भारत की स्वतंत्रा के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन में अनेक रूपों में जनता ने अपना योगदान दिया. देश के कोने-कोने में राष्ट्रीय जागरण का दौर चला और अपने अपने तरीकों से लोगों ने इसमें अपनी समिधा डाली. सारे देश की तरह कुमाऊँ में भी जहाँ अधिकतर लोग महात्मा गाँधी जी के पद चिन्हों पर चलकर स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहे, वहीं यहाँ के नव युवकों ने जिन के मन में भी केवल एक ही भावना थी- अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर करने की, अपने ढंग से कुछ ऐसे कार्य किये जिनसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भी चौंक गयी तथा राज कर्मचारियों की नींद हराम हो गयी. हालाँकि इस प्रकार का नवयुवकों का यह संगठन मुख्य धारा में न रहते हुए अज्ञात रहा तथा इनके कृत्य भी अज्ञात ही रहे. कुमाऊं में अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए अल्मोड़ा में तत्कालीन कुछ विद्यार्थियों ने एक संगठन बनाया जिसका नाम रक्खा गया ‘वीर बालक समाज’.
(Veer Balak Samaj Uttarakhand History)
1939 में जब द्वितीय महायुद्ध आरम्भ हुआ, कुमाऊँ में राष्ट्रीय आन्दोलन का काफी जोर था. उस समय राष्ट्रीय नेताओं के आह्वान पर व्यक्तिगत सत्याग्रह में हजारों लोग जेल गये. ठीक उसी समय अल्मोड़ा मैं “वीर बालक समाज” की स्थापना हुयी.
आरम्भ में इस संगठन को एक क्लब के रूप में चलाया गया, जिसकी बैठकें प्रति रविवार को होती थीं. इस संगठन में मुख्यतः वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, कवि गोष्ठियां, या किसी विषय पर भाषण आदि आयोजित किये जाते थे. राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति भी कभी-कभी चर्चाएं होती थी तथा कभी-कभी किसी नेता या कार्यकर्ता की गिरफ्तारी पर उसे जेल तक नारे लगाते हुए पहुँचाना भी कुछ सदस्यों का कर्त्तव्य हो गया था. बच्चों का भीड़-भाड़ में सम्मिलित होना स्वाभाविक समझकर इस ओर पुलिस का विशेष ध्यान नहीं रहता था.
कुछ ही दिनों में कई लोगों की सहायता से अच्छी पुस्तकें भी प्राप्त होने लगी जो सदस्यों को पढ़ने के लिए दी जाती थी जिससे समाज की ओर कुछ अधिक नवयुवक आकर्षित हुए. संस्था के सदस्यों व गोष्ठियों में सदस्यों की रूचि अधिक होने लगी क्योंकि तब मनोरंजन आदि के अन्य कोई साधन नहीं थे. तब अल्मोड़ा में शायद ही एक-दो रेडियो किन्हीं बड़े आदमियों के पास रहे हों.
कुछ समय पश्चात् एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया. इससे कुछ और नवयुवक आकर्षित हुए, तथा सभी सदस्य नाटक खेलने के प्रस्ताव से काफी उत्साहित हुए. एक नाटक छांटा गया ‘नीच’ जिसके लेखक थे भी हरीश चन्द्र जोशी, वकील, नाटक के निर्देशन का कार्य किया भी रमेश चन्द्र पन्त ने तथा उसे संगीत दिया, प्रख्यात ध्रुपद गायक स्व० चन्द्रशेखर पन्त ने जो बाद में दिल्ली विश्व विद्यालय के संगीत विभाग के रीडर बने. इन्हीं महानुभावों के कारण रामजे हाई स्कूल का हाल भी मिल गया, जो मिशनरी स्कूल होने के नाते आसानी से नहीं मिल सकता था, नाटक खेला गया. काफी सफल रहा. कुछ लोगों के समझ में आया भी, परन्तु राष्ट्रीय भावना के समावेश का बात कहीं नहीं आयी. परन्तु नवयुवकों को इस से काफी प्रेरणा मिली.
