कल सुबह सब्जी लेने मंडी में पहुंचा तो देखा कि पहाड़ी मूला/ मूली बाजार में आ चुका है. अभी बाजार में नया-नया है तो दाम के मामले में खूब इतरा-इठला रहा है. दुकानदार एक रुपया भी कम करने को तैयार नहीं है. बोलता है, बाबू जी अभी माल आ ही कहां रहा है. बस रामगढ़ की तरफ से थोड़ा सा आया है, वो भी बड़े महंगे दामों पर. एक पैसा कम करना भी मुमकिन नहीं. अब वो दाम कम करे या न करे, शौक के मारे हैं तो एक किलो खरीद कर ले ही आया. सिलबट्टे पर बढ़िया थींचूंगा. कड़ाही में थेचुवा पकाऊंगा और भात के साथ जमकर खाऊंगा. जीभ का स्वाद भी बदलेगा और कल पेट भी दुरुस्त रहेगा. (Uttarakhandi Food Moola Thechuva)
दरअसल थेचुवा और थिंचाई का शौक मुझे बचपन से ही रहा है. थेचुवा या थिंच्वाणी घर पर बचपन से ही बनते देखता आया हूं. घर पर एक गहरे काले रंग का सिलबट्टा है. ऐसे सिलबट्टे उत्तर भारत में नहीं मिलते हैं. सेना में सेवा के दौरान मेरे पिताजी ने इसे कर्नाटक में लिया था. मां बताया करती थी कि ये उसी साल का है, जिस साल तू हुआ था. इस नाते इस सिलबट्टे से मेरा दोहरा लगाव हुआ. पहला तो यह कि ये मेरा हमउम्र है और दूसरा ये भी उसी शहर बेलगांव (कर्नाटक) की पैदाइश है, जहां मेरा जन्म हुआ था. इस प्रकार ये सिलबट्टा मेरा जुड़वां भाई जैसा हुआ. पिछले दिनों घर गया था तो देखा ये सिलबट्टा अभी भी हमारी रसोई में रखा है. मेरी ही तरह घिस-घिस कर बुढापे की तरफ तो बढ़ चला, लेकिन हौसले में कोई कमी नहीं आई. भाभी ने इसी पर पीस कर धनिया, टमाटर व लहसुन के पत्तों की चटनी बनाकर खिलाई. तू दीर्घायु होवे मेरे प्यारे भाई सिल्लू…. (Uttarakhandi Food Moola Thechuva)
आलू के परांठों के साथ चटनी खाते हुए यादों का पखेरू उड़कर 45-50 साल पीछे चला गया, जब मां इस पर पीस कर बहुत से पहाड़ी व्यंजनों को बनाने की तैयारी करती थी. इनमें सबसे खास होती थी थिंच्वाणी बनाने के लिए मूले या आलू की थिंचाई. मूले या आलू को छीलकर व धोकर एक थाली में बड़े-बड़े टुकड़ों में काटकर रख लिया जाता और उसके बाद एक-एक टुकड़े को थींचकर मां उसे बारीक-बारीक कर लेती और फिर उसे एक गहरे बरतन में सहेजती रहती. थींचना एक खास किस्म की क्रिया होती है, जिसे हम हिंदी के कूटना शब्द के समतुल्य रख सकते हैं. अंग्रेजी में इसे क्रश करना कह सकते हैं. थींचना शब्द हमें सिर्फ उत्तराखंड की पहाड़ी बोली में और मराठी में ही मिलता है. हो सकता है जब पंत जी, जोशी जी लोग महाराष्ट्र से उत्तराखंड में आए हों तो इस शब्द को अपने साथ लेते आए हों. थींचना एक ऐसी क्रिया है, जिसमें किसी थींचने योग्य वस्तु को नीचे बिछाकर या लिटाकर उस पर ऊपर से प्रहार किए जाते हैं. मेरा तजुर्बा सिर्फ थिंचाई देखने का ही नहीं, थिंचाई सहने का भी खूब रहा है. आज से 40-50 साल पहले अध्यापकगण कच्ची माटी रूपी विद्यार्थियों को अनुशासनप्रिय, अध्ययनशील बनाने और अपने मनमाफिक सांचे में ढालने के लिए नाना प्रकार के उपाय किया करते थे. मेरी प्राथमिक शिक्षा के दौरान भी मेरे शिक्षकों के अलग-अलग प्रिय उपाय थे, डंडा प्रहार से लेकर अंगुलियों के बीच पेंसिल घर्षण तक. पूरे वादन (पीरियड) के लिए मुर्गा बनाना तो खैर एक कॉमन मैथड था. लेकिन भरोसानंद जख्वाल गुरुजी का तरीका सबसे अलहदा ही था. जख्वाल गुरुजी बच्चों