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पहाड़ों मे कोई न तो पलायन के गीत हैं न हीं आह्वान के गीत

पहाड़ों में अब मौसमी गीत ही गीत हैं. बसंत बरसात और प्यारा जाड़ा तो है. जाड़ा अब उतना गुलाबी नहीं जैसे हुआ करता था. बरसात में यदा – कदा रिमझिम बरखा होती तो है ज्यादा तो फट के ही बरसती है. कल-कल, छल-छल छोये खो से गये हैं. रितुराज बसन्त के मिजाज में न तो रंग है न वो रस! फूल खिलते हैं. झरने झरते हैं. हवाएं भी चलती हैं. बस औपचारिकता भर. कुल मिला कर तासीर वो नहीं है जो हुआ करती थी. समय भी अलसाया और करवटे बदल रहा है. देर से सो रहा है और जाग रहा है. सब अव्यवस्थित फिजा से नजरें मिलीं तो फ्यूली के फूल मंद-2 मुस्करा रहे थे नजरें उठाईे तो बुरांश ठहठहा कर हंस रहे थे बेमौसम . आश्चर्य!! अभी तो जनवरी भी नहीं है. मुझे उलझन में देख काफल पक्को और कारी कोयल मतवारी ने मेरी तन्द्रा तोडी ‘‘दादा, छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी. तुम बदल रहे हो हम भी बदल रहे हैं दुनिया बदल रही है. हीसरे, किनगोडे, आडू – बेडू और भी न जाने क्या-2 पतली गली से निकल भागे है. देशी – विदेशी बाहुबलियों ने लंगर डाल सब को लील लिया है. अक्कड़ – बक्कड़ का राज है. अब तो बस पलायन के गीत बाकी है वो भी परदेश में या पहाड़ों की तलहटी के शहरों के पांच बीस्वा के मकानो मे या शीलन भरे पहाड़ी कस्बों में लिखे जा रहे हैं. लिख्वारो को भी तो कुछ करना धरना है. पहाड़ों मे कोई न तो पलायन के गीत हैं न हीं आह्वान के गीत. कोई किसी को नहीं बुला रहा. हर तरफ मायूसी है.

सुने थे कभी सामने वाले जंगल से ठंडी हवा के झौंके के साथ एक पर्वतीय बाला का लम्बे आलाप वाला गीत जिसमें विवशता तो थी पर सूकून भी. अब तो बस वहां से गर्म हवा का झोंका ही आता है. जंगल कट चुका है. सुना है वह सुरबाला अपने गबरू के साथ दिल्ली के विनोद नगर में रहती है. वहां तो एसे लम्बे आलाप वाले गीत के लिए स्पेस नहीं है. न ही हिम्मत. पहाड़ न तो कभी बेबस थे न ही किसी को बुलाते थे. मजबूर तो हम थे जो हमें यहां आना पडा था.

मेरे सामने वाले पर्वत ने मुझसे कहा मैंने कभी तुमसे कुछ मांगा? बदले में क्या नहीं दिया मैनें! ताजी हवा ठंडा पानी और ठेर सारा सुख-चैन. मेरे ठीक सामने सूरजमुखी के फूल मेरी ओर देख जोर-2 से हंस रहे थे. शायद इस वजह से कि मैं इन सौगातों का अर्थ नही समझता.

सुरेश बकरियों को पास के छोटे से बाजार के निकट जंगल में छोड, गप्पें हांकता, ताश की गड्डीयों को फेंटता अर सुड़-2 चाय के प्याल उड़ाता. लेकिन उसे बकरियों की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं! उसे था सरकारी मुआवजे का भरोसा और मरी बकरी की कीमत का. उसे अपने साथ ताश पीटते फारेस्टगार्ड साहब पर पूरा भरोसा है. फारेस्टगार्ड साहब का नाम भी भरोसा है- भरोसानन्द. जिन्दा बकरी बिकना रिस्की हे.

क्या वक्त था – नारायणी गांव के सिपाही गबरसिंह का काला सन्दूक पास के बस – अड्डे में उतरता तो सारे इलाके में हलचल! मित्रमंडली दौड पड़ती थी उस ओर. खूब बड़ा मरदाना था वो भारी बूटों वाला था. आस-पड़ोस, दोस्त-रिस्तेदार यहां तक कि खिद्मदगार भी गला तर कर लेते थे. वो दौर बीता अर समझ आयी तो उसने एक सरकारी शेर उन पर दे छोड़ा – बहुत लुट गये, अब न लुटेंगें हम – बस एक ही नारा पैसे दो अर बोतल लो. कीमत परिस्थितियों पर निर्भर. सुना है कि गब्बर सूबेदार हो गया है. अर ये भी सुना है कि वे पहाड़ नहीं आते. इस स्टेटस के लोग पहाड़ नहीं चढते. ऐसा कोई प्रोटोकाल तो नहीं है? बल्कि अब तो हवलदार क्या सिपाही भी यदा-कदा ढूढने से ही मिल पाते हें. आज तो यहां अगरू-बगरू या तंगहाल तानों के शिकार मोटी तनख्वाह वाले गरीब अध्यापक. जो सुगम-दुर्गम के सरकारी गीत नया गाते है अर नित गाते हैं. हां अपनी किस्मत के लिए सरकार को कोस-2 कर कई बोतलें पानी पी जाते हैं. चाय की दुकानें तो उनके विश्लेषकों के भरोसे हैं. इस मुद्दे पर भट्टी सा बुझा अलसाया चाय वाला भी बीस पच्चीस चाय बेच कर अपने को धन्य समझता है. अरे साहब एक दिन तो हद हो गई पंच – परधान के कन्धे पर एक सरकारी बैग सज रहा था. पीछे एक हाकिम किस्म का आदमी तन के चल रहा था. इस तरह के आदम – जात गावों में यदा-कदा ही दिखायी देते हैं. जिसे देख कर उछीन्डा गांव की मैडम जी की तो जान ही निकल गयी थी. पता चला कि वह इस इलाके का पंचायतमंत्री हे. मैडम की जान पर जान आ गई बोली, ‘‘कोई आता तो क्या कर लेता. स्कूल में तो बच्चे ही नहीं हैं.’’ क्या जमाना था जब गांव मे रौनक ही रौनक थी. पहले तो रौले-खौलों में स्कूल खुली. फिर लोग पढे-लिखे. सड़कों का जाल बिछा और इन्हीं रास्ते से वे न जाने किस जहां में खो गय. न जाने वह कैसी शिक्षा अर कौन सी सड़क.

दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल में रहने वाले जागेश्वर जोशी मूलतः बाडेछीना अल्मोड़ा के हैं. वर्त्तमान में माध्यमिक शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रहे हैं. शौकिया व्यंगचित्रकार हैं जनसत्ता, विश्वामानव,अमर उजाला व अन्य समसामयिक में उनके व्यंग्य चित्र प्रकाशित होते रहते हैं. उनकी कथा और नाटक आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुके  हैं.

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Girish Lohani

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