‘सेपीयन्स’ ‘होमो डेयस’ और ‘21 लेसन फॉर 21 फर्स्ट सेंचुरी’ आदि किताबों के लेखक युवाल नोहा हरारी के कोरोना महामारी के वक्त में लिखे गए लेख इस समय दुनिया भर में चर्चित हैं. ‘द गार्डियन’ में प्रकाशित मूल लेख (Will Coronavirus Change Our Attitudes to Death? Quite the Opposite) का अनुवाद कविता रतूड़ी ने किया है -संपादक
आधुनिक दुनिया का यह विश्वास कि इंसान मौत को मात दे सकते हैं और हरा सकते हैं, अपने आप में यह एक क्रांतिकारी और नया दृष्टिकोण था. ऐतिहासिक रूप से मनुष्य मृत्यु को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते रहे हैं. आधुनिक युग के अधिकांश धर्मों और विचारधाराओं ने मृत्यु को मानव के न केवल अपरिहार्य भाग्य के रूप में देखा, बल्कि जीवन का अर्थ ही मृत्यु बताया जो कि मानव अस्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना है, जिसके बाद ही हमें पता चला की असल में जीवन के असली रहस्यों को जानने के लिए ही हम इस धरती पर आए थे. स्वर्ग, नरक या पुनर्जन्म की अवधारणा के बगैर दुनिया के तमाम धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम और हिंदू धर्म का कोई मतलब नहीं होता. इतिहास के अधिकांश सर्वश्रेष्ठ मानव मस्तिष्क मौत का अर्थ खोजने में व्यस्त थे वह इसे हराने की कोशिश नहीं कर रहे थे.
‘द एपिक ऑफ गिलगमेश’ महाकाव्य के मिथक ‘ऑर्फ़ियस’ और ‘यूरीडिस’, बाइबल, कुरान, वेद और अनगिनत अन्य पवित्र पुस्तकों और किस्सों के मार्फत धैर्यपूर्वक समझाया कि हम मरते हैं क्योंकि भगवान या ब्रह्मांड, या मातृ प्रकृति (मदर नेचर) का यही नियम है, और हमने उस नियति को विनम्रता और अनुग्रहपूर्वक स्वीकार किया था. शायद किसी दिन ईश्वर मसीह के दूसरे आगमन और आध्यात्मिक इशारे के माध्यम से मृत्यु समाप्त हो जाएगी यद्यपि इस तरह का प्रलय मांस और रक्त से बने मनुष्य की शक्ति से बाहर है. कोरोनावायरस के अंत के बाद की दुनिया
फिर वैज्ञानिक क्रांतियां हुई वैज्ञानिकों के लिए, मृत्यु एक दिव्य फरमान नहीं है उनके लिए यह केवल एक तकनीकी समस्या है. मनुष्य इसलिए नहीं मरता क्योंकि भगवान ने ऐसा कहा बल्कि इसके पीछे वह कुछ तकनीकी गड़बड़ को कारण मानते हैं वह कारण है कि हमारा हृदय रक्त पंप करना बंद कर देता है. कैंसर ने लिवर को नष्ट कर दिया है। वायरस फेफड़ों में दोगुने रूप से वृद्धि करते हैं, इन सभी तकनीकी समस्याओं के पीछे क्या कारण जिम्मेदार है? हृदय रक्त पंप करना बंद कर देता है क्योंकि पर्याप्त ऑक्सीजन हृदय की मांसपेशी तक नहीं पहुंचती है. कुछ मौकों पर यह आनुवांशिक उत्परिवर्तन के कारण यकृत में कैंसर की कोशिकाएँ फैलने से भी होता है. हो सकता है कि वायरस मेरे फेफड़ों में बस गए हों क्योंकि आज बस में किसी ने छींका था और इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है.
