Featured

कत्यूर राजधानी बैजनाथ पर एक महत्वपूर्ण लेख

कौसानी के डॉडे से सामने दूर नगाधिराज के श्वेत हिममण्डित सैकड़ों शिखरों की श्रेणियाँ दिखाई पड़ती हैं या पर्वत निः श्रेणियों के निचले भाग में विशाल कत्यूर उपत्यका लेटी पड़ी है- सोई हुई है. यह कहना आज के लिए बिलकुल यथार्थ है, क्योंकि अलमोड़ा के विद्या-उद्योग में यह सबसे पिछड़े हुए स्थानों में है. यहाँ की सदा-स्रोतोवहा नदियों के जल का पूरा उपयोग सींचाने के लिए भी नहीं होता, फिर पनबिजली के लिए उसके उपयोग की क्या आशा? हाँ, प्राचीन पन्थी कत्यूर उपत्यका का आधुनिक युग से सम्बन्ध जोड़ने के लिए मोटर-सड़क गोमतीतट (गरुड़) तक पहुँच गयी है और यदि दिल्ली से रुपया वर्षा की आशा छोड़ कत्यूर वासियों के बाहुबल तथा कूर्माचलियों के प्रज्ञाबल को भी धन समझा गया. होता, तो हजारों रुपया लगा बागेश्वर की ओर जहाँ-तहाँ बनी सड़कों को बीच में ही छोड़ना नहीं पड़ता. लेकिन कब तक ऊपर-ऊपर चलते हम पैर के नीचे छिपी निधि को नहीं पहचानेंगे? मोटर टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नीचे उतरती जा रही थी, जब बंज (बाज) वृक्षों की बहुलता का स्थान चीड़ ने लिया था, फिर खेत बढ़ने लगे. गोधूलि का परिचय हिमालय के रजत शिखरों पर प्रतिभासित स्वर्ण किरणें ही नहीं, बल्कि जंगल से गाँव की और लौटती पहाड़ी छोटी-छोटी गायें भी दे रही थी. अभी सूर्य असली अस्ताचल के पीछे नहीं पहुँच पाये थे कि हम गरुड़ बाजार में दाखिल हो गये.
(Baijnath Temple Bageshwar Uttarakhand History)

गरुड़ किसी समय गोमती के इस पार एक छोटा सा गामड़ा था किन्तु नयी सभ्यता जंगल में नये नगर बसाती, पुराने को उजाड़ती है पुराना कत्यूर तो खैर पहिले ही उजड़ चुका था. गरुड़ अब एक बड़ा बाजार है. वहाँ तरह-तरह की सैकड़ों दुकानें हैं. तिब्बत और बद्रीनाथ तक के लिए माल लारियों पर लदकर यहाँ आता है. समीपतम मोटर अड्डा होने से क्यों न बदरीनाथ के व्यापार की धार इधर मुड़ जाय. तिब्बती व्यापार के इजारेदार कितने ही भौटान्तिक लोगों की भी यहाँ दूकानें है और कितनी ही गढ़वालियों की भी. मोटर अड्डे पर पहुँचते ही भारवाहक दौड़े. हमारे लिए गरुड़ अपरिचित स्थान मालूम नहीं हुआ, क्योंकि हमारे साथी तथा पथप्रदर्शक उदीयमान तरुण वकील श्री हरिश्चंद्र जोशी थे, जिनके मुवक्किल यहाँ मौजूद थे. बिस्तरों का चार्ज दूसरों ने लिया. हमारे गिर्द कितने ही भद्रपुरुष एकत्र हो गये, जिनमें श्री जयवल्लभ ममगाई के सौहार्द और सहायता हमारे लिए सदा स्मरणीय रहेगी वह साठ वर्ष के बूढ़े हैं, लेकिन उन्होंने अपने सारे केश धूप में नहीं, देश सेवा में सफेद किये हैं. धन कमाने का रास्ता छोड़ गरीबी को अपनाया. अब भी वह उसी पर आरुढ़ और बहती गंगा में डुबकी लगाने वाले अपने साथियों से कहीं अधिक शिक्षित, संस्कृत तथा देश देखे होने पर भी यह सब कुछ.

