Featured

पहाड़ों में जाड़े के जतन

अब ठंड के मौसम में कितना ही जतन करो,ओढ़ो-ढको. बिना आंग तापे बदन सेके, थुरथुराट दूर कहाँ होती. लकड़ी क्वेले सुलगाये बगैर अकड़ा बदन गर्माता ही कहाँ? काम के जोर में नहीं आता. तो कुकुड़िये रहने से बचने को घर में धुरमन्न हुई रहती. इनके लिए बण या बन जाना ही हुआ. (Winter in the Mountains)

पहाड़ में घर की सेणियों का खेतों में काम से लेकर जंगलों से घास लकड़ी लाने को ‘बण जै रै’ ही कहा जाता. इसके लिए जंगलों से लकड़ी बीन, गिरे पड़े गिंडे घर कुड़ी तक सार, बनकट्टे से फाड़ एकबटया दिये जाते. जंगल से लकड़ी सारने के भी तय वार दिन होते.

जब सुबह ही कलेवा कर घर की सैणीयाँ पूरा जत्था बना जंगल में दूर दूर तक निकल पड़तीं. भारी माल बटोरने मेंस भी निकल जाते, बनकट्टा-कुल्हाड़ी ले. हर गाँव के इलाके भी बंटे होते. सेणियों के हाथों में सधी दातुली काट-कूट शुरू कर देती. फिर दोपहरी या शाम तक ही लौटना होता तो रोटी भी बांध  ली जाती. साथ में तेज दराती  या बड्याट के साथ गट्ठा बाँधने को रस्सी भी होती.

कई सेणियों को तो नंगे ही पाँव चलने की सार पड़ जाती. कइयों के पाँव पे तो जैसे टायर ही ठुक जाते. गीले सूखे पर चलने से पाँव में दरारें पड़ जातीं. कदया पड़ जाते जो बहुत खुजाते. इससे बचने को मोम तेल लगाया जाता.

पहाड़ में ऊँचा नीचा चलना ही हुआ. घामांग पार करने हुऐ. फिर जंगल धूरे में जाते काणे-कन्नेल्लू, केड़-कुमर लगने ही हुए. तो रामबांस, करौद, बेल के भुया भुत्ति भी जिनके लम्बे मजबूत कांटे लुकुड़े भी फाड़ते, खरोंच भी लगाते.

सिनाड़ या सिसूण की झाड़ी से भी बचना हुआ और कोंच से भी, जिसके छूते ही इधर उधार खुजली फैलती. रुखों में चढ़ना भी हुआ. रुख-डाव सब चाने हुऐ. अब कई हांग-फांग कच्चे भी हुऐ. घनी झाड़ियां होती इनको घाड़ि कहते. रढेलकि घाड़ि, रामबांसेकि घाड़ि के बीच क्याड़ केड़ी, क्याड़-म्याड़ से बचते चलना निकलना होता.

जंगली जानवर भी हुऐ जंगल में. तो पतरोल की झसक भी बनी रहती. लकड़ी लाने की पहले छूट मिलती जो हक़ हकूक कही जाती. बाद-बाद तक लकड़ी पर जंगलात के अफसरों की सख़्ती भी बढ़ी तो बोल भी फूटे :

बांजा का धुरा झन जाये, ओहिरू दातुलै झनकै रै.
मेरी दातुली  पकड़ि जाली, ओ हिरू कलेजी दुखैली

कई बार तो काणे झिकड़े जलाने की नौबत आती. पर ‘आग तापण हुँ केड़पात एकबोटयूण जरुरी भै’. ऐसे ही बांज की सूखी पतली टहनी पे भी सबकी नज़र रहती.  पेड़ की सूखी पतली टहनी क्यड़ कही जाती. खूब सारी जमा हो जाएं तो क्याड़. जैसे, बांजक क्याड़. पर क्या काटना है? क्या बचाना है? की परंपरा भी रहती :

