उत्तराखण्ड के कुमाऊं के उच्च हिमालयी क्षेत्र में साहसिक पर्यटन की अपार सम्भावनाएं हैं. इनमें मुख्य रूप से पिंडारी, कफनी, सुन्दरढुंगा, नामिक, हीरामणि, मिलम व पंचचुली ग्लेशियर (हिमनद) प्रमुख हैं. इसके अतिरिक्त ट्रेल पास (दर्रा), सिनला पास छोटा कैलास, व्यास, चौंदास, दारमा, जोहार, नीति एवं माणा घाटियां मुख्य हैं. इन रमणीय, मनोहारी मार्गो पर देशी-विदेशी पर्यटक भ्रमण करने पहुंचते हैं.
इन्हीं में उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के अन्तर्गत मुनस्यारी तहसील में जोहार घाटी में मिलम ग्लेशियर स्थित है. इसकी ट्रेकिंग मुनस्यारी से की जाती है. यह मुनस्यारी से 59 किमी की दूरी पर स्थित है. यह कुमाऊं का सबसे बड़ा ग्लेशियर है. गोरी गंगा नदि का उद्भव यहीं से होता है. इस मार्ग में जिमिघाट, लीलम ररगाढ़ (रेलगाड़ी) बुगडियार, नहरदेवी, लास्पा, मपांग, रिलकोट, टोला, मिरतोली, बुरफू, मापा, बिल्जू, घनघर, पाछू और मिलम आदि गांव पड़ते हैं. इन्ही गांवों में साहसिक पर्यटक ट्रैकिंग के दौरान भोजन एवं विश्राम करते हैं. जब भारत और तिब्बत के मध्य व्यापार होता था तब व्यापारियों की शरणस्थली मुख्य रूप से इन्हीं गांवों में हुआ करती थी, जिसे भोटिया एवं तिब्बती हुण लोग चलाया करते थे.
मिलम गांव मे एक व्यापार की मुख्य मण्डी हुआ करती थी, इस गांव में आज भी लगभग 225 मकानों के भग्नावशेष दिखाई देते हैं. इसी प्रकार मार्ग के विभिन्न गावों में मकानों के भग्नावशेष दिखायी देते है. इन मकानो की अद्भुत निर्माण कला आज भी पर्यटकों को आकर्षित करती है. परम्परागत पनचक्कियां, खेत एवं विशाल मकान उनकी उच्च आर्थिक स्थिति की ओर संकेत करती हैं इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि पूर्व में इन गांवों में धनी व्यापारी रहा करते होंगे. मिलम गांव से भी तिब्बत को रास्ता जाता है, जिसका उपयोग व्यापार के दौरान हुआ करता था. यह व्यापार भेड़ बकरी, ऊन, चुटका, दन, कालीन, नमक, सुहागा, खाद्य वस्तुओं एवं जड़ी बूटियों आदि का था. लेकिन 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद व्यापार बन्द हो गया अब तिब्बत चीन का स्वायत्यषासी प्रदेष वन गया है जोहार घाटी के स्थानीय लोगों का यहाँ से पलायन होने लगा, जिस कारण इनके मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुचं गये. कई मकानों में आज भी प्राचीन ताले दिखाई देते हैं. आज भी ग्रीश्मकाल में कुछ स्थानीय निवासी पषुपालन के लिये अपने गांवों में पहुंचते हैं. चार-पांच महीने बाद आलू, मार्छा फाफर, जम्बू थोया, गन्द्रैणी, अतीस, कुटकी, थुनैर, कींडा़जडी एवं पषुओं को लेकर लौट जाते हैं. सम्पूर्ण जोहार घाटी आज मात्र मवेषियों की चारागाह स्थली रह गयी है. हजारों भेड़ों के झुण्ड विभिन्न बुग्यालों में ग्रीश्मकाल में यहां दिखाई देते हैं.
अपार पर्यटन सम्भावनाएं समेटे यह घाटी देशी विदेशी पर्यटकों को यहाँ की मनोरम पहाड़ियां झरने, नदियां, झीलें, हिमाच्छादित पर्वत शिखर एवं यहाँ की लोक संस्कृति बहुत लुभाती है. लेकिन कई पर्यटक आधे मार्ग से ही लौट जाते है जिसका कारण जोखिम भरा मार्ग, ठहरने एवं भोजन की व्यवस्था का अभाव हैं. जोहार घाटी में लोक निर्माण विभाग के केवल तीन छोटे-छोटे गेस्ट हाउस हैं जो कि लीलम, बोगडियार एवं मिलम गांव में ही हैं, जिसमें प्रति गेस्ट हाउस लगभग 10 लोग अधिक से अधिक रह सकते हैं. अगर राज्य या केन्द्र के सरकारी कर्मचारी पहुंच गये तो यह स्वतः आरक्षित हो जाता है और पर्यटकों को तुरन्त खाली करना पड़ता है. इसके बाद थका हुआ पर्यटक भोजन एवं रहने की तलाष गांवों में करता है जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में होते हैं यह सब पर्यटकों को निराश करता है.
