भाई साहब, भ्रष्टाचार को अपने पतीत-पावन देश के लिए बहुत बड़ी बीमारी मानते थे. वे इसे देश के ऊपर कलंक के तौर पर देखते थे. वे मानते थे कि जिम्मेदार जगहों पर बैठे लोग जनता की मुसीबतों को दूर करने के लिए हैं, न कि माल कमाने के लिए. वे देश की संपत्ति के रखवाले हैं न कि मालिक.
वे हमेशा लोगों से बात करते हुए भावुक होकर सवाल उठाते कि जो लोग नौकरी पाने के समय जनता की सेवा की बड़ी-बड़ी हांकते हैं, वे बाद में हाकिम में क्यों बदल जाते हैं? वे लोगों के घरों में उजाला फैलाने के बजाय अपना घर क्यों भरने लगते हैं? कम शब्दों में कहें तो वे इस बात के लिए हमेशा परेशान रहते कि देश के पास सब कुछ होते हुए यहां रामराज्य क्यों नहीं आ रहा? अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब क्यों होता जा रहा है? कृपा सब पर समान रूप से क्यों नहीं बरस रही?
उन दिनों जब देश में अन्ना हजारे नाम के एक किरदार के जरिये एक और संपूर्ण क्रांति आंदोलन शुरू हुआ तो भाई साहब गदगद हो उठे. उन्हें लगा कि यही नायक था, जिसका देश को इंतजार था. अब भारत को बदलने से कोई नहीं रोक पायेगा. जब सभी लोग अपने देश को बेहतर बनाना चाहते हैं. तो रुकावट कहाँ है? जब बच्चे, बूढ़े, अफसर, कर्मचारी सभी लोग भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सड़कों पर निकल चुके हैं तो भ्रष्टाचार तो अब जाकर ही रहेगा.
भाई साहब उन दिनों शहर में अन्ना आंदोलन का मुख्य चेहरा बन गए. देखते ही देखते कोर कमेटी में शामिल हो गए. भाई साहब ने अपने आफिस के एक क्लाइंट को “मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना” टोपियां छपवाने का जिम्मा सौंप दिया. उसने सोचा भाई साहब भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं तो बदल चुके होंगे. टोपियों की छपाई के पैसों के लिए कहने लगा तो भाई साहब ने उसे ऐसी तिरछी आंखों से देखा. बेचारा सकपका कर रह गया. भाई साहब शहर भर में जिसका सिर खाली देखते उसे टोपी पहना देते. एक मौहल्ले से दूसरे मौहल्ले के घर-घर जाकर लोगों को जुलूस के लिए तैयार करते. जुलूसों को लेकर इतना उत्साह था कि हर मौहल्ले का अपना अलग जुलूस निकलता.
लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा विकट आक्रोश इससे पहले कभी नहीं देखा गया था. बदलाव की इस मुहिम में एक कारपोरेट बाबा, एक जुमलेबाज राजनेता भी था. कारपोरेट बाबा को पता था कि विदेशों में भारत का कितना काला धन जमा है. वह कहता, यह धन लौट आया तो देश की तकदीर बदल जाएगी. जुमलेबाज कहता, वह इस धन को वापस लायेगा और लोगों में बांट देगा. भाई साहब गदगद थे. लोग गदगद थे. उन्हें लग रहा था, देश को एक बार फिर से सोने की चिड़िया बनने से अब कोई नहीं रोक पायेगा.
समय बीता. जुमलेबाज नेता देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठ गया. उसने प्रचार की एक ऐसी फौज खड़ी कर दी कि हर ओर से उसकी जै-जै होते रहती. लोगों को विपक्षी देश के शत्रु नजर आने लगे. वह इतने आत्मविश्वास से लोगों को सपने दिखाता कि देखते ही देखते उसके भक्तों की एक विशाल फौज खड़ी हो गई. ये लोग सवाल उठाने वालों को देशद्रोही कहते. सवाल उठाना उसके समय का सबसे बड़ा अपराध घोषित कर दिया गया था.
भाई साहब को भी जुमलेंद्र की बातों पर यकीन था. वे उसके कट्टर समर्थक हो गए. कोई उसके खिलाफ कुछ कहता तो नाराज हो जाते. भाई साहब खुद एक आफिस में काम करते थे और लोगों का काम बगैर कुछ लिए करना पाप समझते थे. भाई साहब को अपना भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं लगता था. उसे वे जायज समझते थे. वे सोचते, हम लोगों से लेते ही कितना हैं, दाल में कंकड़ बराबर. इसके बदले लोगों की सेवा करते हैं. भला यह भी कोई भ्रष्टाचार हुआ. भ्रष्टाचार तो ऊपर के लोग करते हैं. रोकने की जरूरत तो उन्हें हैं. देश को खोखला तो वे कर रहे हैं.
जाहिर है भाई साहब को अपना भ्रष्टाचार उचित और अपने से बड़ों का भ्रष्टाचार अनुचित लगता था. इसी प्रकार बड़े पद वालों को नेताओं के भ्रष्टाचार में बुराई नजर आती थी. नेताओं को विरोधी पार्टी के भ्रष्टाचार से परेशानी थी. विरोधी पार्टी को सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचार से परेशानी थी. सबने खुद के भ्रष्टाचार को जायज और दूसरों के भ्रष्टाचार को नाजायज मान लिया था. सब पवित्र और महान थे. दूसरे बुरे थे. सब दूसरे के भ्रष्टाचार से परेशान थे.
