अल्मोड़े में अपनी राजगद्दी छिनने के बाद चंद राजा मोहनचंद मदद के लिये जगह-जगह भटक रहा था. उसे गुजर के लिये 10 रुपये रोज के मिल रहे थे जिसमें उसकी गुजर कहां होनी थी.
मोहन चंद मदद के लिये रामपुर के नवाब के पास गया, अवध के नवाब के पास गया लेकिन किसी ने मदद न की. थकहार कर मोहन चंद प्रयागराज की तीर्थ यात्रा पर चला गया. मोहन चंद को यहां मिले सन्यासी नागाओं के नेता.
मोहनचंद ने नागा नेताओं के बीच खुद का परिचय अल्मोड़े के एक अमीर के रूप में कराया और उन्हें अपने बाप दादाओं की अपार संपत्ति की झूठी बातें बतलाई. नागा नेता हिमालय की प्रकृति में तप के लिये पहले से आतुर थे ऐसे में राजा का सीधा समर्थन उन्हें भी भाया.
मोहन चंद के प्रस्ताव पर सन्यासी नागा नेता लालच में आ गये और उन्होंने मोहनचंद के प्रस्ताव पर हामी भर दी. चार महंत 1400 नागाओं के साथ अल्मोड़े को निकल पड़े.
इन नागा सन्यासियों ने बद्रीनाथ यात्रा का बहाना बनाया और कोशी के किनारे-किनारे जा पहुंचे अल्मोड़ा. नागा सन्यासियों ने कोसी और सुयाल नदी के संगम पर अपना डेरा डाला. जब नागा सन्यासियों ने कोसी और सुयाल के संगम चोपड़ा में डेरा डाला तब जाकर उनके आने के असली उदेश्य के विषय में पता चला.
इधर हर्षदेव जोशी ने कुमाऊं की सेना को चाड़लेख मुक़ाम पर खड़ा कर दिया. हर्षदेव ने महंतों के पास अपना एक दूत भेजा और उनके सामने कुछ नजराना लेकर शांतिपूर्वक जाने का प्रस्ताव रखा.
नागा महंत तो मोहनचंद की लूट और लालच की रंगीली बातों में फंसे थे. मोहनचंद ने उनको प्रस्ताव ठुकराने की सलाह दी और महंतों ने वही किया. इसके बाद शुरू हुआ कोसी और सुयाल के संगम पर नागाओं और कुमाऊं की सेना के बीच युद्ध.
कुमाऊं की प्रशिक्षित कुशल सेना के सामने नागा सन्यासी कहां टिक पाते. युद्ध में कुछ नागा सन्यासी पहाड़ों से लुढ़के कुछ नदी में बह गए. कुमाऊं की सेना ने 700 नागाओं और 2 महंतों को मार गिराया.
मोहनचंद और बाकी नागा भाग खड़े हुए. कहते हैं कि इस युद्ध के बाद आसपास के गांव वालेबड़े मालदार हो गए क्योंकि नागाओं के जटा-जूट और गोलों में बहुत सी अशरफियां निकली थी.
( बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक कुमाऊं का इतिहास और एटकिंसन की किताब हिमालयन गजेटियर के आधार पर.)
– काफल ट्री डेस्क
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