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वीर बालक समाज के ऊक्त कार्यक्रम साधारण सदस्यों तथा असहयोगी अविभावकों के लिए प्रेरणादायक तो थे ही, इससे राष्ट्रीय चेतना का उदय भी होता गया. तब उसी संस्था के अन्दर एक अन्य गुप्त संस्था ने जन्म लिया, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को सशस्त्र संघर्ष के जरिये खदेड़ने का था. संस्था के कुछ क्रान्तिकारी विचारों के नवयुवकों ने आपस में विचार विमर्श कर अपने ही संगठन से पूरी जांच पड़ताल करने के पश्चात ऐसे कुछ युवकों को छांटा जो देश के प्रति कोई भी खतरा मोल ले सकते हों, जिनमें देश के प्रति अटूट श्रद्धा हो तथा शारीरिक रूप से कुछ कष्ट सहने की भी क्षमता रखता हो. ऐसे नव युवकों को छांट कर एक गुप्त संगठन बनाया गया जिसमें एक शपथ पत्र पर अपने खून से हस्ताक्षर करने के उपरान्त ही उसे सदस्यता मिल सकती थी. इस तरह वीर बालक समाज के अन्दर ही एक क्रान्तिकारी संगठन ने जन्म लिया जो संघर्ष के लिए कार्यक्रम तय करने लगा.
वीर बालक समाज के साधारण सदस्यों द्वारा गोष्ठी, कविसम्मेलन, वाद-विवाद आदि कार्यक्रम यथावत चलते थे, जिसमें गुप्त संगठन के सदस्य भी भाग लेते थे, परन्तु यह बाहरी आवरण मुख्यत: पुलिस की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही था. उस समय वीर बालक समाज के सभापति थे, थी भूवन चन्द्र जोशी (अब कलकत्ता में हैं) तथा सचिव थे श्री देवी दत्त जोशी (हेडमास्टर). इसके संरक्षकों में श्री रमेश चन्द्र पन्त तथा संगीतज्ञ श्री चन्द्रशेखर पंत थे.
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बीर बालक समाज को कई बाहरी वयस्क लोग भी मदद करते थे. सभी समाज के कार्यों की सराहना करते थे. परन्तु वीर बालक समाज के गुप्त संगठन की जानकारी न तो साधारण सदस्यों को थी और न अन्य लोगों को इसी संगठन से जुड़े गुप्त संगठन के जो लोग थे उनकी संख्या आठ या नौ से अधिक नहीं थी, क्योंकि काफ़ी परख करने के उपरान्त ही उस गुप्त संगठन में नया प्रवेश मिलता था. इस क्रान्तिकारी गुट के कुछ सदस्य थे, सर्व श्री हरीश चन्द्र पंत (भू.पू. हरिजन कल्याण अधिकारी) सुरेन्द्र तिवारी, मोहन उप्रेती (प्रसिद्ध लोक-कला विद्) गणेश दत्त जोशी (भू.पू. सूचना अधिकारी). यह इस गुट के प्रथम पंक्ति के लोग थे. इसके साथ ही इसमें सम्मिलित हुए सर्व श्री हरीश चन्द्र जोशी (वैज्ञानिक) भूवन चन्द्र जोशी (स्यूनराकोट) रेवाधर जोशी (भू. पू. तहसीलदार) 1 बाद में जब यह अनुभव किया गया कि सदस्यों को कुछ दांव पेंच कुश्ती, तथा लाठी व तलवार या अन्य हथियार चलाना भी आना चाहिये, तो बड़ी खोज-बीन तथा पूर्णतः विश्वास पात्र, अयोध्या प्रसाद अग्रवाल (पहलवान) को भी इस गुट में सम्मिलित कर लिया गया.
यह गुट रविवार की गोष्ठी में भी सम्मिलित होता था तथा अपनी भावी बैठक व स्थान का पता भी अपने गुप्त सदस्यों को बतलाता था. गुट ने सर्वप्रथम तय किया कि लोगों में जाग्रति फैलाने के ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी पर्चा निकाला जाय. इस हेतु एक गुप्त प्रेस की व्यवस्था पर भी विचार किया गया. सदस्यों ने तय किया कि अल्मोड़ा में उस समय सबसे अच्छे इन्द्रा प्रिंटिंग वर्क्स से टाइप चुराई जावे. यह कार्य रात को कुछ सदस्यों द्वारा बड़ी चतुराई से पूरा किया गया. किसी प्रकार अक्षरों को जोड़कर पैम्पलेट तैयार होने लगे.
इसी बीच सदस्यों की राय से बम बनाने का भी निश्चय किया गया ताकि कुछ विशेष स्थानों पर विस्फोट कर जन-चेतना जगाई जावे. इस हेतु रामजे हाई स्कूल की साइन्स लैब से गन्धक-पोटास व अन्य रसायन चुराने का कार्यक्रम बनाया गया.
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जब पैम्पलेट काफी संख्या में बन गये, तो दिसम्बर की एक जाड़े की रात को सारे शहर में पर्चे चिपका दिये गये उन पर्चों में कुछ इस प्रकार थे, जलेगी-आग-जलेगी, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के नाश के लिऐ. पर्चों में एक छद्म नाम के रूप में ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ का नाम लिखा गया जो सरदार भगत सिंह की पार्टी का नाम था.