को अच्छा विद्यार्थी बनाने के लिए उन्हें तबीयत से थींचने में यकीन रखते थे. गुरुजी हिंदी पढ़ाया करते थे और अपेक्षा करते थे कि उनके विद्यार्थी बड़े होकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल व हजारी प्रसाद द्विवेदी बनें, इसलिए मात्रा व अनुस्वार की मामूली सी गलती पर भी जमकर थींचते थे. तब तक थींचते रहते, जब तक खुद भी न हांफने लगें. दूसरे गुरुजनों की दंड संहिता का मुझ पर कोई प्रभाव पड़ा हो या नहीं, पर जख्वाल गुरुजी की थिंचाई जरूर असरकारक रही और आज हिंदी के जो दो-चार शब्द ठीकठाक लिख लेता हूं ये उनकी ही थिंचाई का परिणाम है.
थिंचाई इतनी असरकारक होती है इसे मैंने तो विद्यार्थी जीवन में ही जाना, लेकिन हमारे पुरखे इसे बहुत पहले ही जान गए थे. वे यह जान चुके थे कि थिंचाई न केवल जिंदगी के, बल्कि स्वाद के मायने भी बदल सकती है. इसीलिए उन लोगों ने मूली और आलू के थींचे हुए रूप वाली डिश का आविष्कार किया. जो कुमाऊं में थेचुवा और गढ़वाल में थिंच्वाणी कहलाई. आपने देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों में आलू व मूली के दूसरे बहुत से व्यंजन देखे और चखे होंगे, लेकिन मूले और आलू को थींच कर इसका थेचुवा या थिंच्वाणी जैसी लजीज डिश सिर्फ उत्तराखंड में ही बनाई जाती है. यह उत्तराखंड की धरती का अनूठा आविष्कार है.
भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है
मूली या मूला यूं तो विभिन्न प्रकार के रंगों व आकार में सभी महाद्वीपों में प्राप्य है. यूरोपीय देशों में यह अधिकतर लाल या जामुनी रंग में लंबे आकार में मिलती है. इस प्रकार की मूली मैंने नैनीताल व भवाली के आसपास भी बिकती देखी है, जो शायद लौंग स्कारलेट प्रजाति की होती है. यूरोपीय लोग मूली का प्रयोग सलाद या सैंडविच के बीच भरने में ही करते हैं, सब्जी के रूप में नहीं. सब्जी के रूप में मूली या मूला दक्षिण एशियाई देशों में ही प्रयोग में लाई जाती है. इन देशों में अलग-अलग प्रजातियों की मूली उगाई जाती है. लंबे आकार की जो मूली मैदानी क्षेत्रों और पहाड़ के कुछ हिस्सों में भी पैदा की जाती है, वो डैकोन व्हाइट प्रजाति की है. मगर हम थेचुवा के लिए जिस सफेद रंग के गोल पहाड़ी मूली या मूले का इस्तेमाल करते हैं, उसकी प्रजाति व्हाइट हेलस्टोन है. इसका उद्गमस्थल कोरिया माना जाता है. ये मूला न सिर्फ उतराखंड, अपितु हिमाचल, सिक्किम, उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों व नेपाल में भी देखने को मिल सकता है. अपने उत्तराखंड में यह मूला वहुत से स्थानों पर पैदा किया जाता है, लेकिन कुछ स्थानों का मूला अपने कुछ खास मृदा गुणों व जलवायु के कारण मांग में बना रहता है. कुमाऊं में दूनागिरी का मूला विशिष्ट माना जाता है. नैनीताल जिले के रामगढ़, धानाचूली,पहाड़पानी इलाके का मूला भी स्वादिष्ट माना जाता है. गढ़वाल के चमोली जिले में जोशीमठ के कई गांवों, थराली के सोल डुंगरी, घाट विकासखंड के ऊपरी गांवों में भी ये स्वादिष्ट मूला बहुतायत में होता है. पौड़ी जिले में ये थैलीसैण क्षेत्र और दुगड्डा विकासखंड के रामड़ी-पुलिंडा तथा टिहरी जिले में कड़ाकोट व बडियारगढ़ पट्टी, धनोल्टी क्षेत्र इसके उत्पादन क्षेत्र हैं तो देहरादून जिले के जौनसार इलाके में भी इसकी खेती होती है.
पिछले कुछ समय से अमूमन अपने खाली वक्त का कुछ हिस्सा अपने मित्र कमान सिंह धामी की दवाओं की दुकान पर गुजारता हूं तो देखता हूं कि हर तीसरा ग्राहक कब्ज, अपच, अफारा, अजीर्ण, गैस आदि जैसी शिकायतों के साथ अखबारों व टीवी पर चलने वाले विज्ञापनों के प्रभाव में उचित मल निकास की कामना के साथ कायम चूर्ण, नित्यम चूर्ण, पेट सफा जैसी रेचक दवाओं की मांग करता है. कोई-कोई पुराने समय से चले आ रहे हिंग्वाष्टक चूर्ण, लवण भास्कर चूर्ण या फिर लसुनादि वटिका के आदी हैं. कुछेक का विश्वास एलोपैथी पर है तो वे ड्यूल्कोलेक्स या केस्टोफिन जैसी लैक्जेटिव टैबलेट्स की मांग करते हैं. इन सभी औषधियों या चूर्णों का काम है, हमारी आंतों में शुष्क हो चले मल का रेचन कर उसे सहजता से शरीर से उत्सर्जित करना. लेकिन इन सभी दवाओं वाला प्रभाव तो हमारे इस मूले में स्वतः ही मौजूद है. मूले या मूली को परम रेचक माना गया है. पर्याप्त फाइबर की मौजूदगी के कारण इसका सेवन प्राकृतिक रूप से आपकी आंतों को स्वच्छ रखता है और पेट को हल्का. इससे अजीर्ण आदि की संभावनाएं भी न्यूनतम हो जाती हैं. इसलिए मेरी सलाह है कि अपने पेट की अपच संबंधी बीमारी के निदान के लिए नित्यम चूर्ण नहीं, मूले का थेचुवा खाइए. कम से कम पूरे सीजन में सप्ताह में एक-दो बार तो जरूर. चार महीने इसका सेवन अगले आठ महीने तक आपके पेट को दुरुस्त रखने में मदद करेगा. मूला न केवल परम रेचक है, वरन इसमें दूसरे पोषक तत्वों की भी प्रचुरता है. सौ ग्राम मूली के सेवन से हमें 16 कैलोरी एनर्जी मिल जाती है. फैट का तो इसमें नामोनिशान नहीं होता है. यह हमारे लीवर को दुरुस्त रखने में भी कारगर है. शायद यही कारण है कि कई शराबी मित्र सुरा सेवन करते हुए खूब मूली खाते हैं और तर्क देते हैं, “यार दारू लीवर को जितना नुकसान पहुंचाएगी, मूली उसको बैलेंस कर देगी”
अब सवाल यह है कि मूली का थेचुवा ही क्यों, सब्जी या कुछ और क्यों नहीं. या फिर पहाड़ी मूले का ही प्रयोग क्यों, जबकि यही गुण तो दूसरी मूलियों में भी मौजूद होंगे. सवाल का जवाब ये है कि थेचुवा चावलों के साथ खाए जाने वाली डिश है. यदि हम चावलों के साथ इसकी रसेदार सब्जी बनाएंगे तो रस एक तरफ होगा और मूली के टुकड़े एक तरफ, जो खाने में बेस्वाद,बेसुरे और बिखरे-बिखरे लगेंगे. इसके अलावा इस प्रक्रिया में पानी के साथ गल कर मूली के टुकड़े पिलपिले से हो जाते हैं, जो भोजन का मजा फीका कर देते हैं. इसके विपरीत थेचुवा में मूले का रस रीझ कर उसमें ही समाहित हो जाता है, जो खाने के स्वाद को भी बढ़ा देता है. थेचुवा बनाने के दौरान हम उसमें गाढ़ापन लाने और इकसार बनाने के लिए जो आलू डालते हैं या फिर भांग इस्तेमाल करते हैं, उससे इसमें एक खास किस्म का लटपटापन आ जाता है. भला ऐसी लटपट डिश और तरीकों से कहां मुमकिन. दूसरे पहाड़ी मूला ही क्यों….