूमत के आखिरी दिनों में छह अंग्रेज सारावाक में हवाई छतरी से उतरे उनमें से दो इवान प्रदेश की आखिरी सीमा में छुपे. यहीं साँदाई का मचान घर था.उन्होंने मदद मांगी पर साँदाई ने कोई वादा न किया.ठीक इसी समय चौदह जापानी सैनिकों के दल ने उसके मचान घर के पास डेरा डाला था. सरदार आसानी से अंग्रेजों को धोखा दे इनाम हासिल कर सकता था इसलिए अंग्रेज भयभीत थे. उस रात अँधेरे में उन्हें चप्पू चलने की आवाज आई देखा तो वह साँदाई था जो दोस्त की तरह आ रहा था या दुश्मन की तरह कुछ पता न था. उसके साथ चल रहे दो साथी एक भरी बोरी उठाये चले आ रहे थे. अब साँदाई ने बोरी खोलने का आदेश दिया.उसमें चौदह जापानियों के मुंड थे. और उस रात मैं साँदाई के साथ उसी के कमरे में सो रहा था. उसकी तलवार दीवार पर टंगी उसकी पहुंच की हद में थी. मैं भयभीत था.
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अब टापू पर कई जोखिम भरे दृश्य फिल्माये गये. विकराल नदी, तेज बहाव, कैमरा रखने की जगह के जोखिम, बिजली की परेशानी और दुनिया के सबसे ख़तरनाक नर मुंड शिकारियों को फिल्माना. उनके मचान घर की कड़ियों से उन नरमुंडो की कतार लटकी हुई थीं जो धुवें से काले हो गये थे और उनके पुराने रीति रिवाजों की याद दिला रहे थे.

फिल्म का आखिरी हिस्सा खींचने पुरानी लोकेशन पर गए तो देखा वो जगह ही पानी के तेज बहाव से दब गयी थी. अब इसे दूसरी जगह फिर खींचना था तो वहीं हमारा हीरो डेविस बुखार मैं तप रहा है। उसे छोटी माता हो गयी थी. उसे अस्पताल भर्ती कर बाकी फिल्मांकन किया. अब तीन महिने तक लगातार काम चला. एक दोपहर जिलाधिकारी ने जरूरी मिलने को बुलाया तो पता चला की डेविस एक मचान घर में गया और एक विवाहित औरत के साथ रात भर रहा. अचानक उसका पति वहां आ गया और उसने उसे देख लिया. डेविस वहां से जान बचा के भागा पर उस नरमुंड शिकारी पति ने उसका सिर काटने की कसम खाई है.जिलाधिकारी ने सलाह दी की डेविस को इस रात पेंघूलु के घर रख सुबह ही यहाँ से रवाना कर दिया जाय. यही किया. रात मैं अपने कमरे में था कि पद चाप सुनाई दी. कौन है पूछने पर उसने कहा सिबात. अब डर था की दरवाजा खोलते ही वह तलवार से वार कर देगा अंधेर में जो भी हो उसे मारेगा और फिर डेविस की तलाश करेगा. मुझे एक तरकीब सूझी. मैं जानता था की सिबात मुझे पसंद करता है इसलिए अपनी टॉर्च की रौशनी अपने चेहरे पर डाल मैंने दरवाजा खोल दिया. ये युक्ति काम कर गयी. सिबात ने मुझसे पूछा कि डेविस कहाँ है? वह उसे मेरे कमरे में ढूंढने लगा.

जब कोई न मिला तो उसने कहा कि जब भी डेविस मिलेगा तो वह उसका सिर धड़ से अलग कर देगा. मैंने उसे व उसके मित्र को शांत करने के लिए कुछ सिगरेट दीं फिर वह चला गया. सुबह होते ही जिलाधिकारी की दी तेज रफ्तार नाव से डेविस को भेज दिया.

अब मेरी शारीरिक हालत पस्त हो गयी थी.लूली मेरे लिए चाय बनाती रहती. पेंघलु व उसके साथी मिलने आए. मुझे बुखार था. उन्हें चिंता थी पर मैं ज्यादा परेशान न हुआ.उनके जाने के बाद जाने के बाद अचानक मुझे कँपकँपी शुरू हुई. कमजोरी बढ़ने गयी. प्यास लगी पर एक प्याला पानी तक न पी सका. बोलने की ताकत न रही. ऐसी हालत मैं जब मैं असहाय सा लेटा था तो सरदार पेंघूलु की पत्नी और बहिन मुझे देखने आई. मैं कांप रहा था उसने कम्बल उढ़ाया. पर कम्प काम न हुआ. अब उसने मेरे कम्बल में घुस अपने करीब- करीब नंगे बदन से मुझे ढक लिया. वह तब तक इसी हालत में रही जब तक उसके बदन की गर्मी पा मेरा कांपना बंद न हुआ. उसने ऐसा काम किया जो मेरी मां भी नहीं कर सकती थी. जब मेरी हालत ठीक हुई तो वह उठी और मेरे लिए पानी का ग्लास भरा. ऐसे मैं अकेले रहने पर मुझे डांटा. उसके जाने के बाद मचान घर के कुछ युवक आए जिन्हें एनोय ने भेजा था. मतलब माँ. मुझे वह अनाक कह पुकारती थी मतलब बेटा.

फिर लैब से रिपोर्ट आ गयी कि सब नेगेटिव सही हैं. अब वापसी की तैयारी थी. समान बंधने लगा. हर पल मचान घर की युवतियाँ, युवक, बूढ़े आते और आंखों में आंसू लिए हमें देखते. ये सहा न जाता. फिर तो जब सब रात को गहरी नींद सोये होते हम अपना सामान बांधते.
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वापसी के दिन कोई सौ लोग हमें छोड़ने आए. हमारी नाव ने किनारा छोड़ा और सरदार ने आंसू भरी आँखों से आवाज लगाई –“सलामत जालाईँ सफर सलामत हो ” मैंने सुना सारे लोगों ने इस अभिवादन को दोहराया. मैं उनके उस गीत में कहीं खो गया था जो हमारी फिल्म की नायिका बार बार गाती थी –

जिंदगी मैं ऐसे भी पल आते हैं,
जो कभी भुलाये नहीं जाते हैं.

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं.

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