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एक उत्सवधर्मी देश जब त्रासदी से गुज़रता है

हमारे देश को उत्सवों का देश कहा जाता है. हमारी उत्सवधर्मिता का लोहा दुनिया मानती है. हमारे जलसों में दुनिया शरीक होती है. हमने अपनी-अपनी कक्षाओं में होली पर निबंध लिखे. दीवाली पर भाषण दिए. हमारे जीवन की पाठशाला में उत्सव मनाने की जाने कितनी ही बेलाएं आई. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ने हमें दुखों और आपदाओं में शामिल होना और उनसे जूझना सिखाया हो. पीड़ाओं और अवसादों की ज़मीन पर हमने खुद को एक व्यक्ति के तौर पर हमेशा अकेला खड़ा पाया है. समाज के तौर पर तो दूर की बात, पारिवारिक और निजी जीवन में भी पीड़ाओं और अवसादों से निपटने के पाठ हमें कभी नहीं पढ़ाए गए. शायद इसलिए अपने जीवन में त्रासदी की झलक पाते ही हम भीतर तक सिहर उठते हैं. हमें मालूम ही नहीं होता कि ऐसे हालातों में अब क्या करना है. किससे मदद लेनी है. हम ऐसे लम्हों में खुद को निरीह और असहाय महसूस करने लगते हैं. आर्थिक रूप से हम जितने सबल होते जाते हैं, ऐसे लम्हों में हमारी दुर्बलताएँ उतनी ही उभरकर सामने आने लगती हैं.
(Article by Umesh Pant)

हमारे जीवन में सिर्फ़ ईद, क्रिसमस या फिर होली, दीवाली की ख़ुशियां ही नहीं बल्कि आपदाओं, बीमारियों और महामारियों के भी दौर आएँगे ये हमें कभी किसी कक्षा में नहीं सिखाया गया. हमें कभी नहीं बताया गया कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब हमारे बहुत करीबी इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले जाएंगे. हम स्वभाव से सामान्य स्वाभाविक घटनाओं को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन जो आकस्मिक है, जो हमारे जीवन में अचानक घट जाता है उस घटना के साथ हमें कैसा व्यवहार करना है यह हमें कभी कहीं नहीं बताया गया. हम ऐसी आकस्मिक दुर्घटनाओं के लिए न व्यक्तिगत रूप से तैयार हो पाए, न ही एक व्यवस्था के तौर पर हमने ऐसी त्रासदी से निपटने की तैयारियाँ की.

आज देशभर के लाखों लोग कोविड नाम की इस महामारी की चपेट में आ रहे हैं. असामयिक मृत्यु का एक विकराल उत्सव इस देश में चल रहा है. अरब पार की आबादी वाले इस देश ने महामारी से हो रही अकाल मृत्यु को इतने करीब से इससे पहले शायद ही देखा हो. 19 वीं सदी की शुरुआत में प्लेग और हैज़े की महामारियाँ ज़रूर आईं पर 21वीं सदी की इस महामारी का स्वरूप एकदम अलग है. एक वायरस जो लगातार और चालाक होता जा रहा है. जो लगातार अपना स्वरूप और अपने दुष्प्रभाव बदल रहा है. एक वायरस जिसके पास अपना दिमाग है और उस दिमाग में इस वक़्त लगातार मानवीय वजूद को हर सम्भव खत्म कर देने की क्रूर योजनाएँ बन रही हैं. एक इंसानी वजूद, समाज और संगठन के तौर पर हमारी योजनाएँ एक अदने से वायरस की योजनाओं के सामने मात खा रही हैं. मानवीय मेधा का हमारा अति आत्मविश्वास लाखों लोगों की अकाल मृत्यु का परिणाम बन रहा है.

समस्या यह है कि हमने एक समाज के तौर पर अपने समय को हमेशा सिर्फ़ और सिर्फ़ क़रीब से देखना सीखा. समय को दूर से देखने की हमारी समझ के अभाव ने हमें कई बार ऐतिहासिक नुकसान पहुँचाए. इस वायरस के इतने भीषण प्रसार के पीछे भी इसी दूरदर्शिता का अभाव रहा. पिछले साल वायरस के प्रभाव के कम होने के बाद हम जिस हद तक लापरवाह हुए वह हमारी अदूरदर्शी समझ को ही दिखाता है. व्यक्तिगत रूप से हमने कोविड के दौर की आचारसंहिताओं का जमकर उल्लंघन किया. सामाजिक तौर पर शादियों और जलसों में जीभरकर शरीक हुए. यहां तक कि सरकारी स्तर पर कुंभ और चुनाव सरीखे आयोजनों में लापरवाही की तमाम मिशालें हमने क़ायम की.

