शंभू राणा

दरातियां, कुदालें, कैस्टो मुखर्जी और ट्रक में गढ़वाल का सफ़र

लगातार छह दिनों तक एक हजार किलोमीटर से कुछ ज्यादा का सफर ड्राइवर के बगल में बैठने के बाद एक बात अनजाने ही समझ में आयी कि जब हम गाड़ी में होते हैं तो पैदल चलने वाले लोग निहायत ही बेवकूफ जान पड़ते हैं. और एक हद तक दूसरी गाड़ियों के ड्राइवर भी कुछ तो वाकई बेवकूफ होते भी होते हैं. हॉर्न सुनकर किनारे हटने के बजाय बीच सड़क में आ जाते हैं या इस किनारे से उस किनारे को दौड़ पड़ेंगे. कुछ लोग पीछे की तरफ इशारा करके लिफट मांगते हैं, जिधर से गाड़ी आ रही होती है. ऐसे लोगों को अगर बेवकूफ न भी कहें तो भी उनका रवैया समझ से परे की चीज होता है. ऐसे में ड्राइवर खासकर ट्रक ड्राइवर के मुखारबिन्दु से जो उद्गार फूटते हैं वह मौके पर की गयी सारगर्भित टिप्पणी जान पड़ते हैं. बल्कि जी चाहता है कि उसके सुर में सुर मिलाया जाय, क्योंकि उसकी बगल में बैठकर आप भी सामने की सारी तस्वीर साफ देख रहे होते हैं. ड्राइवर पर जो दबाव होता है उसे महसूस कर सकते हैं.

बहुत इच्छा थी पर कभी गढ़वाल की तरफ जाने का इतेफाक नहीं हुआ. काफी पुरानी बात है. एक बार एक मित्र ने प्रस्ताव रखा तो थोड़ी झिझक के बाद मन बना लिया. वे मित्र एक संस्था में कार्यरत थे. सरकार ने संस्था को स्कूलों में कृषि यंत्र बांटने की जिम्मेदारी सौंपी थी. इसी काम से सुरेश को चमोली, पौड़ी, टिहरी और उत्तरकाशी जाना था. मार्च महीने की शुरूआत के ही दिन थे जब सुबह सात बजे अल्मोड़ा से ट्रक रवाना हुआ. हल्द्वानी पहुंचे और वहां तीन—चार घंटों तक दरातियां, कुदालें, गैंतियां, फावड़े वगैरा हजारों की तादाद में गिन—गिन कर ट्रक में लादे गये. रात लगभग आठ बजे रानीखेत पहुंचे. रानीखेत में सुबह सात बजे चले और दिन के दो—ढाई बजे करीब चमोली जिले के गौचर जा पहुंचे. वहां सामान की पहली खेप उतार कर श्रीनगर जाकर थमे.

उस समय गढ़वाल में सारे देश से आने वाले तीर्थयात्रियों की रेलमपेल लगी थी. श्रीनगर में हमें सबसे सस्ता होटल तीन सौ रूपये का मिला. होटल वाले ने कहा, अभी—अभी मैंने होटल में दो लाख रूपया खर्च किया है, आप ही बताइये इससे ज्यादा कितना कम करूं?

कमरा ठीक—ठाक था पर दरवाजे में अंगूठे बराबर दो छेद थे. मैंने सुरेश से दरवाजे को लेकर मजाक किया. सुरेश ने होटल के एक कर्मचारी को बुलाकर शिकायत की, ‘भाईजी होटल हमें आपका पसंद आया. मैं सोच रहा था कभी बीबी—बच्चों को साथ लेकर यहां आऊं पर दरवाजा देखिये…. कैसे चलेगा? और कमरा मुझे आपने यही देना है क्योंकि मैं तीन सौ से ज्यादा दूंगा नहीं..’

‘नईं—नईं सर, आप जरूर आईये, मोस्ट वैलकम. मैं कल ही इसमें तख्ता ठुकवाता हूं. कोई दिक्कत नहीं आप प्रोग्राम बनाइये.’