भ्रष्टाचार से परेशान भाई साहब ने इस बीच कई जगह प्लाट तथा फ्लैट खरीद लिए थे. कारपोरेट बाबा का साम्राज्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चुनौती देने लगा था. विदेशों में जमा भारतीयों का काला धन जो पहले सबको नजर आता था अचानक कहीं गायब हो गया. जुमलेंद्र देश-समाज की बातें करते हुए अपने दान दाताओं के लिए काम करने में लग गया. उसने पांच सालों में पूरे होने वाले कामों को अगले पांच सालों के लिए आगे बढ़ा दिया. उसके जुमलों का सच लोगों की समझ में आने लगा था.
अन्ना नाम का किरदार गायब था. नयी सरकार के बनते ही वह भ्रष्टाचार तथा काले धन को भूल चुका था. लोग उसको याद करते कि वह प्रकट हो और अपने आंदोलन को आगे बढ़ाए. मगर वह चुप पड़ा था. जैसे रामराज्य आ गया हो. लेकिन बदलाव के लिए काम करने की कोशिश कर रहे कुछ नौजवानों पर वह आये दिन सवाल उठाते रहता था. सरकार के साथ उनकी विश्वसनीयता को तार-तार करने में लगे रहता. लोग उसके रवैये से हतप्रभ थे. धीरे-धीरे लोगों की समझ में आने लगा कि वह किसी नाटक का किरदार था. एक बार जब वह अपनी गुफा से बाहर निकला और लोगों को आवाज देने लगा तो लोगों ने उसकी ओर देखना तक उचित नहीं समझा.
भाई साहब भी सकते में थे. भ्रष्टाचार-कालाधन सब झूठ साबित हुआ था. देश जैसा पहले थे, वैसे ही चल रहा था. रुपया डॉलर के मुकाबले गिरता जा रहा था. पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही थी. भाई साहब सभी के सामने जुमलेंद्र का इतना गुणगान कर चुके थे कि आसानी से पिंड नहीं छुड़ा सकते थे. अस्तु, पहले नोटा, नोटा करने लगे. फिर एस.सी./एस.टी. एक्ट की बात कर किनारे निकलने की राह ढूंढने लगे. कोई कहता, क्या बात, आप तो बदल गए ? भाई साहब कहते जुमलेंद्र ने काम तो अच्छे किये, मगर आरक्षण पर उसके रवैये से हम आहत हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी, अन्ना भक्त भाई साहब अब मौन हैं. सच तो यह है कि उन्हें तब भी भ्रष्टाचार से कोई दिक्कत नहीं थी, अब भी कोई दिक्कत नहीं है. उनके लिए यह सब मन बहलाने का खेल था. शहरों से दूर गांवों में स्कूल और अस्पताल बंद हो रहे थे. वहां डॉक्टर और अध्यापक नहीं थे. कुछ भी नहीं बदला था. आम आदमी जिसके नाम पर सारी बातें हो रही थी, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था. इस सारे प्रहसन के बीच उसकी जिंदगी दिन प्रति दिन मुश्किल होते जा रही थी. उसके पास रोजगार नहीं था. जेब में पैसे नहीं थे. बेहतर जीवन की उसकी लड़ाई कमजोर पड़ती जा रही थी. भाई साहब, अब जोर से एस. सी./एस. टी. एक्ट की लड़ाई लड़ रहे थे. उन्हें भी तो कुछ करना ही था.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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नमस्कार सर?? बहुत ही सुंदर कम शब्दों में बहुत कुछ कह गए आप ।बिचरों का प्रभाव बहुत तेज गति से चलने पर भी अपनी लाइन से भटके नही। शब्दों में बहुत कंट्रोल रखते हो।आपके बात कहने का अंदाज बहुत निराला है। ये बात रखने का अंदाज आपको एक दिन जानेमाने साहित्यकारों से भी ऊप्पर ले जाएगा ऐसा मेरा मानना है।??????????
बहुत ही जरूरी टिप्पणी है।हमारे समय का सच।
दिनेश जी बहुत बढ़िया व्यंग्य। एकदम सामयिक। देश की दशा भाईसाहब जैसी हो गयी। शुभकामनाएं। जारी रखें
लेखनी का जादू है सर आपके साहित्य ज्ञान कमन्डल से सभी शब्द सटीक और फ्रभुत्वपूर्ण निकलते है
निशचित रुप से लेख समय के बदलते स्वरूप पर कोई ठोस बात कहने में समर्थ है जो महत्वपूर्ण है
लेखनी का जादू है सर आपके साहित्य ज्ञान कमन्डल से सभी शब्द सटीक और फ्रभुत्वपूर्ण निकलते है
निशचित रुप से लेख समय के बदलते स्वरूप पर कोई ठोस बात कहने में समर्थ है जो महत्वपूर्ण है
लेख प्रासंगिक है ।आजकल सभी इस बारे मे बाते करते कही न कही मिल ही जाते है ।आजसे दो तीन दशक पहले इसतरह के काम करने वालेको कुछअच्छी नजरो से नहीदेखा जाता था लेकिन अब तो सामाजिक मान्यता मिल जैसी गयी है।यदि हम इस corruption को अपना अच्छा व दूसरे का गलत की नजर से देखेंगे तो फिर क्या?मेरे ख्याल सेयदि हमारी पीड़ा सरकार से ज्यादा मूल मसले पर होगी तो अधिक निरपेक्ष लगेगा । ----वो सुबह कभी तो आएगी सुबह का इंतजार कर----।
अच्छी रचना के लिए बधाई..
अच्छी रचना के लिए बधाई..
Very nice article.. .good satire...