उत्तराखंड एक कृषिप्रधान राज्य है. उत्पादन की दृष्टि से भले यहां खेती बहुत कुछ न देती हो लेकिन राज्य की अधिकांश जनसंख्या का मुख्य व्यवसाय कृषि रहा है. इसी कारण यहां के तीज-त्यौहार-परम्परा फसल की बुआई-कटाई के समय के आधार पर ही होते हैं. जैसे चैत्र के माह में खेती का काम कुछ हल्का होता है तो यहां चैत के महिने में बेटी को भिटौई देने की परम्परा है.
भिटौई, भिटौल, रवाट के नाम से जाने वाली इस परम्परा के तहत अपनी बेटियों को चैत्र (चैत) के महिने खाने का सामान दिया जाता है. इस परम्परा से जुड़ी विस्तृत जानकारी व कथा यहां पढ़े – भिटौली के महीने में गायी जाती है गोरिधना की कथा
आज भी पहाड़ों में यह परम्परा निभाई जाती है. पहाड़ों में गर्मियों में अनेक जंगली फल जैसे काफल, किलमोड़े, हिसालू, भिमोरा आदि लगते हैं. काफल और हिसालू तो पहाड़ से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है. ये जंगली फल उत्तराखंड के अलावा हिमांचल प्रदेश, नेपाल और पूर्वोत्तर राज्यों में भी होते हैं.
सामान्यतः 1300 से 2100 फीट की ऊंचाई पर मध्य हिमालय में लगने पर वाले ये फल वैसाख के महीने पकते हैं. अंग्रेजी महीनों में घनी आबादी वाली जगह में अप्रैल के मध्य में और ऊंचे ठण्डे इलाकों में यह मार्च के अंत तक पकते हैं.
काफल और हिसालू भी पूरी तरह से वैसाख के महिने ही पकने वाले फल हैं. पहाड़ों में चैत के महीने हल्के पके काफल और हिसालू भी देखने को मिलते हैं इन्हीं काफल और हिसालू को भिटौई काफल और भिटौई हिसालू कहते हैं.
मान्यता के अनुसार भिटौई काफल को तब तक तोड़ा या खाया नहीं जाता है जब तक कि बेटी को भिटौई न दे दी जाय. चैत के महिने में पहाड़ों में होने वाला चैतोल नाम का त्यौहार या मेला भी भिटौई की परम्परा से ही जुड़ा है.
चैत माह ही पूर्णिमा को होने वाले चैतोल त्यौहार या मेला के विषय में मान्यता है कि इस दिन शिवजी अपनी बहन को भिटौई देने स्वयं हिमालय से उतरते हैं.
– काफल ट्री डेस्क
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