जरूरत है जरूरत है… सख्त जरूरत है !
इसके पहले मैं गंभीर गायन को बड़ी दी के `मेरे जल्फ़ को समझकर ज़रा बिजलियाँ गिराना’ से रिलेट करता था और सुगम संगीत को लाईट जाने के बाद छीना-झपटी तक उतरी हुई गला फाड़ अन्ताक्षरी से. लिरिक्स को दीदीयों की ही पुरानी डायरी के उन चार भागों से समझता था जिसके पहले भाग में भजन, दूसरे में गज़ल, तीसरे में फ़िल्मी और आख़िरी पन्नों का सबसे बड़ा भाग घेरते हुए बन्ना-बन्नी के गाने होते थे जिन्हें किसी भी कार्यक्रम में दीदियाँ और कार्यक्रम खत्म हो जाने के बाद हम भाई लोग चीख-चीख कर गाते थे. तब हमारे लिए रीमिक्स का मतलब `मेलास कश्इ रीमे नजा राज लबूक रक लो’ हुआ करता था (तब ये बताना भी नहीं पड़ता था कि ये `सलामे इश्क मेरी जान ज़रा कबूल कर लो है’). गायन संबंधी इससे आगे की टेक्नीकल जानकारी मुझे एटीआई प्रवास के दौरान हुई और पहली बानगी मिली तीसरे और चौथे आधारभूत कार्यक्रम के प्रशिक्षणार्थियों के मिलन कार्यक्रम के दौरान.
जिस किसी ने भी इस समागम की संकल्पना प्रस्तुत की थी उसे साधुवाद क्योंकि अपने बैच से फुर्सत पाकर हम दूसरे बैच से मिले और पता चला कि उधर भी इधर जैसा ही हाल है. grass is not greenar at the other side of the fence. उधर भी वही मिमिक्री, वही खिलंदड़ापन, वही पर्चियां. उधर भी माइनोरिटी में वैसे ही केटीपीज़ (keen type probationers).
तब ये मलाल नहीं था, अब है कि उधर के कुछ लोगों के साथ मैं ज्यादा समय नहीं बिता पाया. उनमें नवनीत पांडे, ललित मोहन रयाल, चेतन, श्याम और एकता शामिल हैं. बाकी लोगों को दिल पे लेने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि बहुतों के साथ खूब `समय बिताया है’ (इसे औपचारिक रूप से `बर्बाद किया है’ भी पढ़ सकते हैं- मर्जी आपकी). इनका जिक्र इसलिए क्योंकि ये `भी’ कहीं न कहीं उस किरदार से नीचे उतरने का माद्दा रखते हैं जिसे ओढ़कर बैठना हम सबके लिए नियत है और इतने सालों के बाद बहुत से साथियों ने जाने किस मजबूरी में इसे `नीयत’ में तरमीम कर लिया है.
तो उस दिन सब से मुलाक़ात हुई. खासी मुक्का-लात हुई. पहली तो इस बात पर कि वेनू क्या होगा. फिर जंग छिड़ी कम्पेयरिंग को लेकर. मेहरा जी अपने `जिंदगी की साम’ के साथ जीत गए. शेरो शायरी की विकीपीडिया साबित होने वाले मेहरा जी की प्रतिभा उस दिन पूरे शबाब पर थी. उन्हें सुनना खासा रोचक है. तलफ्फुज की सीमा में नहीं बंधते वो. `वो आदमी है साम का अखबार नहीं है.’ टहलते टहलते शे`र कहते हैं (अदब के अनुसार पढ़ते हैं) शे`र कहते-कहते बीच बीच में वो अपने दोनों हाथ भी ऊपर उठा देते हैं जैसे अम्पायरिंग कर रहे हों और सहवाग ने अभी छक्का मारा हो, फिर अचानक से दोनों हाथ रानों पर पटक देते हैं…फटाक! ये अहसास दिलाने के लिए कि अब ताली बजाने से काम नहीं चलने वाला ताली पीटने का समय आ गया है. उन्होंने एक एक करके सभी को बुलाया और सबने अपनी प्रतिभा का लोहा ठोंका, पीटा और मनवाया. कुछ ने तो बाकायदा लोहे की नाल ही बना डाली.
मैंने भी दुस्साहस के साथ एक साथ ही दो प्रतिभाओं का भौंडा प्रदर्शन कर डाला. पहली तो ये कि मैंने अपना परिचय वी के सिंह साहब की मिमिक्री करते हुए दिया जिसे जानने वालों ने मुस्कुरा कर और जो नहीं जानते थे उन लोगों ने बड़े आश्चर्य के साथ लिया,- `हैं… ये लड़का ऐसे बोलता है हाथ मसल मसल कर?’ दूसरी प्रतिभा गायन की थी. मैंने गला फाड़-फाड़ कर (जो बाद में अमित ने ठहाके लगाते हुए अपने मुह को फाड़कर बताया था) `आते जाते हँसते गाते’ सुनाया और ये सोचकर संतुष्टि की सांस ली कि मैं असुर और बेताल से हटकर कोई चीज हूँ.
आनंद ने अपनी वही `पुरानी जींस’ पहनी जो हर मौके-बेमौके वो उलट पुलट कर पहनते रहते हैं. भवों को टेढ़ा और माथे पर गिरती लटों को झटककर पीछे करते हुए उन्होंने वही शर्त रखी जो अली हैदर अपनी स्टेज परफोर्मेंस के दौरान रखते हैं `एक शर्त पर गाऊंगा आप भी मेरे साथ यादें-यादें कहेंगे’ कई लोगों खासकर लड़कियों ने झट उठा ली ये शर्त और यादें यादें करने लगीं जबकि बहुत से लड़कों ने मन में शर्त की जगह हूक सी उठाई कि काश हमें भी गिटार बजाना आता. (कांडपाल ने तो बाकायदा सीखना शुरू भी कर दिया था).
ललित मोहन रयाल की भी बारी आई. उन्होंने थोड़ा ना-नुकुर किया. बड़े कलाकार करते भी हैं. फिर परम्परानुसार गला खंखारा और आदेशात्मक रूप से आनंद से कहा कि `भईए गिटार बजाओ.’ फिर नोट लिया बी-माइनर या ऐसा कुछ, और लगा कि आलाप लेने वाले हैं. उन्होंने नहीं लिया ज़रा सी हमिंग की और अंतरे से गाना उठाया, वहीं पड़ा हुआ था शायद… `हंसी हजारों भी हों खड़े, मगर उसी पर नजर पड़े’… लोग नजर के पड़ने की दिशा में देखने पर आमादा हुए लेकिन, लेकिन बड़ा कलाकार आँखे बंदकर गर्दन हिलाकर गाता है. नजरों को फालो करने में साल डेढ़ साल का वक्त लग गया. `ज़रूरत है ज़रूरत है शीरीमती की, कलावती की’… लोग महबूब की ज़रूरत रखते हैं इन्होने सीधे श्रीमती की रख ली. गाना काम कर गया. रूचि तिवारी रूचि मोहन रयाल बन गईं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
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