श्रीनगर पहुंचने के लिए जिस तरह का रास्ता तय करना पड़ा उसे देखते हुए यहां पहुंचने पर रेगिस्तान में नखलिस्तान पा जाने का सा एहसास हुआ.

प्रसंग चाहे जो छिड़ा हो, बीच में अपनी बात किस तरह की जाय, यह कला भी श्रीनगर में देखने को मिली. एक रेस्त्रां वाले ने हमसे एकाएक शिकायती लहजे में कहना शुरू किया, ‘यहां कोई वाइन नहीं पीता.’

बात समझ में नहीं आयी. पहले तो ऐसा कोई शहर ढूंढना मुश्किल है जहां कोई शराब नहीं पीता हो, फिर अगर कोई शराब नहीं पीता तो इसमें शिकायत कैसी? उसने शायद हमारी आंखें पढ़ ली, बोला, ‘यहां कोई ढंग की वाइन भी नहीं पीता. कल शाम एक आदमी आया था. मैंने कहा सेवन हंडे्ड की बोतल है. कहने लगा कि बहुत मंहगी है. मैंने कहा भई तुम्हारे वश का नहीं है. जाओ, जाके ठर्रा पी लो..’

‘अच्छा आप रखते हैं?’

‘हां, व्यवस्था हो जाती है, आप जैसा कोई कद्रदान हो तो… कैस्टो मुखर्जी है…’

पता नहीं उसने क्यों हमें शराब का कद्रदान समझ लिया था. और कैस्टो मुखर्जी नाम भी पहली बार सुना. जॉनी वाकर नाम की शराब तो सभी जानते हैं.

लगभग उजड़ चुकी टिहरी से गुजरते हुए एक अजीब सी उदासी ने घेर लिया. नई टिहरी पहुंच कर यह उदासी और घनी हो जाती है. चौड़ी सड़कें, एक कायदे के तहत बनी हुयी ‘डॉल हाउस’ नुमा इमारतों को देखकर कतई खुशी नहीं होती बल्कि एक किस्म का बेगानापन महसूस होता है. जिन्होंने पुरानी टिहरी को अपने वास्तविक रूप में देखा होगा उन्हें यकीनन यह दु:ख ज्यादा गहरायी से महसूस होता होगा. नई टिहरी ‘बनाए हुए रंगों और तराशे हुए फूलों का जश्ने बहारां’ महसूस होती है. हम पहाड़ के लोग जो परम्परागत किस्म की इमारतों में रहने—देखने के आदी होते हैं, एक साथ इतनी आधुनिक तर्ज की इमारतें देखकर न जाने क्यूं उदास हो जाते हैं और अपनत्व महसूस नहीं करते. नई टिहरी की इमारतों को देखकर यूं लगता है जैसे यह सब किसी फिल्मी सैट का हिस्सा है. काम खत्म होते ही जरा देर में सब कुछ उखाड़ लिया जाएगा.

टिहरी बांध सही या गलत, इस बहस को अगर उठा रखें तो भी इसमें तो कोई दो राय नहीं कि टिहरी की तीन—चार पीढ़ियों के लिए यह एक ऐसा घाव है जिसका दर्द जिंदगी भर साथ रहेगा. पुनर्जन्म का सिद्वांत अगर सच है तो टिहरी के सभी अपनी जमीन से उखाड़े गये लोग अगले जन्म में मछलियां बनकर टिहरी बांध में घूमेंगे, अपने घरों में घूमकर उन्हें सहलायेंगे, और यूं उनकी अधूरी ख्वाहिशें शायद पूरी हों.