दूसरे दिन सारे शहर में तहलका मच गया. सारे सरकारी कर्मचारी उन पर्चों को दीवाल से खुरचने में लगा दिये गये. इस घटना का विवरण देश के अनेक समाचार पत्रों में छप गया. बड़े अधिकारी काफी परेशान हो गये. यह उस समय के लिए एक बहुत बड़ी घटना थी, जिसने तत्कालीन प्रान्तीय सरकार को भी विचलित कर दिया.
इसी बीच मुर्हरम की एक रात को रामजे स्कूल की साइन्स लैब से बम निर्माण की सामग्री चुरा ली गयी. इसके साथ ही एक और साहस व जोखिम से भरा कार्य वीर बालक समाज के गुप्त संगठन ने कर डाला. वह था सरकारी कार्यालयों में यूनियन जैक उतार कर उसमें तिरंगा झंडा फहरा दिया गया, जो बड़ी सावधानी से अंधेरी रात में ही पूरा किया गया. सरकारी इमारतों में थाना अल्मोड़ा व राजकीय इन्टर कालेज भवन भी सम्मिलित था. यह कार्य 31 जनवरी 1942 को रात को पूरा किया गया.
जब प्रातः लोगों ने सरकारी भवनों में तिरंगा झंडा देखा तो लोगों को विश्वास होने लगा कि शीघ्र ही कोई बड़ी ताकत वाले लोग यहाँ आकर विदेशी हुकूमत को हटा देंगे.
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उपरोक्त घटनाओं ने सारे कुमाऊं में एक नयी उमंग फैला दी तथा लोगों में स्वतंत्रता के प्रति काफी रूचि दिखलाई देने लगी. उनमें से कई लोगों ने लुक-छिपकर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहायता भी देना शुरू कर दिया.
उक्त कार्यक्रम के बाद गुप्त संगठन की योजना बनी सरकारी खजाना लूटने की तथा हथियारों को प्राप्त करने की. पर इसके साथ हो अल्मोड़ा में पुलिस की सरगर्मी अधिक बढ़ गयी. कई गुप्तचर और यहाँ बुलाये गये. सभी लोगों व विद्यार्थियों पर कड़ी नजर रक्खी जाने लगी. यहां तक की वीर बालक समाज के सदस्यों के कुछ अविभावकों को डराया धमकाया जाने लगा. पुलिस को वीर बालक समाज की गतिविधियों पर शक हो गया तथा उसके प्रत्येक कार्यक्रम पर कड़ी नजर रक्खी जाने लगी. इसका परिणाम यह हुआ कि समाज सदस्य काफी विचलित हो गये. समाज की ओर से होली की बैठकें आयोजित की गयी, परन्तु गुप्तचर विभाग वहाँ भी काफी सर्तकता से छाया रहा.
जब इस प्रकार की घटनाएं अल्मोड़ा में चल रही थी, तब समाज के गुप्त संगठन ने तय किया कि कुछ समय तक अन्य कार्यक्रमों को स्थगित रखते हुए कुछ सदस्य देश के दूसरों भागों में जाकर क्रान्तिकारियों से सम्पर्क स्थापित कर उनसे दिशा निर्देश प्राप्त करें. इस कार्य हेतु धन की बहुत आवश्यकता थी. अतः तय किया गया कि सभी गुप्त सदस्य अपने-अपने घरों से सोना चुराकर लायें तथा जो सदस्य यह कार्य नहीं करेगा उसे अपना अंगूठा काटना पड़ेगा. इस निर्णय पर लगभग सभी सदस्य अपने अपने घरों से सोना चुराकर लाये तथा उसे बाजार में अलग-अलग स्थानों पर बेचकर बाहर जाने का कार्यक्रम तय किया गया. बाहरी टीम हेतु सर्व श्री गणेश दत्त जोशी, हरीश पंत, हरीश जोशी तथा अयोध्या प्रसाद का चयन हुआ. तय हुआ कि जैसे पहाड़ के लड़के अकसर घर से भाग जाते है, उसी प्रकार वे भी यहाँ से चले जाँय तथा बाकी बच गये अल्मोड़ा में सरकारी हस्तक्षेप को नापते रहें और उसकी खबर किसी प्रकार बाहर की टीम को देते रहें. इस कार्य हेतु कुछ छद्म नाम व प्रतीक भी तय किये गये.
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जो टीम बाहर गयी उन्होंने लखनऊ जाकर क्रान्तिकारियों का पता लगाना शुरू किया. इसी बीच गणेश दत्त जोशी के पिता अपने पुत्र की खोज में लखनऊ जा पहुंचे. गणेश जोशी के अपने पिता के आमने-सामने होने पर, गणेश जोशी ने अपने पिता से कहा, “आप कौन हैं, मैं आपको नहीं जानता” और चकमा देकर भाग गये.