इस पूरे दौर में हमने समय के सिर्फ़ बीतते हुए हिस्से को देखा. गुज़र चुके और आने वाले समय के बारे में सोचना भी हमें ज़रूरी नहीं लगा. इसी का परिणाम है कि पूरे साल भर में हम एक ऐसी व्यवस्था तैयार नहीं कर पाए जहां आपातकालीन और जीवन रक्षक उपकरणों और उपायों से लोगों का जीवन बचाया जा सके. ऑक्सीजन के अभाव में अस्पतालों में तड़प-तड़प कर मरते लोग इसी अदूरदर्शिता की बानगी पेश करते हैं.

हमारी सत्ताएँ आज भी समय को एक छोटे से दायरे में देख रही हैं. वह यह नहीं देख रही कि वह एक बड़े मानवीय इतिहास का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं. सत्ताएँ कभी भी अनंतक़ालीन नहीं होती. लेकिन उनका दुरुपयोग और ग़ैरज़िम्मेदार उपयोग अनंतकाल के लिए इतिहास का हिस्सा हो जाता है. हर सत्ता के लिए उसके वक़्त में उठती हुई लाशों की ज़िम्मेदारी कभी न कभी तय ज़रूर होती है. चाहें वो मौतें युद्धों या प्रायोजित नरसंहार से हों, प्राकृतिक आपदाओं से हों या फिर मौजूदा वक़्त की तरह महामारी से.

भारत के लिहाज़ से देखें तो कोविड की यह आपदा पेश किए जा रहे आँकलन से बहुत बड़ी है. इस आपदा में हो रही जनहानि को राजनीतिक कारणों से छुपाया जा रहा है, यह बात किसी से नहीं छिपी. व्यवस्था की कमियों को ढँकने की तमाम कोशिशों के बीच कई लाशें ऐसी भी उठ रही हैं जिन्हें ढँकने के लिए कफ़न तक नसीब नहीं हो रहे.
(Article by Umesh Pant)

लेकिन इस पूरी अफ़रातफ़री और मातम के माहौल के बीच यह बात तय है कि यह मानवीय सभ्यता का अंत नहीं है. यह दौर भले कितने ही मानवीय और आर्थिक नुकसान का साक्षी रहे लेकिन यह सिलसिला थमेगा ज़रूर. तय है कि यह वक़्त गुज़र जाएगा और इतिहास के बड़े हिस्से में यह दौर एक छोटी सी अवांछित घटना की तरह दर्ज़ हो जाएगा. हम इतिहास की कई बड़ी दुर्घटनाओं और त्रासदियों की तरह ही इस दौर को भी पीछे को छोड़कर आगे बढ़ जाएंगे. इस बुरे वक़्त में यही एक बात है जो सबसे विश्वसनीय और आश्वस्तिपूर्ण लगती है.

फिलहाल हमारी सबसे बड़ी जद्दोजहद इस दौर में मज़बूती से डटे रहने की है. एक इंसान के तौर पर इस क्रूर और निर्मम वक़्त से लड़ाई लड़ने की है. इस वक़्त से जूझने में एक दूसरे की मदद करने की समझ विकसित कर लेने की है. यह सीखने की है कि भीषण और अमानवीय दुर्घटनाओं से हम अकेले नहीं लड़ सकते. उनसे, हमें एक समाज के रूप में मिलकर लड़ना होगा. एक मानवीय समाज के तौर हम किस तरह आपस में जुड़े हैं इस वायरस ने हमें अच्छे से समझाया है. हज़ारों-लाखों किलोमीटर दूर से आई महामारी, जिसका वजूद हमारे लिए पिछले साल तक बस खबरों में था वह इस साल हमको और हमारे क़रीबियों को छूकर गुज़रती, उन्हें प्रभावित करती हुई निकल रही है. तय है कि बिना आपसी समन्वय के इस महामारी से नहीं लड़ा जा सकता. इस बार यह समन्वय जिस्मानी फ़ासलों की माँग कर रहा है. लेकिन यह माँग बिना ज़हनी फ़ासलों को मिटाए पूरी नहीं की जा सकती. निजी स्वार्थ, मान्यताओं और विचारधाराओं को पीछे छोड़कर ही ऐसी महामारी से लड़ा जा सकता है.