हमारे रहने का प्रबन्ध डाकबंगले या किसी और जगह न करके बैजनाथ के मन्दिर समूह के बीच पुरातत्त्व विभाग द्वारा स्थापित मूर्ति-संग्रह कुटी के ऊपर किया गया था, यह अच्छा ही था. यहाँ हमें अपने आराध्य देवताओं में दो बार नहीं, चौबीसों घण्टे रहना था. गरुड़ से यह स्थान एक मील के करीब होगा. बाजार से निकलने के बाद भी सड़क पर जहाँ-तहाँ दूकानें हैं. खेतों तथा नाले को पार हो अन्त में गोमती का लोहे का झूला पुल आता है. यह प्रथम विश्व युद्ध के समय बनकर तैयार हुआ था और इसके बनाने में बैजनाथ के न जाने कितने उजाड़ मन्दिरों को अपने चिह्नमात्र को भी लुप्त करने के लिए तैयार होना पड़ा. बैजनाथ के कितने ही देवताओं को वरुणा के पुल (बनारस) में सारनाथ के देवताओं की भाँति नींव बनना पड़ा या नहीं, नहीं कहा जा सकता.

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेज हिमालय के इस अंचल की आबोहवा तथा धनागम के सहज स्रोतों पर मुग्ध हो इसे अंग्रेजों का उपनिवेश बनाना चाहते थे, किन्तु हिमालय आस्ट्रेलिया या दक्षिण अफ्रिका की भाँति न निर्जन था, न आदिम अवस्था में ही. इसलिए उनका स्वप्न इतना ही भर वास्तविकता का रूप ले सका कि आज 1950 के उत्तरार्द्ध में मसूरी, नैनीताल जैसे स्थानों में हमारे सारे पहाड़, सारी सड़कें, सारे मुहल्ले ही नहीं, सारे घर अंग्रेजी नामवाले हैं. हिन्दू ऑग्लियन शासकों का जब तक बोलबाला रहेगा, तब तक राष्ट्रभाषा अंग्रेजी की भाँति भारतभूमि को अपवित्र करने वाले यह नाम कलंक भी बने रहेंगे. अस्तु, किसी समय कौसानी के आसपास चाय के बगीचे लहलहा रहे थे, जगह-जगह अंग्रेजों के बंगले थे. उस समय बैजनाथ के खण्डहरों से अरक्षित पड़ी न जाने कितनी मूर्तियाँ उठ गयी होगी तथा आज पृथ्वी के किस संग्रहालय या निजी घरों को अंलकृत करती होगी. आज यहाँ जो कुछ बच रही है वह इस लूट-खसूट की अवशेष है. पुरातत्त्व विभाग ने अच्छा किया जो यहाँ एक छोटा-सा संग्रहालय बना उसमें 28 मूर्तियाँ एकत्र कर दी, जिनमें बूटधारी सूर्य मूर्तियाँ कला की दृष्टि से ही नहीं, कत्यूरियों की शकवंशिता के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.
(Baijnath Temple Bageshwar Uttarakhand History)

उस शाम को भी बैजनाथ मन्दिर समूह का सरसरी दर्शन किये बिना हम नहीं रह सके. सदानीरा गोमती पास ही बहती है, किन्तु कम से कम यहाँ उसने अपनी हिंसक वृत्ति को छोड़ रखा है, नहीं तो अ-दुर्गबद्ध ये मन्दिर समूह सहस्राब्दी से यहाँ खड़े न रहते. परले पार नदी डाक बंगलेवाली पहाड़ी की जड़ से टकराती है, फिर मुड़ाव पर गहरा छोटा सरोवर बना देती है. इस तीर्थ में डुबकी लगाकर स्नान किया जा सकता है. इसकी मछलियाँ राजरक्षित और धर्मरक्षित भी है. इसलिए मत्स्य प्रेमियों को जिनकी संख्या यहाँ कम नहीं है ऊपर या नीचे जाकर घात लगानी पड़ती है. झूले के इस पार भी पाँच-सात दुकानें हैं. जान पड़ता है, सारे हिमालय ने तराजू की डण्डी थाम ली है. चाहे दार्जिंलिंग जाइये या नेपाल, अलमोड़ा जाये या गढ़वाल, सर्वत्र मील-मील, आप-आप मील पर छोटी छोटी दुकानें रखे दिनभर लोगों को अगोरते देखेंगे. मुझे तो यह समझना भी मुश्किल हो जाता है कि जहाँ घर पर दुकानें खुल गयी है, वहाँ खरीदने वाले कहाँ से आते है. वैसे हमारे जैसे यात्रियों की दृष्टि से यह अच्छा है, इन दुकानों में तुरन्त चाय मिल जाती है, यद्यपि चीनी की चोरबाजारी के कारण अब बहुधा गुड़ पर सन्तोष करना पड़ता है. कितनी ही दूकानों में थके-माँदे मुसाफिरों को आश्रय मिल जाता है और अगर अक्ल सहूर हो तो पका पकाया खाना भी मिलना कठिन नहीं है.

