चंद दिन ही हुए हैं, जब कुलदीप शाहदाना वली के मजार से चालीस दिन जंजीरों में कैद के बाद रिहा हुए. एक पैर में अभी भी पाजेब की तरह चेन बंधी है, जिसमें छोटा सा ताला लटका है. दलित परिवार में जन्मे कुलदीप कभी ताइक्वांडो के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं और जवानी में ही डॉ.आंबेडकर के लेखन और विचारों से प्रभावित होकर समाज को बेहतर बनाने की कोशिश में लग गए. कुछ समय बाद वामपंथी छात्र संगठन के संपर्क में आकर उसके सक्रिय कार्यकर्ता भी हो गए.
जिंदगी की उथल-पुथल शुरू हुई तो उनसे जुड़े ‘उच्च कोटि’ के विचारों वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पल्ला झाड़ लिया. समाज ने सिर्फ तमाशा बनाया और आनंद लिया. उस वक्त भी जब उन्हें जबरन मजार की कथित पुलिस कैद करके ले गए, बेशक! परिजनों की मर्जी से. कुलदीप अकेले लड़े और मानसिक अवसाद में घिर गए. आज भी उनके साथ तमाम परेशानियां हैं, लेकिन वैचारिक मामलों में वे अडिग हैं.
उनसे जब पूछा कि क्या अब भी वे आंबेडकर या कम्युनिस्ट विचारों को ठीक मानते हैं. जवाब दिया, “हां, लेकिन इन विचारों को लेकर चल रहे ज्यादातर लोग पाखंड कर रहे हैं. आंबेडकरवादियों के कार्यक्रम में ही मैंने ये ऐलान सुना कि जिनका आज नवमी का व्रत है, उनका खाने का अलग बंदोबस्त है. इसी तरह कम्युनिस्ट दोस्तों का इस तरह दूरी बनाने से समझ में आता है कि उनकी कतारें जहां की तहां क्यों ठहरी हैं, ये दुखद है. ’’
कुलदीप देश के माहौल से दुखी हैं. उनका मानना है कि जब आंबेडकरवाद, मार्क्सवाद जैसी विचारधाराएं हथियार डाले बैठी हों, वहां लोग पागल ही हो सकते हैं. ये पागलपन है. ऐसे लोग मेरे आसपास हैं, वे मुझे पागल कहकर खुश होते हैं, खुद आईना नहीं देखते. उनको समझाने वाले भी शायद नहीं हैं, या उनका गलत इस्तेमाल किया जा रहा है.
आज ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ के मौके पर कुलदीप की बातों को बारीकी से समझने की जरूरत हैं. वे कोई नामचीन बुद्धिजीवी नहीं हैं, लेकिन जीवन का जो सबक सीखा है, वह मार्के का है. ऐसे ही जूझते हुए उन्होंने एमफिल करके पुस्तक भी लिखी है.
कुलदीप की बातों को आंकड़ों से भी समझा जाए. संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि दुनियाभर के 42 देशों में लगभग 132 मिलियन लोगों को मानवीय सहायता की जरूरत है, वे हालात के शिकार होकर अवसाद से घिरे हैं. विश्वभर में लगभग 69 मिलियन लोग हिंसा और संघर्ष से जबरन विस्थापित हो चुके हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे अधिक संख्या है.
डब्ल्यूएचओ के एक अध्ययन में कहा गया है कि कम से कम 6.5 प्रतिशत भारतीय आबादी गंभीर मानसिक विकार से पीडि़त है. उनके बेहतर उपचार की व्यवस्था भी नहीं है. मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक और मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बहुत कमी है. वर्ष 2014 की रिपोर्ट बताती है कि हर एक लाख लोगों में एक प्रतिशत मनोरोगी हैं. भारत में औसत आत्महत्या की दर प्रति लाख लोगों पर 10.9 है और आत्महत्या करने वाले अधिकांश लोग 44 वर्ष से कम उम्र के हैं.
ऐसा क्यों? सिर्फ इसलिए कि गरीबी, बेकारी, उत्पीडऩ की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों से जूझ रहे लोगों में तनाव और अवसाद हिंसक घटनाओं में तब्दील हो रहा है. उनको उकसाने का काम सियासी लोग कर रहे हैं. उनकी बुद्धि-विवेक काल्पनिक दुश्मनों को तलाशने, उसके प्रति हिंसा करने, काल्पनिक दुश्मन पर कहर खुशी का अहसास बनता जा रहा है.
कुछ भी होता रहे, ऐसे लोग या तो तमाशबीन हैं या फिर तमाशे के किरदार. उनके पास कोई वैज्ञानिक समाधान नहीं है और तर्कहीनता के शिकार हैं. सैंकड़ों वर्ष पुरानी आदतें और मूल्यों से उपजी मानसिकता कुंठा ने उन्हें इस चौखट पर ला पटका है, भले वे शिक्षित हों या अनपढ़.
शायद इसी का नतीजा है कि बड़े पैमाने पर धार्मिकता और देशभक्ति का माहौल होने के बावजूद पोर्न साइट्स के विश्व में तीसरे नंबर के उपभोक्ता भारत के हैं. हत्याओं व हिंसा में अमानवीयता की पराकाष्ठा का एक के बाद एक नया रिकॉर्ड बनता जा रहा है. ऐसी खबरों से अखबार पटे रहते हैं.
बरेली में रहने वाले आशीष सक्सेना अमर उजाला और दैनिक जागरण अखबारों में काम कर चुके हैं. फिलहाल दैनिक जनमोर्चा के सम्पादक हैं.
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