लोक संगीत किसी भी स्थान विशेष के लोक की संगीतमय अभिव्यक्ति है. थोड़ा गौर करने पर हम पाते हैं कि लोकसंगीत की लय-ताल और उसमें प्रयुक्त होने वाले वाद्ययंत्र तक में उस जगह की स्पष्ट छाप होती है जिस जगह वे इस्तेमाल किये जा रहे हैं. उत्तराखण्ड (Uttarakhand) का एक ऐसा ही संगीत वाद्य (Musical Instrument) है बिणाई (Binai).
उत्तराखण्ड में हिमालय, पहाड़, नदियाँ, तालाब, झरने और जंगल आदि मिलकर एक विशेष परिवेश रचते हैं. इस परिवेश की संगीतमय अभिव्यक्ति कुछ ख़ास किस्म के साज करते हैं. यह परिवेश कई राज्यों और देशों से मिलता-जुलता भी है. यही कारण है कि भारत के हिमालयी राज्यों और आस-पास के पड़ोसी देशों के हिमालयी भागों के लोकसंगीत में ग़जब की साम्यता देखने में आती है.
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उत्तराखण्ड राज्य के लोक संगीत की आत्मा नेपाल, भूटान से लेकर स्कॉटलैंड तक के संगीत से जबरदस्त मेल खाती है. लोक धुनें और उनमें प्रयुक्त होने वाले वाद्यों में उक्त क्षेत्र के भौगौलिक परिवेश तथा लोकजीवन को अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता होती है. आप क्षेत्र विशेष के लोकसंगीत को कभी भी और कहीं भी सुनते हैं तो आपके सामने उस जगह का एक चित्र बन जाता है जहाँ का कि वह लोकसंगीत है.
उत्तराखण्ड के भौगौलिक, सामाजिक, संस्कृतिक परिदृश्य को रचने वाले संगीत को मूर्तिमान करते हैं कुछ विशेष साज जैसे मशकबीन, ढोल, दमुवा, हुड़का, कांसे की थाली और शंख आदि. जैसा कि हम जानते ही हैं कि उत्तराखण्ड का लोकसंगीत बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है. लोकसंगीत की कई विधाएं कई सारे कलाकारों के साथ ही नष्ट हो चुकी हैं. कुछ नष्ट होने की तरफ अग्रसर हैं. राज्य के लोक और सरकारों की लोककलाओं के संरक्षण में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है.
संरक्षण के अभाव में लोककलाओं के साथ-साथ यहाँ के कई पारंपरिक वाद्ययंत्र भी या तो लुप्त हो चुके हैं या फिर लुप्त होने के कगार पर हैं. सारंगी, जौंया मुरूली, बिणाई, भौंकर, नागफनी, इकतारा जैसे पारंपरिक वाद्य अब विलुप्ति की कगार पर हैं. इन्हीं में से एक बिणाई उत्तराखण्ड के लुप्तप्रायः वाद्यों में है.
बिणाई, जिसका वादन उत्तराखण्ड में लगभग विलुप्त हो चुका है, को देश-विदेश में कई अन्य नामों से जाना और इस्तेमाल किया जाता है. मोरसिंग, मुखरशंखु, मोरचंग व मोरछंग इत्यादि नामों से पहचाने जाने वाला इस वाद्य का अंग्रेजी नाम Jaw Harp है. इसे उत्तराखण्ड के अलावा राजस्थान, बंगाल, असम, कर्नाटक, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश तमिलनाडु के अलावा पकिस्तान के सिंध प्रान्त, चीन, नॉर्वे, रूस, ईरान,फ्रांस, इटली, हंगरी, जर्मनी वियतनाम तथा नेपाल के लोकसंगीत में खूब इस्तेमाल किया जाता था. अलग-अलग जगहों में इसके आकार-प्रकार में फर्क पाया जाता है. उत्तराखण्ड के अलावा अन्य जगहों पर यह कम ही सही आज भी इस्तेमाल किया जाता है. राजस्थान के लोकसंगीत में आज भी इसका बखूबी इस्तेमाल किया जाता है. इस वाद्य का इस्तेमाल मुख्यतः ताल वाद्य के रूप में किया जाता है.
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बंगाल के रविन्द्र संगीत में इसका अच्छा इस्तेमाल हुआ है. इसके अलावा भारतीय सुगम संगीत में एस डी बर्मन तथा आर डी बर्मन ने भारतीय फिल्मों में इसका इस्तेमाल किया है.
बिणाई का प्रयोग उत्तराखण्ड में मुख्यतः ग्रामीण महिलाओं द्वारा किया जाता था. मुरुली की तरह ही इसका स्वर भी विरह की वेदना को बखूबी अभिव्यक्त करता है. अतः बिणाई का प्रयोग प्रेमी-प्रेमिका या विवाहित नवदम्पति एक दूसरे से दूर हो जाने पर अक्सर किया करते थे. कहा जाता है कि बिणाई से निकलने वाला करुण स्वर वादक एवं श्रोता दोनों को घंटों मंत्रमुग्ध कर दिया करता था.
बिणाई लोहे से बना एक छोटा सा वाद्य है जिसे स्थानीय लोहारों के द्वारा बनाया जाता था. आकार में यह घोड़े की नाल से मिलता-जुलता है. इसमें लोहे की आपस में जुड़ी दो मोटी चिमटियों के बीच एक पतली व लचीली पत्ती लगी रहती है. चिमटी के दोनों सिरों को दांतों के बीच दबाकर लोहे की पतली पत्ती में हाथों से कम्पन पैदा किया जाता है. इस कम्पन से वादक की फूंक के टकराने से एक सुरीली आवाज निकलती है. फूंक को अन्दर बाहर खींचने तथा उसमें दबाव घटा-बढ़ाकर इस सुर में विविधता पैदा की जाती है. अब जबकि लोगों द्वारा कतिपय कारणों से लोहार का व्यवसाय ही छोड़ दिया गया है तो इस वाद्य को बनाने वाले ही नहीं रहे.
उत्तराखण्ड में अब इस वाद्य का इस्तेमाल कहीं नहीं दिखाई देता. आज से 3-4 दशक पूर्व तक बिणाई उत्तराखण्ड के गांवों में खूब इस्तेमाल की जाती थी. हमने कई वाद्यों के साथ बिणाई को भी खो दिया है. स्थिति यह है कि वाद्य यंत्रों के बारे में लिखी गयी ढेरों किताबों और इन्टरनेट में बिणाई उत्तराखण्ड के वाद्य के रूप में दर्ज नहीं है. भारत के अन्य राज्यों तथा विदेशों में भी इसकी अन्य नामों के साथ उपस्थिति दर्ज की गयी है.
-सुधीर कुमार
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उत्तराखंड से पब्लिश्ड/पोस्ट होने वाली जितनी भी वेबसाइट हैं, उनमें सबसे बेहतरीन। पांडे जी बधाई ।
(दिनेश कंडवाल/देहरादून)
अशोक तुम बांध देते हो।