सांसद विकास निधि की भारी भरकम राशि खर्च ही नहीं हो पा रही है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक आम लोगों के विकास पर खर्च होने वाले करीब 12 हजार करोड़ रुपये सांसदों की सुस्ती के चक्कर में या तो खर्च नहीं हो रहे या फिर अटके पड़े हैं. लोकसभा और राज्यसभा के सभी 789 सांसदों के एक पूरे कार्यकाल में 20945 करोड़ रुपये बतौर सांसद निधि आवंटित किए जाते हैं. अब चुनाव सिर पर है लेकिन 4773 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं हुए और यूटिलाइजेशन और ऑडिट सर्टिफिकेट के अभाव में 7300 करोड़ रुपये अटके पड़े हैं. 12000 करोड़ रुपये अभी तक खर्च नहीं हुए या फिर अटके पड़े हैं. ये पैसा खर्च करवाने के लिए अब केंद्र सरकार सभी मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिख रही है.
उत्तराखंड में भी हाल अन्य राज्यों के समान ही है. उत्तराखंड के सांसदों की 41.09 करोड़ रुपये की निधि वर्ष 2018 के प्रारंभ तक खर्च होने को शेष थी. इसमें लोकसभा सांसदों के 24.49 करोड़ रुपये व राज्य सभा सांसदों के 16.59 करोड़ रुपये खर्च होने बाकी हैं. आरटीआइ में प्राप्त जानकारी के अनुसार लोकसभा सांसदों में सिर्फ ऊधमसिंहनगर क्षेत्र के सांसद भगत सिंह कोश्यारी को ही वित्तीय वर्ष 2017-18 में धनराशि स्वीकृत हुई है. उन्हें वित्तीय वर्ष 2014-15 से 2017-18 तक के लिए 17.80 करोड़ रुपये स्वीकृत हुए हैं, जिसमें से वे 11.18 करोड़ रुपये खर्च कर चुके हैं. वहीं, राज्यसभा सांसद में सिर्फ प्रदीप टम्टा को ही वर्ष 2017-18 में निधि मिल पाई है. उन्हें वर्ष 2016-17 व 2017-18 के लिए पांच करोड़ रुपये मिले थे, जिसमें से वर्ष 2018 के आरंभ तक 3.08 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए थे. अल्मोड़ा क्षेत्र, अजय टम्टा को वर्ष 2014-15 से 2015-16 तक 7.69 करोड़ रुपये की वित्तीय स्वीकृति मिली और 4.85 करोड़ रुपये खर्च हो पाए. हरिद्वार क्षेत्र, रमेश पोखरियाल निशंक की वर्ष 2015-16 व 2016-17 की 15.80 करोड़ रुपये की निधि के सापेक्ष 10.95 करोड़ की राशि ही खर्च हुई. पौड़ी क्षेत्र, बीसी खंडूड़ी को वर्ष 2014-15 से 2015-16 में 7.50 करोड़ रुपये मिले और 5.27 करोड़ रुपये खर्च किए जा सके. टिहरी क्षेत्र, माला राजलक्ष्मी शाह को 2014-15 से 2016-17 तक 18.64 करोड़ रुपये प्राप्त हुए और इसमें 13.55 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए.
किसी सांसद का कार्यकाल खत्म होने के 18 महीने के भीतर उसके इलाके का काम पूरा कर सर्टिफिकेट जिला या नोडल अधिकारी को जमा कराना होता है. इसे यूटिलाइजेशन सर्टिफेकेट (उपयोग प्रमाण पत्र) कहते हैं। साथ ही कामकाज के ऑडिट का भी प्रमाण पत्र ऑडिटर से लेना होता है. सांसद निधि के कामकाज के यही प्रमाण पत्र या तो पहुंचते नहीं हैं और अगर पहुंचते भी हैं तो आधे-अधूरे होते हैं. किसी में सांसद का नाम नहीं होता तो किसी में ऑडिटर की मुहर नहीं होती है. इसके चलते प्रमाण पत्र पास नहीं होते हैं और आम जनता के विकास के हिस्से के करोड़ों रुपये फंसे रहते हैं.
सांसद निधि के दायरे में किए जाने वाले विकास कार्यों पर अब तकनीक के जरिए नजर रखी जाएगी. इसके लिए सांसद जिन जगहों पर विकास कार्यों की सिफारिश करेंगे, उसकी जियो टैगिंग की जाएगी और मोबाइल एप के जरिए कामकाज में हो रही प्रगति की जानकारी रखी जाएगी. उन कार्यों की स्थिति की जानकारी सरकार के साथ मतदाता को भी मिलेगी. सांसदों के रकम न खर्च कर पाने का खामियाजा इलाके की जनता को उठाना पड़ता है.
बड़े पैमाने पर सांसद निधि रुकीं दरअसल, पैसा खर्च न होने की वजह से सांसद निधि की अगली किस्त भी फंस जाती है. देशभर में सांसद निधि की कुल 2920 किस्तें अटकी हैं. सांसद निधि की एक किस्त 2.5 करोड़ रुपये होती है. इस तरह इन किस्तों को अगर रकम में जोड़ें तो यह आंकड़ा 7,320 करोड़ रुपये का होता है.
पूर्व में केंद्र सरकार सांसदों की निधि योजना की राशि पांच करोड़ से बढ़ाकर सालाना 25 करोड़ करने पर विचार कर रही थी. सांसद निधि बढ़ाने का प्रस्ताव वित्त मंत्रालय को भेजा जा चुका था. इससे पहले संबंधित कमेटी की मीटिंग 1 जुलाई 2013 को हुई थी. इसमें सांसद निधि 5 से दस करोड़ करने की सिफारिश की गई थी. योजना 1993-94 में शुरू की गई थी. उस समय पांच लाख रुपए सांसद को विकास कार्य के लिए खर्च करने के लिए दिए जाते थे. वर्ष 1994-94 में सांसद निधि योजना में खर्च की सीमा एक करोड़ रुपए की गई थी. 1989-99 में बढ़ाकर 2 करोड़ और 2011-12 में पांच करोड़ रुपए सालाना किया गया है.लेकिन सवाल यहीं उठता है कि जब पांच करोड़ खर्च नहीं हो सकें तो 25 करोड़ कैसे खर्च होंगें?
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