उत्तराखण्ड में भूमिया देवता के मंदिर प्रायः हर गाँव में हुआ करते हैं. भूमिया देवता को भूमि का रक्षक देवता माना जाता है, इसी वजह से इन्हें क्षेत्रपाल भी कहा जाता है. खेतों में बुवाई किया जाने से पहले पहाड़ी किसान बीज के कुछ दाने भूमिया देवता के मंदिर में बिखेर देते हैं. विभिन्न पर्व-उत्सवों के अलावा रबी व खरीफ की फसल पक जाने के बाद भी भूमिया देवता की पूजा अवश्य की जाती है. फसल पक जाने पर फसल की पहली बालियाँ भूमिया देवता को ही चढ़ाई जाती हैं और फसल से तैयार पकवान भी. सभी मौकों पर पूरे गाँव द्वारा सामूहिक रूप से भूमिया देवता का पूजन किया जाता है. मैदानी इलाकों में इन्हें भूमसेन देवता के नाम से भी जाना जाता है. भूमिया देवता की पूजा एक प्राकृतिक लिंग के रूप में की जाती है. भूमिया देवता के जागर भी आयोजित किये जाते हैं.
पर्वतीय अंचल के अलावा तराई की थारू व बुक्सा जनजातियों में भी भूमिया देवता की बहुत ज्यादा मान्यता है. इन जनजातियों में इन्हें भूमिया व भूमसेन दोनों ही नामों से जाना जाता है. थारू जनजाति द्वारा इनके मंदिर की स्थापना पीपल या नीम के पेड़ के तले ऊंचा चबूतरा बनाकर की जाती है.
बुक्सा जनजाति भूमसेन मंदिर की स्थापना गाँव के मुखिया के घर के सामने नीम या किसी अन्य पुष्पित वृक्ष के तले करती है. मुखिया द्वारा रोज इसकी पूजा की जाती है. हर त्यौहार और फसलचक्र पर देवता को भेंट भी चढ़ाई जाती है.
तराई क्षेत्र में भी भूमसेन और भूमिया देवता को कृषि और भूमि का रक्षक देवता माना जाता है. यहाँ इनका सम्बन्ध क्षेत्रीय सिद्धपुरुषों से माना जाता है तथा इनके बारे में कई जनश्रुतियां भी प्रचलित हैं.
कहीं-कहीं भूमिया देवता का मंदिर हर गाँव में न बनाकर कुछेक गाँवों के बेचों-बीच बनाया जाता है. कहीं-कहीं रबी की फसल की कटाई के बाद भूमिया देवता को पशुबलि देकर भी पूजा जाता है. भूमिया देवता को विभिन्न आपदाओं का संरक्षक देवता भी माना जाता है.
पर्वतीय अंचल में कई गाँवों के नाम भी भूमिया देवता के नाम पर रखे जाते हैं.
अपसंस्कृति की मार से भूमिया देवता भी अछूते नहीं रहे. आधुनिकीकरण की दौड़ में भूमिया देवता के ग्राम्य देवता से सामान्य देवता में बदलते जाने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है.
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(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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