पिछले एक वर्ष में हिंदुस्तान में कोरोना महामारी से लगभग दो लाख लोग मर चुके हैं जो चीन और पाकिस्तान के साथ हुए तीन युद्धों के मिलाकर मारे गए सैनिकों की संख्या से बीस गुना अधिक हैं. जब वर्ष 1918 में हिंदुस्तान में स्पैनिश इन्फ्लुएंजा (प्लेग) फैला तो उसकी पहली वेव के दौरन सिर्फ पाँच हजार लोग मारे गए लेकिन दूसरी वेव के दौरान लगभग डेढ़ करोड़. उसी दौरान बॉम्बे बैक्टीरीयलाजिकल लेबोरेटरी ने टीके की खोज शुरू कर दी. लेफ्टिनेंट लिस्टोन ने दिसम्बर 1918 में टीका खोज लिया, पूरे हिंदुस्तान में मुफ़्त टीका बांटा गया. टीकाकरण के लम्बे अभियान के बाद हिंदुस्तान इन्फ्लुएंजा मुक्त हुआ. (British Vaccinate Influenza)
हिंदुस्तान में पहली बार टीकाकरण 1802 में स्मॉल-पॉक्स महामारी के खिलाफ शुरू हुआ था. टीका इंग्लैंड से आया. लोगों से इस टीके की कीमत मांगी गयी. अगले लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक भी लोग पारम्परिक तरीके -टीकदार (गोदनी) – से बीमारी का इलाज करते रहे और टीकाकरण असफल हुआ.
1892 में सरकार ने टीकाकरण सभी नागरिक के लिए अनिवार्य करने के लिए कंपलसरी वैक्सीनेशन एक्ट बनाया. यह कानून भी कागजों तक सिमटकर रह गया. वर्ष 1919 में सरकार ने टीकाकरण का सारा जिम्मा आर्थिक रूप से तंग राज्य सरकार के हाथों छोड़ ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला छुड़ा लिया. वर्ष 1944-45 में देश में सर्वाधिक मौतें स्मॉल-पॉक्स से हुई. सरकार द्वारा मुफ़्त वैक्सीन नहीं लगाने का फैसला इन मौतों का जिम्मेदार बना.
आजाद भारत में वर्ष 1948 में चेन्नई में टीबी की वैक्सीन बनाने के लिए स्वदेशी लैबोरेटरी स्थापित की और उसी वर्ष वैक्सीन बनाकर टीकाकरण भी शुरू कर दिया. देश ने 1957 आते-आते स्वदेशी इन्फ्लुएंजा वैक्सीन भी बना ली. 1971 आते-आते पूरे देश में तीन वैक्सीन रिसर्च इंस्टिट्यूटऔर वैक्सीन उत्पादन केंद्र थे और ये सभी सरकारी या पब्लिक अंडरटेकिंग कम्पनियां थीं. देश हर तरह की वैक्सीन बनाने में आत्मनिर्भर था और सभी क्सीन जनता का मुफ़्त मिल रही थी.
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वर्ष 2009 में जब H1N1 महामारी फैलने लगी तो हिंदुस्तान ने फिर से कम समय में ही स्वदेशी वैक्सीन बना ली. लेकिन इसी दौरान एक और खेल हुआ — वर्ष 2008 से पहले तक देश में टीका बनाने का एकाधिकार सिर्फ़ पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग कम्पनी को था जिसे मनमोहन सरकार ने संसद में एक क़ानून लाकर खत्म कर दिया. देश में तीन टीका उत्पादन केंद्र (कसौली, कूनूर और चेन्नई) बंद हो गए. देश की कुल टीका उत्पादन क्षमता घट गई. सिरम इन्स्टिट्यूट और बायोटेक जैसी प्राइवेट टीका निर्माता कम्पनियां अस्तित्व में आयीं. यही प्राइवेट कम्पनियां अपने मुनाफे के लिए आज हिंदुस्तान में कोरोना टीकाकरण प्रक्रिया को अपने हाथों कठपुतली की तरह नचा रही हैं. आपदा को अवसर में बदलने में मशगूल ये प्राइवेट कम्पनियां ढेर सारा लाभ कमा रही हैं.
जब से कोरोना महामारी ने हिंदुस्तान में दस्तक दी है तभी से हमारे राजनेता चुनाव प्रचार के दौरान मुफ़्त कोरोना टीका बांटने का वादा करते आ रहे हैं. बिहार से लेकर बंगाल तक ये सिलसिला जारी रहा. जबकि मुफ़्त वैक्सीन की पहली घोषणा उस राज्य (छत्तीसगढ़) से हुई जिस राज्य में कोविड आने के बाद कोई चुनाव नहीं होना था. टीकाकरण की प्रक्रिया में अब तक सबसे बेहतर परिणाम (20 प्रतिशत से अधिक) देने वाले गुजरात, दिल्ली या राजस्थान में भी कोई चुनाव नहीं हुआ है.
अब कोरोना की दूसरी वेव आ गयी है. महामारी शुरू होने के एक वर्ष बाद भी न देश के पास पर्याप्त टीके हैं, न हॉस्पिटल और न ही स्वास्थ्यकर्मी.