टिहरी से पहले हमने दुगड्डा के आस—पास एक बूढ़े साधू तीर्थ यात्री को लिफ्ट दी. वेश संन्यासियों का—सा था, पर बाकायदा संन्यासी नहीं थे. पता नहीं गृहस्थ थे या क्या थे, पूछा नहीं. बरेली के आस—पास किसी जगह के रहने वाले थे. साल भर देश के तीर्थ स्थानों में घूमते रहते हैं. बद्रीनाथ—केदारनाथ की तरफ हर साल आते हैं. कोई बिठा ले तो गाड़ी में बैठ जाते हैं, नहीं तो पैदल ही चलते हैं. दिन भर में 15—25 किलोमीटर तक चल लेते हैं. कभी ज्यादा कभी कम. उम्र पूछी तो महात्मा ने हैरान कर दिया 85 साल कह कर. वह कौन सा आकर्षण होगा जो उस जीर्ण—शीर्ण उम्रदराज बूढ़े को इतनी लंबी और कठिन यात्रा करने का हौसला और ताकत देता होगा. इसे अपने अराध्य के प्रति गहरी श्रद्वा कहें या घुमक्कड़ी और मस्ती का नशा कि जब पेड़ की छांव तले हंडिया चढ़ाकर रात बिताने में ही मजा आता है.

इस सफर में एक बात और समझ में आई कि सरकारी कर्मचारी सब जगह एक से होते हैं और एक सी नीरस व किताबी भाषा बोलते हैं. आप जिस कर्मचारी से मिल रहे होते हैं वह अपने विभाग में एक मात्र कर्मठ और ईमानदार आदमी होता है. बाकी सब चोर, बेईमान, कामचोर और काहिल होते हैं….

फलां चीज के लिए जो बजट आया था, उसे खा—पीकर बराबर कर दिया. फर्जी बिल वाउचर लगा दिये. मैं दौरे पर था, वर्ना इनकी हिम्मत नहीं पड़ती. पूरे डिपार्टमेंट में एकमात्र वही शख्स होता है जिसकी वजह से डिपार्टमेंट जैसा भी चले, चल तो रहा है. वर्ना आज तक पूरा ताम—झाम बेच खाया होता. चपरासी से लेकर साहब तक सबका यही हाल है. क्या कहें, किससे कहें, आपसे कह रहा हूं…

बहुगुणाजी का तो हाल सबसे बुरा है … वह आदमी नाम सबके लेता है लेकिन साथ ही यह भी कहेगा कि मैं नाम किसी का नहीं लूंगा, क्या फायदा. आंखिर हमें भी नौकरी करनी है. बड़ा अंधेर है साहब …

और यही एकमात्र सीधा—साधा कर्मठ और ईमानदार आदमी जब जिम्मेदारी लेने की नौबत आती है तो बड़ी सफाई से अपना पल्ला झाड़ लेता है …

इस मामले को चौहानजी डील करते हैं. वो आज हैं नहीं. मैं मानवता के नाते आपकी मदद तो कर रहा हूं पर सामान रिसीव नहीं कर सकता.

बड़कोट/उत्तरकाशी में हमने सामान की आखिरी खेप उतारी. ड्राइवर ने घिसे हुए टायरों को बदलने की भलमनसाहत दिखायी. इसी कोशिश में पिछले पहिए के एक के बाद एक तीन जंग खाये हुए नट टूट गये. बड़कोट एक कस्बानुमा जगह है, नट वहां मिले नहीं. एक रात मजबूरन वहीं रहना पड़ा. सुबह को ड्राइवर जीप में बैठकर नट लेने कहीं आगे की तरफ गया, जहां बताया गया कि नट मिलते हैं. नट मिले पर जरा बड़े. मिस्त्री ने व्यक्तिगत तौर पर दिलचस्पी लेकर ट्रक को ‘अपने टायरों पर खड़े होने लायक’ बना दिया. गाड़ी खाली थी इसलिए रास्ते में कोई दिक्कत नहीं हुयी. एक रात रूद्रप्रयाग में ठहर कर मजे—मजे में अल्मोड़ा पहुंच गये.

इस तरह के सफर में काफी कुछ देखने, सुनने और समझने को मिल जाता है, अनायास ही. जिसमें कुछ कहा जा सकता है और बहुत—सा अनकहा रह जाता है बावजूद कोशिशों के …

अगर मौका मिले तो ऐसे सफर में जाना कई मायनों में फायदे का ही सौदा रहता है.

शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.>

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

  • व्रतांत का वेग और ट्रक की गति में प्रतिस्पर्धा सी है। पहली दस लाइनें पढ़ने पर लगा कि राग दरबारी पढ़ रहा हूं जो गढ़वाल के बैकग्राउंड में चल रही है।

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago