अगर आप उत्तराखंड से हैं तो आपके साथ बेड़ू पाको अपने आप जुड़ जाता है. उत्तराखंड का व्यक्ति अपना परिचय देता है और सामने वाला बेड़ू पाको अपने आप जोड़ लेता है.
वर्ष 1955 में सोवियत संघ (वर्तमान रुस) दो बडे नेता ख्रुश्चेव और बुल्गानिन भारत यात्रा पर आये. उनके सम्मान में तीनमूर्ति भवन में आयोजित एक समारोह आयोतित किया गया. अंतराष्ट्रीय स्तर के इस समारोह में पहली बार बेड़ू पाको बारामासा गाया गया. समारोह के बाद तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे न केवल सर्वश्रेष्ठ लोकगीत चुना बल्कि इसके गायक मोहन उप्रेती को बेड़ू बॉय नाम भी दे दिया. कहा यहां तक जाता है कि इस गीत को सुनने के बाद पंडित नेहरु ने काफल खाने की इच्छा व्यक्त की जो उनकी उत्तराखंड की अगली पहली यात्रा पर पूरी भी की गयी. बताते हैं बेड़ू पाको भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का सबसे पंसदीदा लोकगीत रहा.
ब्रजेंद्र लाल शाह अपने एक संस्मरण में बताते हैं कि एक शाम मोहन उप्रेती अल्मोड़े में उदेसिंह की चाय की दुकान में बैठे टेबल पर लगातार कुछ पंक्तियां गा रहे थे. उसी समय वहां से गुजर रहे ब्रजेंद्र शाह को उन्होनें वहां बुलाकर एक नई धुन में कुछ पंक्तियां सुनाईं –
बेड़ू पाको बारामासा …
हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.
रूणा भूणा दिन आयो
हो नरैण पुजा म्यारा मैता मेरी छैला.
अपने एक साक्षात्कार में मोहन उप्रेती की पत्नी नईमा खान उप्रेती ने बताया था कि मोहन उप्रेती ने यह गाना इससे पहले किसी और के मुंह से सुना था. लेकिन वह बहुत ही धीमी धुन में था. मोहन उप्रेती ने धुन को द्रुत गति दी थी. ब्रजमोहन शाह ने आस-पास किसी कागज के न होने पर पास में सिजर ब्रांड की सिगरेट के खाली पड़े डिब्बे को फाड़ा व उदेसिंह से उसके हिसाब लिखने वाली पेंसिल मांगी और गाने को आगे बढाने की कोशिश की. ब्रजमोहन शाह ने कुमांउनी कवि चंद्रलाल वर्मा की कुछ न्यौलियों और अपनी कुछ पंक्तियां जोड़ी. इसप्रकार उदेसिंह की चाय की दुकान की उसी खुरदुरी टेबल पर तैयार हुआ उत्तराखंड का पहला अघोषित राज्यगीत.
इस गीत को पहली बार वर्ष 1952 में नैनीताल के राजकीय इंटर कालेज में सुनाया गया. शुरुआत में यह गीत मोहन उप्रेती हुड़के की थाप के साथ प्रस्तुत करते थे. बेड़ू पाको गीत को और अधिक लोकप्रियता गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज साथ जुड़ने के साथ मिली. इस गीत को पहली बार गाने वाली महिला गायिका संभवतः नईमा खान उप्रेती ही हैं.
गोपाल बाबू व नईमा खान उप्रेती के बाद इस गीत को मिली लोकप्रियता के चलते यह अनेक रुपों में पेश किया गया. इसके अनेक रिमिक्स पेश किये गये जिनमे कुछ को बाजार में सफलता भी मिली. लेकिन गोपाल बाबू के मूल गीत के आस-पास भी वर्तमान तक कोई नहीं पहुंच पाया है. आज भी आप विश्व के किसी भी कोने में गोपाल बाबू गाये बेड़ू पाको को सुन लिजिए आपकी आंखें नमी से भर जायेंगी.
बेड़ू उत्तराखंड में होने वाला एक प्रकार का फल है. गाने के बोल अनुसार यह एक ऐसा फल है जो बारह महीने पकता है. फाईकस जीनस के अंतर्गत आने वाला यह महत्वपूर्ण जंगली फल निम्न उंचाई से मध्य उंचाई के बीच उगता है. इसे अंग्रेजी में वाइल्ड फिग भी कहा जाता है. उत्तराखंड के अतिरिक्त यह जम्मू कश्मीर, हिमांचल प्रदेश, पंजाब राज्यों में भी पाया जाता है. भारत के अतिरिक्त यह नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सोमालिया, इथोपिया और सूडान में भी मिलता है.
विश्व में बेड़ू की लगभग 800 प्रजातियॉ पाई जाती हैं. बेड़ू का पूरा पौधा उपयोग में लाया जा सकता है. यह दवाईयां बनाने के दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है. उत्तराखंड राज्य में बेड़ू का किसी भी प्रकार का व्यवसायिक उत्पादन नहीं होता है. ऐसा किया जा सके तो यह जंगली फल राज्य के लोगों के लिये आजीविका का एक माध्यम हो सकता है.
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"बेडू पाको "गीत पर माध्यमिक स्कूल में समूह नृत्य किया था । 1973 में मालव कन्या माध्यमिक शाला , महू नाका - इंदौर ।
" बेडू पाको बारहमासा/ हो नरैणा काफल पाको चैता मेरी छैला/अल्मोड़ा की नंदरानी " इतना भर याद रहा। आज पढ़ा तो मन प्रसन्न हो गया।
बाल्यावस्था से ही हम इस सुंदर धुन के गीत को न सिर्फ सुनते आ रहे हैं बल्कि काश और अनायास अवस्था में गाते हुए आ रहे हैं, दिल्ली के राजपथ पर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के अवसर पर कुमाऊं रेजीमेंट की ये बेबाक धुन हमको गौरवान्वित करती है जब हम यह गीत सुनते हैं। इसके अलावा बेडू पाको बारो मासा गीत यह सिर्फ पहाड़ में ही नहीं मैदान में भी दूर-दूर तक लोगों के दिलों में बसा है, आपके द्वारा इस गीत की मूल उत्पत्ति से लेकर अंतिम समय तक किए गए प्रयोगों की दास्तान सुनकर बहुत अच्छा लगा। इस तरह की खोजी पत्रकारिता के लिए काफल ट्री के प्रधान प्रबंधक संपादक सहित पूरी टीम को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं
उदय सिंह "उद्दा" की चाय व पहाड़ी मिठाई की दुकान जाखन देवी मंदिर के पास हुआ करती थी। उनके मलाई के लड्डू प्रसिद्ध थे।
काफल को संस्कृत में कायफल कहते हैं और अंग्रेज़ी में bayberry। Botanical name Myrica Esculenta। वैसे तो यह वैशाख में पकता है, लेकिन गाने में चैता फिट होता है।