विज्ञान मानता है कि हर तकनीकी समस्या का एक तकनीकी समाधान होता है. मृत्यु से उबरने के लिए हमें मसीह के दूसरे रूप में आने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है. अब ‘लैब’ में दो वैज्ञानिक इसे संभव बना सकते हैं. जबकि परंपरागत रूप से मौत पुजारियों और धर्मशास्त्रियों के हाथ की विशेषता थी, अब यह सफेद लैब कोट पहने लोगों के हाथ में है. यदि हृदय फड़फड़ाता हो तो हम इसे एक पेसमेकर के साथ फिर से उत्तेजित कर सकते हैं, यहां तक कि एक नए हृदय का प्रत्यारोपण भी कर सकते हैं. यदि कैंसर फैलता है, तो हम इसे विकिरण/ कीमो थेरपी से ख़त्म कर सकते हैं. यदि वायरस फेफड़ों में फैलते हैं, तो हम उन्हें कुछ नई दवाओं से कम कर सकते हैं.
सच है, वर्तमान में हम सभी तकनीकी समस्याओं को हल नहीं कर सकते, हम अभी समाधान के किए काम कर रहे हैं. सर्वश्रेष्ठ मानव मस्तिष्क अब अपना समय मृत्यु का अर्थ खोजने की कोशिश में नहीं बिताते हैं, इसके बजाय, वे जीवन का अर्थ और विस्तार करने में व्यस्त हैं. वे रोग और बुढ़ापे के लिए जिम्मेदार सूक्ष्मजीवविज्ञानी, शारीरिक और आनुवंशिक प्रणालियों की जांच कर रहे हैं और नई दवाओं और क्रांतिकारी उपचार विकसित कर रहे हैं.
जीवन का विस्तार करने में, मनुष्य उल्लेखनीय रूप से सफल रहे हैं. पिछली दो शताब्दियों में, पूरी दुनिया में औसत जीवन प्रत्याशा 40 साल से 72 तक और कुछ विकसित देशों में 80 से अधिक हो गई है. आज विशेष रूप से बच्चे मौत के चंगुल से बच निकलने में सफल रहे हैं। 20 वीं शताब्दी तक, कम से कम एक तिहाई बच्चे वयस्कता तक नहीं पहुंच पाते थे. ‘यंगस्टर्स’ आज, बचपन की बीमारियों जैसे कि पेचिश, खसरा और चेचक से उभर चुके हैं. 17 वीं शताब्दी के इंग्लैंड में, प्रत्येक 1,000 नवजात शिशुओं में से लगभग 150 की मृत्यु उनके पहले वर्ष के दौरान होती थी, और केवल 700 शिशु ही 15 साल की उम्र तक पहुंच पाते थे. आज, 1,000 में से पाँच ‘इंग्लिश’ बच्चे अपने पहले वर्ष के दौरान मर जाते हैं और 993 जीवन को भरपूर जीने का मौका पाते हैं, पूरे विश्व में, बाल मृत्यु दर अब 5% से कम है.
जीवन को सुरक्षित और लम्बा करने के हमारे प्रयास में मनुष्य इतना सफल रहा है कि हमारे विश्वदृष्टि में भी अब गहरा बदलाव आया है. जबकि पारंपरिक धर्म 18 वीं शताब्दी से उदारवाद, समाजवाद और नारीवाद जैसी विचारधाराओं के बाद अब मनुष्य मृत्यु के बाद के जीवन के विषय में उतनी रुचि नहीं रखते हैं. हम सवाल पूछ सकते हैं एक कम्युनिस्ट की मृत्यु के बाद उसके साथ क्या होता है कि वह सचमुच मर जाता है? क्या होता है एक पूंजीपति के साथ और नारीवादी के साथ भी? कार्ल मार्क्स, एडम स्मिथ या सिमोन द बोउआर के लेखन में उत्तर की तलाश करना व्यर्थ है.