ट्रैकिंग मार्ग में पड़ने वाले विभिन्न नदी नाले है जो पुरानी परम्परा के द्वारा निर्मित हैं जो इससे स्थानीय पेड़ों की बल्लियां एवं बीच में बांस, रिंगाल की खपच्चियां या तख्ते लगाकर तैयार कर दिया जाता है और इनके नीचे पत्थरों की चिनाई कर दी जाती है. एक दो सालों के बाद ही ये पुल बह जाते हैं और पर्यटको को जान जाखिम में डाल कर इन्हें पार करना पड़ता है या अपनी यात्रा स्थगित कर कठिनाई के साथ वापस लौटना पड़ता है. इस प्रकार के पुल सम्पूर्ण मार्ग में देखे जा सकते हैं. जिसमें मिलम के निकट मालछू नाले पर, ररगाढ़ (रेलगाड़ी) के निकट, बुगडियार पहुंचने से पहले और बुगडियार के बाद मपांग के निकट लास्पा गांव के नीचे, रिलकोट पहुंचने से 200 मी. पहले, बुरफू से मर्तोली गांव के मार्ग पर बिल्जू गांव के पास नाले पुल ही नहीं है. इस तरह जोखिम उठाकर मिलम ग्लेशियर पहुंचा जाता है और यहां से जोखिम भरी 59 किमी. की यात्रा कर वापस मुनस्यारी.
उच्च हिमालयी क्षेत्र में ट्रैकिंग करना वैसे ही जोखिम भरा होता है लेकिन जो पुल पहले से ही लोक निर्माण विभाग द्वारा पुरानी परम्परा द्वारा निर्मित हैं उनको उच्च तकनीक का इस्तेमाल कर बनाया जा सकता है. इनमें जिसमें लोहे का गर्डर सीमेन्ट के स्तम्भ बनाकर तैयार किया जा सकता है. लोक निर्माण विभाग द्वारा सरकारी तौर पर इनकी देखरेख की जा सकती है. अंतर्राष्ट्रीय सीमा से नजदीक होने के कारण इस मार्ग में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चार सामरिक चौकियां हैं. नई तकनीक द्वारा सम्पूर्ण मार्ग में सड़क होनी चाहिये लेकिन पैदल मार्ग ही बेहाल हैं. दूसरी तरफ कैलाश-मानसरोवर के मार्ग में चीन ने भारत तिब्बत की सीमा तक सड़क पहुंचा दी है और अब रेलवे लाईन बिछाने की तैयारी में है. एक तरफ उत्तराखण्ड सरकार पर्यटन के नाम पर करोड़ों रूपया खर्चे के आंकड़े प्रस्तुत करती है दूसरी तरफ ट्रैकिंग मार्गो की बदहाली जोहार घाटी में पर्यटन की सम्भावनाओं का दरकिनार करती है. अन्र्तराश्ट्रीय सीमा होने के कारण मोटर मार्ग होना भी नितान्त आवष्यक है.
जोहार घाटी में पर्यटन का विकास, पर्यटकों की संख्या बढ़ाने एवं स्थानीय अर्थव्यवस्था सुधारने हेतु इन उपायो में विचार किया जा सकता है जैसे – रात्रि विश्राम हेतु परम्परागत विश्राम स्थलों का निर्माण, ट्रेकिंग मार्गों का सुधार, उच्च तकनीक द्वारा पुलों का निर्माण एवं बेरोजगार युवकों को भोजन एवं लोकसंस्कृति एवं ट्रैकिंग मार्गो की जानकारी हेतु विशेष प्रशिक्षण.
जोहार घाटी में मिलम ग्लेशियर के अतिरिक्त भी ट्रेकिंग मार्ग हैं जिनमें मुख्य रूप से लीलम से रालम ग्लेशियर, बुगडियार से पोटिंग ग्लेशियर, रिलकोट से मर्तोली, मर्तोली से संलाग ग्लेशियर, सलाग से ट्रेल पास, मार्तोली से ल्वांग ग्लेशियर, बुरफू गांव से बुरफू ग्लेशियर, पाछू गांव से पाछू ग्लेशियर, लास्पा गांव से लास्पा ग्लेशियर, मिलम गांव से मलारी (जोशीमठ). इन मार्गो की अभी तक सरकारी पर्यटन एजेंसियों के पास कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है. इसे मात्र उनके नक्शों में ही देखा जा सकता है.
जरूरत इस बात की है कि इनका प्रचार प्रसार किया जाय एवं मार्ग रहने हेतु व्यवस्था की जाय या पैकेज टूर बनाकर जोहार घाटी में पर्यटकों की संख्या बढ़ा कर यहाँ के स्थानीय निवासियों की आय में वृद्धि का साधन बनाया जा सकता है. इसके अलावा स्थानीय निवासियों द्वारा उत्पादित दन, कालीन, पंखी, रिंगाल की कण्डी एवं ऊनी वस्त्रों आदि को पर्यटकों को बेचा जा सकता है.
– अल्मोड़ा के रहने वाले डॉ. महेंद्र सिंह मिराल जियोलॉजी साइंटिस्ट हैं. डॉ. महेंद्र सिंह मिराल ने हिमालय ग्लेशियर पर वर्षों काम किया है. वर्तमान में मिलम ग्लेशियर में हिम विज्ञान परियोजना में अनुसंधानरत थे. मिलम ग्लेशियर की यात्रा छः बार कर चुके है.
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