महामारियों और उससे निजात पाने के लिए चलाये गए टीकाकरण अभियान पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि लगभग सभी टीकाकरण अभियानों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में दशकों का समय लगा है. वह भी तब जब टीका पूर्ण रूप से मुफ़्त उपलब्ध करवाया गया था. हिंदुस्तान में टीकाकरण की प्रक्रिया कितनी जटिल और चुनौतीपूर्ण हो सकती है इसका अंदाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि पोलियो महामारी के खिलाफ टीकाकरण की प्रक्रिया यहां वर्ष 1995 में शुरू हुई और देश को पोलियो मुक्त होने में पूरे 19 वर्ष लग गए. जबकि पोलियो टीका सिर्फ़ पाँच वर्ष तक के बच्चों को लगाया गया जिनकी कुल संख्या बीस करोड़ से ज़्यादा नहीं थी. पोलियो टीका लगाये जाने के वक़्त आज की तरह एक्सपर्ट, मास्क, सैनिटाइजर या सोशल डिस्टेंस जैसी जटिलताएं नहीं थीं.
नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार हिंदुस्तान के बच्चों में टीकाकरण की सफलता की दर मात्र 62% है. इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2005-06 और 2015-16 के बीच टीकाकरण में तकरीबन 20% की गिरावट आई है जो चिंताजनक है.
एक ओर जहां कोविड महामारी से बचने के लिए लगाए जाने वाले टीके (वैक्सीन) की किल्लत है वहीं दूसरी तरफ़ टीकाकरण के खिलाफ अफवाह भी ज़ोर-शोर से बढ़ती ही जा रही है. ये अफवाह हिंदुस्तान के अलावा दुनिया के कई अन्य देशों में भी है. जहां पढ़े-लिखे लोग इसका विरोध वैज्ञानिक खोज, व्यवस्था व षड्यंत्र के आधार पर कर रहे हैं, वहीं कम पढ़े-लिखे लोग इसका विरोध धर्म, अंधविश्वास आदि के आधार पर कर रहे हैं. गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में केरल, गुजरात और मुंबई के कई क्षेत्रों में अभिभावकों और निजी विद्यालयों ने अपने बच्चों को एमएमआर का टीका लगवाने से इंकार कर दिया था.
समाज का एक हिस्सा कोविड बीमारी का वैकल्पिक इलाज देने में भी लगा हुआ है. इसमें गोबर, गोमूत्र से लेकर होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक दवाइयों तक का इलाज शामिल है. एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान हिंदुस्तान में आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री तेजी से बढ़ी. अमेरिका में तो लोगों को यह स्वतंत्रता ही है कि अगर कोई धार्मिक कारणों से किसी भी महामारी का टीका नहीं लगवाना चाहता है तो वह मना कर सकता है.
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वॉल स्ट्रीट पत्रिका ने लिखा था कि कैसे टीकाकरण विरोधी आवाज़ें अमेरिका से हिंदुस्तान तक सोशल मीडिया के माध्यम से तेज गति से पहुंच रही है. वहीं दूसरी तरफ़ एशिया और अफ्रीका में कोरोना को पश्चिमी सभ्यता द्वारा षड्यंत्र के नजरिए से भी देखा जा रहा है. अफवाहों के बारे में एक प्रचलित कहावत है, “जितने मुँह उतनी बातें.” अगर इसमें प्रचलित व प्रभावशाली व्यक्तियों या संस्थाओं का मुँह शामिल हो जाए तो अफवाह कई गुना प्रभावशाली हो जाती है. पिछले एक वर्ष में कोरोना को लेकर जिस तरह लोगों से थाली पिटवाने, दीया जलवाने, जैसी कई तरह की भ्रामक बातें बोली गयीं. लिहाजा इस बीच कोरोना को लेकर अफवाहों के प्रति भी हमें तैयार रहना चाहिए. प्रभावशाली लोगों और संस्थाओं के द्वारा दिए गए बयान भी देश के भीतर और बाहर कोरोना के प्रति अफवाहों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं.
इन तथ्यों के बावजूद अगर सरकार कोरोना का टीका मुफ़्त लगाने में कोई संशय पालना चाहती है तो इस अत्यधिक संक्रमण दर वाली बीमारी से कैसे निपटा जायेगा ये समझने वाली बात है.
स्वीटी टिंड्डे अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन (श्रीनगर, गढ़वाल) में एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.
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लेखिका भूल गई है की वह स्वयं एक प्राइवेट संस्थान द्वारा संचालित फाउंडेशन के लिए काम कर रही है। यदि अजीम प्रेमजी के समस्त उद्योग सरकारी ढर्रे पर चल रहे होते तो न फाउंडेशन होती न ये लेख लिखने को मिलता। आवश्यक ये है कि केंद्र से पूछा जाए कि समस्त आबादी का मुफ्त टीकाकरण अभियान क्यों सम्भव नही है। ना कि ये कि जिस टीके की research development पर सरकार ने एक पाई भी खर्च न की तो वह किस तरह इन कम्पनियों पर दबाव डालेगी, जो दबाव डाला तो अंजाम देख लिया, पूनावाला लंदन जा बैठा है। ग्लोबलाइजेशन के ज़माने में जब सरकारें विज्ञान पर शोध पर खर्चा न कर पुराने फार्मूलों पर ही चलेंगी तो यही होगा।
लेख के शुरू में दूसरे वाक्य में लिखा गया है- 'वर्ष 1918 में हिंदुस्तान में स्पैनिश इन्फ्लूएंजा (प्लेग)' लिखा गया है। इन्फ्लुएंजा प्लेग नहीं है। इन्फ्लूएंजा वायरस से होता है जबकि प्लेग जीवाणु यानी बैक्टीरिया से। ये दो अलग बीमारियां हैं। संशोधन करके प्लेग की जगह 'फ्लू' लिख दें।