आपसी मेल-जोल की झलक भी हमें इसी क्रूर वक्त के बीच आशा की मझली सी किरण की तरह देखने को मिल रही है. लोग खुलकर मदद माँग रहे हैं और खुलकर मदद कर भी रहे हैं. लेकिन यह आपदा बड़ी है तो इससे खुद को बचाने के उपाय भी बड़े स्तर पर करने होंगे. जो समस्याएं निजी प्रयासों से हल नहीं की जा सकती उन्हें सुलझाने के लिए ही हम सरकार चुनते हैं. यह समझना भी ज़रूरी है कि सरकार हमारे लिए होती हैं और ऐसा समय सत्ता में बैठे हुए लोगों के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होता है. ऐसे कठिन समय में सरकारें किसका हित चुनती हैं इस पर एक पैनी निगाह बनाए रखना बहुत ज़रूरी है. उन्हें अगर धार्मिक और राजनैतिक आयोजन आपकी जान से बड़े नजर आते हैं तो यहां ठहरकर सोचना ज़रूरी है. ऐसे समय में अपनी और अपनों की जान बचाने के लिए हम सत्ताओं पर कितना भरोसा कर पा रहे हैं इस पर नज़र रखना भी अहम है. ऐसे समय में हम सत्ताओं से क्या अपेक्षा कर रहे हैं एक नागरिक के तौर पर इस लिहाज़ से खुद पर एक नज़र डालना भी ज़रूरी है.
(Article by Umesh Pant)

ऐसी महामारियाँ निजी जीवन को भी ज़रा रुककर, ठहरकर देखने की एक वजह देती हैं. अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस बनने की सीख देने के बीच क्या हम उन्हें यह भी बताते हैं कि कभी अकेले महसूस करें तो उन्हें क्या करना है, क्या नहीं? उन्हें अवसाद घेर ले तो उससे कैसे निपटना है? अपनी असफलताओं का पुलिंदा बनाकर उन्हें तनाव में बदल देने से कभी किसी को सफलता नहीं मिली. इस महामारी के दौर में जब किसी को अपने बारे में नहीं पता कि उसका वजूद आगे रहेगा भी या नहीं, तमाम सफलताएँ और उनके लिए पाले गए भारी-भरकम तनाव अचानक बेमानी हो गए हैं. भविष्य को लेकर बनाई हमारी तमाम अवधारणाएँ और योजनाएँ सिरे से ख़ारिज हो गई हैं. भविष्य के बारे में सोचने और भविष्य की चिंता में डूबकर अपने वर्तमान की बलि दे देने के बीच एक महीन रेखा है यह भी इसी वक़्त ने हमें सिखाया है.

दुस्वप्न से इस समय में भले भय और दुश्चिंताएं हमारी साँसों को जकड़ रही हैं, अनिश्चितताएं हमारा दम घोंट रही हैं, लेकिन इस महामारी से लड़ने से पहले हमें अपने भय और चिंताओं से लड़ना भी सीखना होगा. जो वक़्त हम जी रहे हैं वह अप्रत्याशित है. इससे मिलने वाली हर सीख को हमें सम्भालकर रखना होगा. यह महामारी शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर अपना ख़्याल रखने की माँग करती है. मानसिक स्तर पर इससे जूझना सीखकर हम शारीरिक नुकसान को कुछ हद तक कम कर सकते हैं. यह वक़्त अपने पीछे मानसिक आघातों का एक पथरीला रास्ता भी छोड़कर जाएगा जिसपर हमें लंबे वक़्त तक चलना होगा. उस पथरीली राह पर चलने की मानसिक तैयारी भी हमें करनी होगी. तय है कि यह तैयारी ही इस महामारी के बाद लंबे वक़्त तक हमारे काम आएगी.
(Article by Umesh Pant)

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उमेश पन्त

युवा लेखक उमेश पन्त की पहली किताब ‘इनर लाइन पास’ कुछ समय पहले आई थी जिसे पाठकों ने बहुत सराहा था. अब उनकी दूसरी किताब आई है – ‘दूर दुर्गम दुरुस्त’. ये दोनों पुस्तकें यात्रा-वृत्तांत हैं और उमेश इस विधा में अपने लिए लगातार एक नाम पैदा कर रहे हैं. उनसे http://yatrakaar.com पर संपर्क स्थापित किया जा सकता है.

इसे भी पढ़ें : नागाओं के गौरवशाली अतीत का उत्सव : हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल

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