एकमात्र आधुनिक विचारधारा जो अभी भी मृत्यु को केंद्रीय भूमिका में रखता है वह राष्ट्रवाद है. अपने सर्वश्रेष्ठ काव्यात्मक और हताश क्षणों में, राष्ट्रवाद वादा करता है कि जो भी राष्ट्र के लिए मरता है, वह सामूहिक स्मृति में हमेशा के लिए जीवित रहेगा. फिर भी यह वादा इतना फ़र्ज़ी है कि अधिकांश राष्ट्रवादी वास्तव में इसका असल मतलब तक नहीं जानते हैं, आप वास्तव में स्मृति में कैसे “जीवित” रह सकते हैं? यदि आप मर चुके हैं, तो आप कैसे जानते हैं कि लोग आपको याद करते हैं या नहीं? वुडी एलन से एक बार पूछा गया था कि उनके मरने के बाद क्या उन्हें बतौर फिल्ममेकर्स याद रखे जाने की उम्मीद है. एलन ने उत्तर दिया “इसके बजाए मैं अपने अपार्टमेंट में ‘रहना’ पसंद करूंगा” कई पारंपरिक धर्मों का इस पर ध्यान केंद्रित है, मगर मृत्यु बाद के जीवन में स्वर्ग का वादा करने के बजाय कोई इस जीवन में आपके लिए क्या कर सकते हैं यह महत्वपूर्ण है.
क्या वर्तमान महामारी मृत्यु के प्रति मानवीय दृष्टिकोण को बदल देगी? शायद ऩही. या इस सब के विपरीत कुछ और ही होने जा रहा. कोविद -19 शायद मानव जीवन की रक्षा के हमारे प्रयासों में दोगुना इजाफा कर देगा. यह कोविद -19 के विरुद्ध प्रमुख सांस्कृतिक प्रतिक्रिया नहीं बल्कि यह नाराजगी और आशा का मिश्रण है.
जब मध्ययुगीन यूरोप जैसे एक पूर्व-आधुनिक समाज में महामारी का प्रकोप हुआ, तो बेशक लोगों को अपने जीवन के लिए डर था और प्रियजनों की मौत का भय था जबकि मुख्य प्रतिक्रिया सांस्कृतिक परित्याग के रूप में सामने आयी. मनोवैज्ञानिक इसे “सीखी हुई असहायता” कह सकते हैं. लोग खुद के जीवन और मृत्यु को भगवान की इच्छा बताने लगे थे और मानव जाति के पापों और दैवीय दोषों के बारे में बात करने लगे थे कि “भगवान जानता है कि हम दुष्ट इंसान इसके लायक हैं. और अंत में सब अच्छा होगा चिंता न करें, अच्छे लोगों को स्वर्ग के रूप में उनका इनाम मिलेगा इसलिए दवा की तलाश में समय बर्बाद न करें. यह रोग हमें दंड देने के लिए भगवान द्वारा भेजा गया था. जो लोग सोचते हैं कि मानव इस महामारी को अपनी सरलता से दूर कर सकते हैं, वे केवल घमंड और पाप को अपने अन्य अपराधों से जोड़ रहे हैं. हम भगवान की योजनाओं को विफल करने वाले कौन होते हैं.”
उपयुक्त दृष्टिकोण आज ध्रुवीय रूप से विपरीत दिशा में हैं. जब भी कोई आपदा लोगों को मार देती है, एक ट्रेन दुर्घटना, आग, यहां तक कि तूफान हम इसे दैवीय दंड या अपरिहार्य प्राकृतिक आपदा समझने के बजाय रोकने योग्य मानव विफलता के रूप में देखते हैं. यदि नगरपालिका ने बेहतर अग्नि नियमों को अपनाया हो, और यदि सरकार ने मदद जल्दी भेजी होती और ट्रेन कंपनी ने अपने सुरक्षा बजट पर कोई रोक नहीं लगाई होती तो संभवत इन लोगों को बचाया जा सकता था. 21 वीं सदी में सामूहिक मौत मुकदमों और जांच का एक स्वत: कारण बन गई है.
