रुढ़ियों की परम्परा ऐसे ही टूटती है और समाज उनसे इसी तरह धीरे-धीरे मुक्ति पा लेता है. कहीं से विरोध के स्वर नहीं उठते. छोटे पर्दे की अभिनेत्री रुप दुर्गापाल की मॉ और अल्मोड़ा परिसर में शिक्षा विभाग की प्रोफेसर रही सुधा दुर्गापाल का लम्बी बीमारी के बाद गत 25 सितम्बर 2019 की रात निधन हो गया. उनके पति डॉ. जेसी दुर्गापाल उत्तराखण्ड के स्वास्थ्य निदेशक रह चुके हैं. इनकी एक और पुत्री पारूल दुर्गापाल है. डॉ. दुर्गापाल का परिवार अल्मोड़ा के दुगालखोला में रहता है. 26 सितम्बर को अल्मोड़ा के विश्वनाथ घाट पर प्रोफेसर सुधा का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
प्रो. सुधा को मुखाग्नि डॉ. दुर्गापाल और उनकी दोनों बेटियों रूप और पारूल ने दी. पति और बेटियों ने रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ कर ऐसा किया. बेटियों द्वारा मॉ और पिता को मुखाग्नि देना वैसे अब बहुत ज्यादा आश्चर्य का विषय भी नहीं रहा है. जिन लोगों के पुत्र नहीं होते , उनकी बेटियॉ अब सामाजिक रूढ़ियों को दरकिनार करते हुए अपने माता – पिता की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार के लिए बिना किसी झिझक के सामने आने लगी हैं.
पिछले वर्ष उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव व मुख्य सूचना आयुक्त रहे डॉ. आरएस टोलिया के निधन पर उनकी चिता को मुखाग्नि भी उनकी बेटियों ने ही दी थी. इसी तरह गत वर्ष 18 अगस्त 2018 की देर रात वरिष्ठ कवि व पत्रकार चारुचन्द चंदोला का देहरादून में निधन हुआ तो 19 अगस्त को उनकी चिता को भी मुखाग्नि उनकी बेटी साहित्या चंदोला ने ही दी थी.
इतना ही नहीं, उनकी पत्नी राजेश्वरी अपने पति को अंतिम विदाई देने के लिए शमशान घाट तक गई और अपने पति के शरीर को अग्नि को समर्पित होते हुए ही अंतिम विदाई दी. बेटियों के अंतिम संस्कार में शामिल होने से इतर किसी पत्नी द्वारा पति को अंतिम विदाई देने के लिए शमशान घाट पहुँचने का वह वाकया विरल ही था. चंदोला जी की अध्यापिका रही पत्नी ने ऐसा कर के महिलाओं के जज्बे व आत्मबल को एक नई पहचान देने का काम किया था. अन्यथा अपने जीवन साथी को खोने के गम में महिलाएँ शोक से व्याकुल हो उठ पाने की स्थिति में भी नहीं रहती हैं.
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे भी उदाहरण देखने को मिले , जब सास , ससुर की मृत्यु पर पति के न होने की स्थिति में बहुओं ने ही उनका अंतिम संस्कार करने के साथ ही उसके बाद क्रिया की सारी औपचारिकताएँ भी पूरी की और एक पुत्र की भूमिका अपने सास , ससुर की मौत पर निभाई. इस तरह की घटनाएँ उत्तराखण्ड में भी सामने आई हैं. पर आमतौर पर रुढ़ीवादी वाला परम्परागत समाज समझे जाने वाले उत्तराखण्ड में इसका विरोध नहीं , बल्कि स्वागत ही हुआ.
समाज की इसी रूढ़ीवादिता में यह भी परम्परा है कि पति भी पत्नी की मृत्यु पर उसे अंतिम विदाई देने शमशान घाट नहीं जाते. मुझे भी इस रुढ़ीवादिता की जानकारी ईजा की मृत़्यु पर 1 अक्टूबर 2007 को ही हुई थी. जब बाबू ध्यान सिंह रौतेला जी ने अपनी पत्नी को अंतिम विदाई देने के लिए शमशान घाट जाने की बात कही तो ईष्ट मित्रों ने इसके लिए मना किया और कहा कि पति शमशान घाट नहीं जा सकता. पर बाबू ने कहा कि जिसके साथ मैंने जीवन के 50 साल व्यतीत किए और हर दुख, सुख में जो मेरे पास बिना किसी शिकायत के खड़ी रही हो, उसे अंतिम विदा देने क्यों न जाऊँ? और जब 2 अक्टूबर को ईजा का अंतिम संस्कार किया गया तो बाबू अपनी नम ऑखों के साथ ईजा को अंतिम विदाई देने के लिए खड़खड़ी ( हरिद्वार ) के शमशान घाट में मौजूद थे.
डॉ़ जेसी दुर्गापाल ने भी ऐसा ही किया. वे अपनी पत्नी प्रो. सुधा दुर्गापाल को अंतिम विदाई देने न केवल विश्वनाथ शमशान घाट पहुँचे, बल्कि उन्होंने अपनी बेटियों रूप और पारूल के साथ पत्नी की चिता को मुखाग्नि भी दी. उनकी इस पहल ने परम्परागत रूढ़िवादिता न केवल हमला किया बल्कि उसे तोड़ा भी. कई बार समाज की रुढ़ियॉ इसी तरह से चुपचाप व बिना किसी हल्ले के टूटती हैं और तोड़ी जा सकती हैं. रुढ़ियों के खिलाफ लड़ाई इसी तरह सधे और खामोश कदमों के साथ लड़ कर जीती जा सकती हैं.
-जगमोहन रौतेला
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जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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