बांज णी काटो हो भौजी रूपसि भौजी बांज नि काटो.
बांज नि काटो तेरे खुटी सलाम भौजी बांज नि काटो.
बांज नि काटो चौमासि  चिफाई डाली भौजी बांज नि काटो.
बांज नि काटो बकरि  उजड़ि जालि  भौजी बांज नि काटो.
बांज नि काटो पराणि बांजि  डाई  भौजी बांज नि काटो.
तुणी नि कटा हो भौजी दुर्गा तुनि  नि काटा.
तुणी  नि काटा तूणी को श्योला भेटुलौ तुणी नि काटा.

अब जंगलों पे सरकारी होने का फरमान होने पर भी बोल फूटे :

सरकारी जंगल छिना  बांज नि काट लछिमा,बांज नि काट.
यो हमारा  घूरि  जंगवा  बांज नि काट लछिमा,बांज नि काट.

तो फिर खुण भी बटोरे जाते जो झाड़ी या पेड़ की सूखी हुई जड़ या कटे  पेड़ का ठूंठ होता. इन्हें जमीन से उखाड़  घर कुड़ी तक सारा जाता जिससे जाड़ों में आग सेंकी जा सके. च्वेड़ यानि पेड़ कि छाल और जाड़ मुल और झेडि या झयड़ यानि बोटों के पतले टुकड़े और पतली सूखी टहनी भी जमा होती जो आग सुलगाने  में मदद करते.

सूखे डॉव, डाल, डॉव-बोट जो ज्यादातर फलदार या सजावटी पौंधे होते, को भी काट-छांट ढेर बना लेते. तो भिगुल, बांज जैसे पेड़ों की पत्तीदार टहनियों के ढावण भी. पेड़ों की सूखी छाल भी जमा की जाती जिसे बगेट या फगेट कहा जाता. जैसे बांजाक फगेट, भिगुलाक  बगेट, सावाक बगेट, चीड़ाक बगेट.

चीड़ के बगेट या बक्कल तो ताँबे, लोहे कि भट्टी दहकाने के साथ सुनारों की भट्टी को भी सुलगाते. पेड़ की मोटी शाखा या लाङ्ग बण में ही कुल्हाड़ी, बनकट्टे से काट कूट कर घर तक सारी जाती. बण में जो भी रुख, बोट, लाङ्ग, हाङ्ग , खुम, पतेल होते उन्हें भी काम में लाते. 

अब ठंड में चाख पे,गोठों में भी सग्गड़ सुलगाने जो होते. बांज के क्वेले भी इसकी लकड़ी की तरह खूब टिकते. सोते समय इनको राख से छोप भी देते ताकि गर्मी भी रहे और सुबे तक गोठ भी तता रहे. गोठ बहुत बड़े और ऊँचे नहीं बनाये जाते ताकि छोटे होने से हाड़ कंपाने वाले जाड़े में भी ये गरम रहें. खिड़कियां दरवाजे भी छोटे ही रहते. कई दरवाजों में तो सर झुका के जाना पड़ता, फिर उसकी सार ही पड़ जाती. 

रसोई में सुबह दिन शाम होते ही चूल्हा जलता तो बाहर पानी तताने के लिए भी लकड़ी जलती. सग्गड़ की गरम राख में साबुत छिलके सहित आलू डाल दिये जाते जो धीमी आंच में खूब बढ़िया सिक जाते. फिर इनको चिमटे से निकाल राख झाड़,गरमा –गरम, मर्च लूण की टपुक लगा खाया जाता. आलू की तरह ही गड़ेरी, गेठी, शकरकंदी भी राख में घोप के सेक के खायी जातीं. कभी-कभी आद या अदरक भी घोल डाली जाती. फिर दांतों से कटकटा चाब चूस ली जाती. ये गरम भी होती और गले के लिए भी बढ़िया. मामूली खांसी का तो इलाज ही हुआ. (Winter in the Mountains)

मारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago