उत्तराखंड की पांच जनजातियों थारू, बोक्सा, भोटिया, जौनसारी और वनराजी में संभवतः सबसे पिछड़ी और कम जनसंख्या वाली जनजाति है वनराजी. यह जनजाति उत्तराखंड के अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले के दूरस्थ जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं. इसके अतिरिक्त नेपाल के पश्चिम अंचल में भी इनके कुछ छोटे गांव बसे हैं. हालांकि इनकी सर्वाधिक आबादी पिथौरागढ़ जिले में ही है. जहां पर डीडीहाट, धारचूला और कनालीछीना विकासखंडों में इनके करीब आठ दस गांव हैं. कुछ को तो गांव न कह कर एक तोक मात्र कहा जा सकता है क्योंकि उनमें चार पांच ही परिवार रहते हैं.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
डीडीहाट विकासखंड में कूटा चौरानी इनका सबसे बड़ा और सबसे दुर्गम गांव है, जिसकी 110 की आबादी 22 परिवारों में रहती है. गांव में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. और जिसकी मुख्य सड़क से पैदल दूरी दस किलोमीटर है. अब इसके नजदीकी गांव कूटा कन्याल तक कच्ची सड़क प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अन्तर्गत कट रही है जिसके बाद यहां की पैदल दूरी पांच किलोमीटर रह जाएगी. कूटा कन्याल गांव में भी इनके दो परिवार रहते हैं.
कूटा चौरानी गांव घनधूरा के जंगल के बीचों बीच सिंधुतल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ के दक्षिणी ढाल पर स्थित है. इसी पहाड़ी की जड़ पर इनका एक और गांव मदनपुरी बसा है जहां पर करीब 16 परिवार और 80 की जनसंख्या है.
इसके बाद कनालीछीना ब्लॉक में इनके गांव कूटा जमतड़ी है, जहां के लिए मदनपुरी होते हुए पीएमजीएसवाई की एक और सड़क देवीबिसौना स्थान से कटी है. देवीबिसौना इस पूरे क्षेत्र का मोटर रोड का एक पड़ाव है. जहां पर एक हाई स्कूल, एक आयुर्वेदिक अस्पताल एक सरकारी राशन की दुकान, पशु अस्पताल, और आधे दर्जन दुकानें हैं. कुछ समय पहले तक एक मिनी बैंक भी होता था बताते हैं.
कूटा जमतड़ी भी करीब बीस इक्कीस परिवारों का गांव है. इसी ब्लॉक में इनका दूसरा गांव औलतड़ी है जो भगीचौरा कस्बे से करीब आठ किलोमीटर की पैदल ओलार (डाउन) में है. जहां पर के दस बारह परिवारों में से कुछ भागीचौरा कस्बे के निकट रौत्यूड़ा में बस गए हैं. फिर धारचूला ब्लॉक में इनकी सबसे बड़ी आबादी क्रमशः चिफलतरा, गणागांव, भकतिरूवा और किमखोला, थामा धूरा और मनख्या बसौर गांवो में निवास करती है. फिर इसके बाद काली और गोरी नदियों के पन ढाल के साथ साथ चम्पावत में चल्थी के जंगलों के बीच स्थित खिर द्वारी और शील बरुड़ी में ये बसे हुए हैं. दोनों जिलों के सभी गांवों की कुल आबादी हजार से डेढ़ हजार के बीच ही होगी (1295 द हिंदू के 2017 अंक के आधार पर) जो अंडमान निकोबार की कुछ जनजातियों के बाद संभवतः सबसे कम होगी.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
कुछ दशक पहले तक अनुमान से साठ के दशक तक इनकी आबादी का काफी हिस्सा शिकारी संग्राहक (हंटर गैदरर) ही था साल का काफी समय ओढ्यारों (कंदराओं) में बिताता था. मगर आज की पीढ़ी में उस समय की याद करने वाले लोग इनके बीच में से उंगलियों में गिनने लायक भी नहीं बचे हैं. इनके जीवन को मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाने का श्रेय डॉ0 प्रयाग जोशी द्वारा सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों में इनके बीच की गई यात्राओं और उन अनुभवों पर लिखी किताब “वन रजियों की खोज में” को जाता है.
पहली बार 1815 के आसपास ब्रिटिश कुमाऊं के तत्कालीन कमिश्नर जॉर्ज डब्ल्यू ट्रेल ने अपनी कुमाऊं की यात्राओं के दौरान इनके बारे में स्थानीय निवासियों से सुनी बातों के आधार पर थोड़ी बहुत जानकारी दुनिया के सामने रख दी थी, और एटकिंसन के गजेटियर में भी इनका छोटा सा वर्णन इन्हें पूरी तरह जंगली जनजाति और नितांत असभ्य और बर्बर दिखाते हुए किया गया था. एक मानवीय दृष्टि से इनके बीच रहकर इनके जीवन के पहुलुओं को संसार के सामने लाने में डॉ प्रयाग जोशी का योगदान उल्लेखनीय है.
इन पर संभवतः अब तक सैकड़ों शोध थीसिस और पीएचडी लिखी जा चुकी होंगी. आज इन पर कई एन्थ्रोपोलॉजिकल, सोशियो इकोनोमिकल और भाषाई शोध हो चुके हैं मगर इसके बाद भी वन राजी शोध और उत्सुकता का विषय प्रायः बने रहे हैं.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
आम मीडिया में इनके बारे में जैसा लिखा जाता है ये अब वैसे नहीं रह गए हैं इनका रहन सहन, खान पान, रीति रिवाज और पहनावा काफी हद तक इनके करीबी गांवों के आम निवासियों जैसे ही हो चुके हैं. ये उनके बीच काम करने जाते हैं, बाज़ार में खरीददारी करने, मनरेगा के काम करने या अपना प्रिय लकड़ी चिरान का काम करने आस पास और कभी कभी दूर के गांवों और कस्बों तक भी जाते हैं. इनके कई नवयुवक हमारे अन्य पहाड़ी लड़कों की तरह मैदान के महानगरों में छोटी मोटी नौकरी करने भी जाते हैं. हालांकि इनके बीच शिक्षा प्राप्ति की स्थिति इस बात से देखी जा सकती है कि तीन गांवों में से पहली बार इनका कोई सदस्य हाईस्कूल बोर्ड पास हुआ वर्ष 2016 में एक बालिका जानकी. मेरी जानकारी में केवल दो व्यक्ति सरकारी नौकरी में हैं जिनमें से एक शिक्षा विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं और दूसरे भी अध्यापक ही हैं.
एक बालिका मंजू जो जमतड़ी गांव की रहने वाली थी दस बारह साल पहले इनकी पूरी आबादी में पहली हाईस्कूल पास करने वाली सदस्य है. संवैधानिक तौर पर राजियों को शेड्यूल्ड ट्राइब या आरक्षित जनजाति का दर्जा दिया गया है. जिसका लाभ इन्हें सरकारी नौकरियों में तो अभी तक दिखाई नहीं दिया है. हां राजनैतिक तौर पर इन्हें ग्राम पंचायत से विधान सभा तक चुने जाने के अवसर जरूर मिले हैं. अत्यंत गरीबी में अपने अधिकांश सदस्यों की तरह ही जीवन यापन करते मात्र आठवीं तक पढ़ सके गगन सिंह रजवार उत्तराखंड सरकार में दो बार लगातार निर्दलीय विधायक रह चुके हैं.
कूटा चौरानी गांव के निवासी और सभी राजी लोगों में सबसे बुजुर्ग शेर सिंह जिन्हें सभी नेताजी कहते हैं इनके बीच से पहली बार दिल्ली जैसे किसी शहर में जाने वाले व्यक्ति हैं. उन्हें 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिलने का भी अवसर मिला. शेर सिंह को किसी स्थानीय ग्राम विकास अधिकारी द्वारा विशेष प्रयास से गणतंत्र दिवस समारोह में राजी जनजाति के प्रतिनिधि के तौर पर प्रतिभाग कराया गया. जहां पर उन्होंने राजियों के बीच शिक्षा की कोई व्यवस्था न होने की बात रखी थी. इसके बाद ही राजी जनजाति के बीच शिक्षा को लेकर महत्वपूर्ण पहल भूतपूर्व कोंग्रेस विधायक स्वर्गीय हीरा सिंह बोरा द्वारा की गई, जिन्होंने इनके गांवों में प्राथमिक पाठशालाएं 90 के दशक के प्रारंभ में खोलनी शुरू की. मगर आम जनता में राजी लोगों का मज़ाक यह कहकर उड़ाया जाता है कि इनके नेता ने दिल्ली में प्रधानमंत्री से रेडियो और घड़ी की मांग की. जबकि ये उन्हें भेंट के तौर पर दिए गए थे जैसा राजकीय आचरण भी होता है. आज इनके लगभग हर गांव में सरकारी प्राथमिक विद्यालय और आठवीं तक भी स्कूल पांच किलोमीटर के दायरे में मौजूद है. शिक्षा के प्रति उदासीनता जरूर है मगर इसका महत्व नई पीढ़ी समझ रही है.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
शिक्षा ही नहीं पूरे जीवन और समाज के प्रति इनका भाव उदासीनता का रहता है. ये अब अपनी शिकारी संग्राहक की जीवन शैली को कभी का त्याग चुके हैं मगर धन संचय की प्रवृति इनमें अभी भी नहीं है. भविष्य को लेकर एक बेफिक्री इनके पूरे समाज में देखी जा सकती है जिन्हें बस अभी की चिंता है. एक तरह से इन्हें सुखी और मस्त कहा जा सकता है मगर बीमारी, आपात स्थिति, दुर्घटना या भुखमरी के हालात में इन्हें स्थानीय साहूकारों या ठेकेदारों पर निर्भर रहना पड़ता है जिस कारण ये उनके कर्ज तले हमेशा दबे रहते हैं. कोई भी बचत ये करते नहीं देखे गए हैं. मनरेगा के लिए खाते जरूर खुले हैं जो पैसा निकालने के काम अधिक आते हैं. उपभोक्तावादी विलासिताओं के नाम पर इनके पास आजकल मोबाइल काफी परिवारों के पास हैं. जिन गांवों में बिजली है वहां टेलीविजन भी दिखने लगे हैं. मगर जो गांव अभी भी अस्कोट मृग विहार की सीमा के भीतर आते हैं वहां बिजली नहीं पहुंची है वे एमपी3 साउंड सिस्टम चलाते हैं.
इनकी अपनी भाषा भी है जिसे भौंत या रौत्य भाषा कहा जाता है. जिसे ये केवल आपस में ही बोलते हैं किसी बाहरी व्यक्ति के साथ ये हिंदी या कुमाऊनी में बात करते हैं. इनकी भाषा की बड़ी सुंदर और रंगीन वर्णमाला पुस्तक डॉ कविता रस्तोगी द्वारा तैयार की गई है. उत्तराखंड की तेरह भाषाओं के संयुक्त कोश जिसे पहाड़ प्रकाशन द्वारा छापा गया है झिक्कल कामची उडायली में राजी भाषा को भी स्थान दिया गया है. कोश के नाम का पहला शब्द ही राजी भाषा का है “झिक्कल” अर्थात ढेर सारी. इनकी भाषा को तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार में अधिकांश विद्वान रखते हैं हालांकि अब इनकी भाषा में अपनी मूल राजी के अलावा हिंदी, कुमाऊनी, नेपाली और अंग्रेजी के भी शब्द सम्मिलित हो चुके हैं.