अब विपत्तियों के प्रति भी हमारा यही रवैया है, कुछ धार्मिक प्रचारक एड्स को समलैंगिक लोगों के लिए ईश्वर की सजा के रूप में वर्णन करने की जल्दी में रहे, आधुनिक समाज ने अपनी इस भयावह भयावहता पर विचार किया और इन दिनों हम एड्स, इबोला और अन्य हालिया महामारियों के प्रसार को संगठनात्मक विफलताओं के रूप में देखते हैं. हम मानते हैं कि मानव जाति के पास इस तरह की विपत्तियों को रोकने के लिए आवश्यक ज्ञान और उपकरण हैं, और यदि कोई संक्रामक बीमारी अभी भी नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो यह ईश्वरीय क्रोध के बजाय मानवीय अक्षमता के कारण है. कोविद -19 इस नियम का अपवाद नहीं है. संकट दूर है, फिर भी दोष आरोपण का खेल शुरू हो चुका है. विभिन्न देश एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं. प्रतिद्वंद्वी राजनेता बिना पिन के हथगोले की तरह एक से दूसरे पर जिम्मेदारी फेंकते हैं.
नाराजगी के साथ-साथ, आशा भी है, हमारे नायक कोई पुजारी नहीं है जो मृतकों को दफनाने के लिए आते हैं और विपत्ति को इसका कारण बताते हैं बल्कि हमारे नायक जीवन को बचाने वाले मध्यस्थ हैं. हमारे सुपर-हीरो प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक हैं. जैसा कि फिल्मकारों को पता है कि स्पाइडरमैन और वंडर वुमन अंततः बुरे लोगों को हराएंगे और दुनिया को बचाएंगे, हमें भी पूरा यकीन है कि कुछ महीनों के भीतर शायद एक साल में, लैब में कार्यरत लोग कोविद -19 के प्रभावी उपचार के साथ उपस्थित होंगे, हो सकता है कि वैक्सीन भी बना सकें जो इस कोरोनोवायरस का अंत कर सकने में मदद कर सके. आज व्हाइट हाउस से वॉल स्ट्रीट से इटली तक की बालकनियों में हर किसी के होंठों पर सवाल है: “वैक्सीन कब तैयार होगी?”
जब वैक्सीन वास्तव में तैयार हो जाएगी और महामारी खत्म हो चुकी होगी तब संकट में गुज़रा समय मानवता के लिए क्या सीख छोड़ेगा? क्या हमें मानव जीवन की रक्षा के लिए और भी अधिक निवेश करने की आवश्यकता है. हमें अधिक अस्पताल, अधिक चिकित्सक, अधिक नर्सों की आवश्यकता है. हमें अधिक श्वसन मशीनों, अधिक सुरक्षात्मक गियर, अधिक परीक्षण किटों को स्टॉक करने की आवश्यकता है. हमें अज्ञात रोगजनकों पर शोध करने और उपचार विकसित करने में अधिक पैसा लगाने की आवश्यकता है. हम एक बार पुनः इस तरह की बीमारी के चपेट में खुद को सौंप देना ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते.
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि यह गलत सबक है, संकट हमें विनम्रता सिखाता है. हमें प्रकृति की शक्तियों को अपने अधीन करने की क्षमता के बारे में सुनिश्चित नहीं होना चाहिए. इनमें से कई मध्ययुगीन हैं, जो 100% निश्चित होने के दौरान विनम्रता का प्रचार करते हैं कि उनके पास सभी सवालों और आपदाओं के सही उत्तर हैं। एक पादरी जो डोनाल्ड ट्रम्प के कैबिनेट के लिए साप्ताहिक बाइबिल अध्ययन का नेतृत्व करता है, ने तर्क दिया है कि यह महामारी भी समलैंगिकता के लिए दैवीय सजा है, लेकिन आजकल भी परंपरा के अधिकांश ‘पैरागनों’ ने शास्त्र के बजाय विज्ञान पर अपना भरोसा रखा हुआ है. कैथोलिक चर्च लोगों को चर्चों से दूर रहने का निर्देश देता है. इज़राइल ने अपने आराधनालय बंद कर दिए हैं. इस्लामी गणतंत्र ईरान लोगों को मस्जिदों में जाने से हतोत्साहित कर रहा है. सभी प्रकार के मंदिरों और संप्रदायों ने सार्वजनिक समारोहों को निलंबित कर दिया है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने इन पवित्र स्थानों को बंद करने की सिफारिश की है.
