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लाख हरियाई लाख पंचमी लाख बिरुड़िया लाख दशें लाख बगवाल जी रया, जाग रया

हिमालय की गोदी में बसे उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है. यहाँ के निवासी शांत, साहसी, ईमानदार और सेना का अंग बनकर देश की रक्षा करने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं और गर्व का अनुभव करते हैं. हमारे वेद, पुराण और व्यास रचित महाभारत गणेश जी ने यहीं लिखी थी. आदि देव कैलाश पर्वत पर धूनी रमाये भवानी के साथ यहीं विराजमान हैं. यहीं से नादब्रह्म का गुन्जन हुआ, यही तो लोककथाओं में वर्णित स्वर्ग है.

जहाँ सीना ताने हिमालय का अलौकिक रूप माधुरी हमें बाध्य कर देता है कि हम उसके धवल शिखरों पर प्रातः रवि-रश्मि तूलिका से सृजित होते स्वर्ण मुकुट से अपने आदि देवता का अभिषेक होता देखते ही रहें, बस देखते ही रहें परमात्मा से एकाकार हो जाने तक. आसाम से कच्छ, कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली संस्कृति का मूल यही है, नागराज हिमगिरि. हमारा भू देवता.

जहां हरी भरी धरती पर असंख्य फूल खिले रहते हैं बुग्यालों में कस्तूरा मृग विचरण करते हैं. मोनाल और कफुवा सामगान गाकर उसका गुणगान करते हैं. गंगा, भागीरथी, मंदाकिनी, यमुना, सरस्वती, सरयू, गोमती, पनार, रामगंगा, काली, कोसी, चरमा आदि छोटी-बड़ी नदियों का उदगम स्थल इन्हीं पहाड़ों से होता है. प्रकृति ने अपना सर्वस्व इस क्षेत्र पर लुटाया है. यह संपूर्ण क्षेत्र हर दृष्टि से विश्व विख्यात है. भोजपत्र, रुद्राक्ष, देवदारु, केदार जैसे पवित्र वनों एवं वनस्पतियों से आच्छादित यहाँ के जंगल बड़े मनोहारी हैं. कस्तूरी मृग, हिम तेंदुआ और सफेद शेर यहाँ के विशेष पशु हैं. पवित्र हिममानव का निवास यहीं है. इसकी महिमा का गुणगान लोककवि कुछ इस प्रकार करता है —

बगनी जाँ सौ-सौ  गंगा सौ-सौ छना हिमाला 

डाना डाना मा शक्ति, घट-घट मा छें शिवाला 

यो मातृ भूमि मेरी यो पितृ भूमि मेरी

इन्हीं संदर्भों के बीच यहाँ की लोक  संस्कृति भी अपनी गति से आगे बढ़ रही है. आमा और ईजा के मुंह से च्यूड़ (च्यूरे) पूजन या हरेला पर निकले आशीर्वाद के चार आंखर कहकर  संस्कृति के “गणेश में दूर्बा”  रखें.

लाख चैतू, लाख हरियाई, लाख पंचमी, लाख बिरुड़िया, लाख दशें, लाख बगवाल जी रया जाग रया यो दिनबार भेटनें रया. हिमाचवा ह्यूं जालै, मुसल फाड़ फुटण जालै, सिली पिसी भात खाये. लाख चैतू, लाख हरियाई… स्याव कसि बुद्धि हैजो, स्यूं कस तराण हैजो. धरती जतू चकव असमान कतु उंच है जाये, अगासक तार है जाये गगासक ल्वड़ हैजाये, पढ़िये लिखिये ठुल मैस है जाये. लाख चैतू, लाख हरियाई

(कि लाख चैत्र, लाख हरेले, लाख पंचमियाँ, लाख दशमियाँ, लाख बग्वाल देखने को तू जीवित रहना. कि तुझे तब तक भरपेट सुस्वादु भोजन मिले जब तक हिमालय में बर्फ है. कि तुझे सियार जैसी बुद्धि मिले. कि तू धरती जैसा चौड़ा-चकला और आसमान जैसा ऊंचा हो जाये. कि तू आकाश का तारा और गगास नदी का पत्थर हो जाए. कि तू पढ़े-लिखकर बड़ा इंसान बन जाए. कि लाख चैत्र, लाख हरेले …)

… अशेष शुभाकामनाएं.

(अगला लेख होगा – क्या है संस्कृति)

त्रिभुवन गिरि : मूलतः अल्मोड़ा के रहने वाले त्रिभुवन गिरि सन्यासी बनने से पहले राजेन्द्र बोरा हुआ करते थे. बैंक में बड़े पद पर थे. फिलहाल शीतलाखेत के एक आश्रम में रहते हैं. अनेक किताबों के लेखक और कुमाऊँ की लोकसंपदा के सबसे दिग्गज जानकारों में से एक त्रिभुवन गिरि दशकों से अल्मोड़ा के दशहरे के पुतले बनाते आये हैं. उनके कार्य पर एक फिल्म भी बन चुकी है – बर्निंग पपेट्स. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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Sudhir Kumar

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  • सादर अभिवादन!! सफ़ेद शेर समझ नहीं आया.

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