इसी बीच क्रान्तिकारियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करते हुए यह दल कानपुर पहुंचा, जहां उनकी मुलाकात एक क्रान्तिकारी श्री निगम से हुयी. श्री निगम ने दो-तीन दिन तक लड़कों से बातचीत के उपरान्त उन्हें सलाह दी कि बिना ज्ञान अर्जित किये. वे ऐसे कार्यों में सफल नहीं हो सकते. उन्होंने नव युवकों को राय दी कि वे फिलहाल जो कुछ भी पैसा उनके पास है. उनसे कुछ अच्छी पुस्तकें क्रय कर लें. फलस्वरूप बाकी बचे पैसों से पुस्तकें खरीदकर यह दल वापस अल्मोड़ा आ गया.
जब अन्य सदस्यों को पुस्तकों के ढेर सारे बंडलों के साथ वापस देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. आखिर पुस्तकें छिपाकर रख दी गयी. कुछ दिनों के बाद पं० चन्द्रशेखर पंत को जब यह मालूम हुआ कि यह पुस्तकें तो चोरे गये सोने से प्राप्त पैसों से खरीदी गयी हैं तो उन्होंने कहा कि चोरी से खरीदी गयी पुस्तकें कुछ ज्ञान नहीं दे सकती, इन्हें जला देना ही उचित होगा. अतः वे सभी पुस्तकें जला दी गयी. पुलिस की डर से चोरा गया टाईप पहले ही गंगा जी में बहा दिया गया था.
(Veer Balak Samaj Uttarakhand History)
इसी बीच अगस्त क्रान्ति का बिगुल बज उठा. अनेक नेताओं को बंदी बना दिया गया. श्री गणेश दत्त जोशी, जिन पर शक पहले से ही था, कमिश्नर के घायल होने की घटना के बाद वैसे ही पकड़ लिये गये, जिन्हें बाद में लम्बी सजा हो गयी. हरीश चन्द पंत भी पकड़े गये. अयोध्या प्रसाद अग्रवाल को भी बंदी बना लिया गया. पर इन सब को राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के कारण ही बंदी बनाया गया, तब भी ‘वीर बालक समाज’ के कार्यक्रमों का सरकार पता नहीं लगा सकी. इसके साथ ही समाज के गुप्त संगठन के कार्यकर्ता रेवाधर जोशी को भी राजकीय इण्टर कालेज से रेस्टीकेसन कर दिया गया, जो कुछ प्रमाण न मिलने पर चार माह बाद वापस ले लिया गया. इस प्रकार वीर बालक समाज टूटने की कगार पर आ गया. कुछ दिनों तक रविवार की गोष्ठियां चली, परन्तु पुलिस वाले बहुत तंग करने लगे राष्ट्रीय नेता सभी जेलों में बंद थे. अतः समाज की गतिविधियाँ भी धीमी पड़ने लगी. अभिभावकों ने अपने-अपने बच्चों पर कड़ी नजर रखना शुरू कर दिया. रविवार की गोष्ठियों में भी उपस्थिति कम होती चली गयी. कुछ महिनों के बाद कई सदस्य उच्च शिक्षा हेतु बाहर चले गये.
इस तरह यह वीर बालक समाज, जिसने अल्मोड़े व कुमाऊँ की राष्ट्रीय धारा में अपना विशिष्ट सहयोग देकर लोगों को जाग्रत किया, तथा जिनके कार्यों से ब्रिटिश सरकार भी सकते में आ गयी, राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना छोटा परन्तु बहुत सक्रीय सहयोग देकर विदा हो गया.
ऐसे ही राष्ट्रीय आन्दोलन में अनेक संगठनों ने देश के विभिन्न भागों में अपने अपने तरीके से योगदान दिया, जिससे ब्रिटिश सरकार को यह अनुभव हो गया कि अब उनका साम्राज्य बहुत दिनों तक भारत में नहीं रह सकता.
वीर बालक समाज के सदस्यों के अदम्य साहस व राष्ट्र जागरण के कार्यों को आज तक किसी ने प्रकाश में लाने का प्रयत्न नहीं किया, जिसका मुख्य कारण था उसके सदस्यों का अल्मोड़ा छोड़कर बाहर चले जाना. राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय सहयोग का विवरण इस तरह पूर्णतः अज्ञात ही रहा.
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लक्ष्मी लाल वर्मा
(‘पुरवासी’ के 1992 के अंक से साभार)
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