बेशक, हमें मध्ययुगीन होने के मानव हब्रीस सपनों के बारे में चेतावनी नहीं देता है. यहां तक कि वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत होंगे कि हमें अपनी अपेक्षाओं में यथार्थवादी होना चाहिए और हमें जीवन की सभी आपदाओं से बचने के लिए डॉक्टरों की शक्ति में अंध विश्वास विकसित नहीं करना चाहिए. जबकि समग्र रूप से मानवता इस समय किसी भी समय से अधिक शक्तिशाली है. शायद आगे आने वाली एक या दो सदी में विज्ञान मानव जीवन को अनिश्चित काल तक विस्तारित कर सकेगा. मुट्ठी भर अरबपतियों के संभावित अपवाद के अलावा हो सकता है कि हम सभी आने वाले दिनों में मर जायें, हम सभी अपने प्रियजनों को खो दें, हमें सभी संभावनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए.
सदियों से, लोगों ने धर्म को एक रक्षा तंत्र के रूप में इस्तेमाल किया, यह विश्वास करते हुए कि वे जीवनकाल के बाद भी एक जीवन मौजूद होगा. अब लोग कभी-कभी विज्ञान को एक वैकल्पिक रक्षा तंत्र के रूप में उपयोग करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि डॉक्टर हमेशा उन्हें बचाएंगे और यह कि वे अपने अपार्टमेंट में हमेशा जीवित रहेंगे. हमें यहां एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, हमें महामारी से निपटने के लिए विज्ञान पर भरोसा करना चाहिए, लेकिन हमें अपनी व्यक्तिगत मृत्यु के भय से निपटने का बोझ स्वयं ही उठाना चाहिए.
वर्तमान संकट वास्तव में कई व्यक्तियों को मानव जीवन और मानव उपलब्धियों की सहज और क्षणिक प्रकृति के बारे में अधिक जागरूक बना सकता है. फिर भी, हो सकता है हमारी आधुनिक सभ्यता शायद इसे विपरीत दिशा में लेकर जाए. इसकी नाजुकता की याद दिलाते हुए, जब वर्तमान संकट खत्म हो जाएगा तो मुझे उम्मीद नहीं है कि हम दर्शन विभागों के बजट में उल्लेखनीय वृद्धि देखेंगे. लेकिन मुझे यह भी यकीन है कि हम मेडिकल स्कूलों और हेल्थकेयर सिस्टम के बजट में भारी वृद्धि देखेंगे. शायद यही ‘सर्वोत्तम’ है जिसकी हम उम्मीद कर सकते हैं. किसी भी तरह की सरकारें दर्शन (यानि मनुष्य के जीवन का अर्थ बताने) में बहुत अच्छी नहीं हैं. यह उनका कार्यक्षेत्र (डोमेन) भी नहीं है. सरकारों को वास्तव में बेहतर स्वास्थ्य प्रणालियों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए. बेहतर ‘दर्शन’ यानि ‘फिलोसोफी’ का अध्ययन चिंतन करना व्यक्तियों पर छोड़ देना चाहिए. डॉक्टर हमारे जीवन के अस्तित्व की पहेली को नहीं सुलझा सकते, लेकिन वे हमें इस बीमारी से निपटने के लिए कुछ और समय दे सकते हैं. उस समय का हम क्या करते हैं, वह हमारे ऊपर है.
उत्तराखण्ड मूल की कविता रतूड़ी ने जेएनयू के जेंडर स्टडीज सेंटर से ‘नेपाल के जनयुद्ध में महिलाओं की भागीदारी’ विषय पर पीएचडी की है. फिलहाल काठमांडू, नेपाल में स्वतंत्र रिसर्च स्कॉलर के तौर पर काम कर रही हैं.
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