ग़ज़ब की बात है कि इनके अपनी भाषा में कोई लोक गीत सुनने को नहीं मिलते और न कोई लोक कथा इनकी अपनी भाषा में है न ही इनका कोई अपना लोक पर्व ये मनाते दिखते हैं. धार्मिक विश्वास में ये भी उन्हीं स्थानीय लोक देवताओं की उपासना करते हैं जिनकी इनके आस पास के सामान्य जाति के लोग, हां इनमें मशान, भूत और बाण का काफी आस्था और भय व्याप्त रहता है और बीमारी या मृत्यु होने पर ये किसी दूसरे राजी परिवार द्वारा ईर्ष्या और रंजिश के कारण किया गया कपट मान लेते हैं जिस कारण आए दिन मुर्गों बकरों की बलि चढ़ती रहती है.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
वनराजियों को उत्तराखंड के स्कूलों की कोर्स की किताबों में अदृश्य व्यापारी भी कहा गया है जो इस धारणा पर आधारित अधिक है कि ये लोग कुछ समय पहले तक आम लोगों के बीच नहीं आते थे और अपने लकड़ी के बनाए बर्तन रात को चुपके से आपके आंगन में रख जाते थे. जहां पर इनके मेहनताने के तौर पर उसी बर्तन में भर कर अनाज रख दिया जाता जिसे वे फिर कभी एकांत में के जाते. इस तरह वे लोगों से अदृश्य रहकर व्यापार जो कि वस्तु विनिमय ही होता था कर लेते थे. मगर यह सुनी सुनाई और काफी पुरानी बात ही अधिक लगती है क्योंकि इनका स्थानीय लोगों के साथ घुलना मिलना काफी पहले से होता रह है. यहां तक कि इनके स्थानीय निवासियों से जमीनों को लेकर झगड़े फसाद और मुकदमे तक इतिहास में रहे हैं. मगर अधिकांशतः यह एक शांत और शर्मीली कौम है जो आपस में वैर भाव भले रखे मगर बाहरी लोगों से लड़ते झगड़ते नहीं दिखाई देते.
इनके बीच कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर करोड़ों के अनुदान लिए जा चुके होंगे, मगर इनके बीच स्थान बनाने और सार्थक बदलाव लाने में गिने चुने लोगों और संस्थाओं को ही कुछ हद तक सफलता मिल सकी है. वन विभाग से इनका लगातार संघर्ष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहता है. प्रत्यक्ष तौर पर इनके रोजगार जिसमें लकड़ी चिरान और वन्य उत्पाद इकट्ठे कर बेचना मुख्य है और मृग विहार के बीचों बीच स्थित इनकी बसासतें वन विभाग की नजर में अवैध हैं. जिन्हें पूर्व में कई बार इधर से उधर खदेड़ा भी गया है. जिस कारण आधुनिक समय में भी अपना पूर्व का घूमंतू व्यवहार त्यागने के बावजूद भी पूरी तरह से किसी एक गांव के नहीं हो सके हैं, क्योंकि इनके नाम किसी गांव की कोई जमीन दर्ज ही नहीं है. इनकी जितनी भी बसासतें हैं उनमें इनके नाम जमीनें न के बराबर हैं. कुछ ही परिवारों को जमीन के पट्टे मिल पाए हैं. जो कि इनके बीच लंबे समय से काम करने वाले स्वयं सेवी संस्था अर्पण द्वारा गठित भूमि अधिकार मंच के प्रयासों से संभव हो पाया है.
(Van Raji Tribe of Uttarakhand)
वनराजियों के जीवन से जुड़ी कुछ तस्वीरें देखिये :
पिथौरागढ़ के रहने वाले कमलेश उप्रेती शिक्षक हैं. शिक्षण क्षेत्र की बारीक़ समझ रखने वाले कमेलश को उनके ब्लॉग कलथर में भी पढ़ा जा सकता है.
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