चाय हमारे लिए दुकान से आ गयी. राम-रसोइयाँ धीरे-धीरे बननेवाली थी. उसकी हमें चिन्ता नहीं थी. हाँ, यह देखकर हो रहा था कि खाद्य सामग्री की कमी तथा मँहगाई के कारण अब हमारी परम्परागत आतिथ्य की भावना बड़ी तेजी से लुप्त होती जा रही है. यहाँ पहाड़ के देहात में जब कद्दू का सांग आठ आना सेर बिक रहा हो, तो किस बल पर किसी को आतिथ्य करने की हिम्मत होगी? गृहपति से भी बढ़कर धर्म संकट तो आज अतिथि के लिए है, वह अपना भार किसी के ऊपर लादा जाता कैसे देख सकता है? सौभाग्य से हमें किसी आदमी का नहीं बल्कि रुहेलों द्वारा अन्तिम बार ध्वस्त तथा दुर्दशाग्रस्त देवताओं का अतिथि बनना पड़ा, जिनके पास ‘तृणानि, भूमि, उदक’ तो पर्याप्त थे, किन्तु उनकी “वाक् चतुर्थी” का काम खुद हमें ही करना था.
(Baijnath Temple Bageshwar Uttarakhand History)

बैजनाथ (वैद्यनाथ) का पुराना नाम कार्तिकपुर (कार्तिकेयपुर) था, जिसका अपभ्रंश आज इस सारी गोमती उपत्यका का नाम है. कत्यूरी राजाओं की पुरानी राजधानी जोशीमठ (जोशिका) थी, जहाँ के साथ सम्बन्ध मोटर के कारण अब फिर व्यापार द्वारा हो गया है और दोनों के बीच में 90 मील के अन्तर को आदमी 6 दिन में आसानी से पार कर सकता है. शक्ति के हास तथा राज्य के छिन्न-भिन्न होने पर यह बैजनाथ शिव का धाम (वैद्यनाथ) नये कार्तिकपुर के नाम से एक शाखा की राजधानी बना. यहाँ नवीं दसवीं शताब्दी की (प्रतिहारयुगीन) मूर्तियाँ पर्याप्त है, जिसकी पुष्टि तत्कालीन शैव चिह्नों (मुख लिंग तथा ऊर्ध्व लिंग) वाले लकुलीश सम्प्रदाय की प्रधानता से भी होती है.

जान पड़ता है, कत्यूरी शासन के मध्याकाल में भी वैद्यनाथ एक महत्त्वपूर्ण स्थान था. शायद उस काल में सारी काली (सरयू) तथा उसकी शाखाओं की उपत्यकाओं का उपरिक (राज्यपाल) यहीं रहता था. बैजनाथ के एक दर्जन मन्दिरों में मुख्य मन्दिर की निचली दीवारें भर रह गयी हैं, जिन पर पुरातत्तत्त्व विभाग ने टिन की छत डलवा दी है. मूर्तिभजकों द्वारा अनेक बार मान मर्दित शिवजी महाराज अब भी भक्तों के पूजनीय है, किन्तु लकुलीशों के पुराने मुख-लिङ्ग या हरगौरी की जगह अब एक साधारण सा शिवलिंग धारा संचित रखा है.

बैजनाथ की सर्वोत्तम मूर्ति- भगवती यहाँ द्वारपाल की भाँति द्वार पर खड़ी कर दी गयी है. प्रायः पुरुष प्रमाण यह मूर्ति तत्कालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है. मन्दिरों में वामणी देवल अधिक सुरक्षित अवस्था में है. मूल मन्दिरों के बाहर बहुत-सी खण्डित मूर्तियाँ है, जिनमें एक अर्धासन मारे कुबेर जैसी मूर्ति है, जिसे ही शायद लोगों ने भ्रम से बुद्ध की मूर्ति समझ लिया. संग्रहालय में हरगौरी और देवी की कई मूर्तियां कत्यूरियों के ‘परममाहेश्वर’ होने के गर्व की पुष्टि करती हैं. लकुलीश पाशुपतों के अवशेष के बाद नाथ-योगियों को महन्ताई रही, जिसका परिचय पास के मन्दिर पर उत्कीर्ण ‘भयंकरनाथ जोगी’ वाक्य देता है.
(Baijnath Temple Bageshwar Uttarakhand History)

राहुल सांकृत्यायन का यह लेख पहाड़ पत्रिका से साभार लिया गया है. ‘राहुल स्मृति’ नाम से 1994 में यह विशेष अंक निकाला गया था. पहाड़ हिमालयी समाज,संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर केन्द्रित भारत की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में है जिसका सम्पादन मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा  किया जाता है.

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

3 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

1 week ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

1 week ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

1 week ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

1 week ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

1 week ago