पहली वजह यह है कि इसका स्वाद लंबी वाली मैदानी मूली की तुलना में अधिक मिठास लिए होता है. दूसरा यह है कि पहाड़ के जैविक वातावरण में उत्पन्न होने के कारण यह बिना किसी सर्टिफिकेशन के स्वतः ही आर्गेनिक होता है. न किसी केमिकल फर्टिलाइजर का इस्तेमाल और न किसी घातक पेस्टीसाइड का प्रयोग. बस दो- चार कंडों में भरकर डाली गई गोबर की खाद से ही ये धरती के अंदर अपनी जगह बना लेता है.
मैदानों में रह रही कुछ गृहणियों का स्वाभाविक सा प्रश्न हो सकता है- दद्दा, इस डिश को खाने का मन तो बहुत है, पर अब घर में सिल ही नहीं रही तो इसे थींचें कैसे. समाधान बहुत आसान है. अपने किचन के मारबल वाले स्लैब पर एक ट्रांसपेरेंट पॉलीथिन का टुकड़ा बिछाइए. मूले को उसमें रखिए और घर पर ही रखे मारबल बाले बेलन से थींच डालिए. तो लीजिए इसके साथ ही थेचुवा बनाने की आसान सी विधि. पूरे सीजन इस पर हाथ जरूर आजमाइए.
आवश्यक सामग्री (चार से पांच लोगों के लिए)
पहाड़ी मूला- 750 ग्राम
आलू- 250 ग्राम
दही या छांछ- 100 ग्राम
हल्दी- चौथाई चम्मच
मिर्च- आधा चम्मच
धनिया पाउडर- एक चम्मच
लहसुन – छह-सात कलियां
सरसों तेल- 50 ग्राम
जखिया या जीरा- आधा चम्मच
हींग- एक चुटकी
भांग का बीज (इच्छानुसार)- 50 ग्राम
नमक- स्वादानुसार
हरा धनिया- गार्निशिंग के लिए
बनाने की विधि
सबसे पहले मूले व आलू को धो लीजिए और इन्हें बड़े-बड़े टुकड़ो में काट लीजिए. इन टुकड़ों को भली-भांति थींच कर बारीक-बारीक कर लीजिए. लहसुन की कलियां भी इसके साथ ही पीस लीजिए. अब चूल्हे पर कड़ाही चढ़ा कर उसमें तेल गर्म कर लीजिए. इस तेल में जखिया या जीरा डालिए. जब ये चटकने लगें तो हींग भी डाल दीजिए. इसके बाद थींचे हुए मूले व आलू का मिश्रण इसमें डालें और उसे हल्का-हल्का कर करछी से चलाते हुए मद्धम आंच में भूनते रहें. थोड़ी देर बाद इसमें हल्दी, मिर्च, धनिया पाउडर व नमक भी डालकर कुछ देर और पकने दें. जब करछी से दबाने पर आपको लगे कि ये हल्के से गलने लगे हैं तो इसमें दही या मट्ठा मिला दें और कुछ देर ढक कर इसे और पकने दें. यदि आप इसका स्वाद कुछ और बढ़ाना चाहते हैं तो इसमें भांग मिला सकते हैं. इसके लिए भांग के दानों को भूनकर उन्हें पीस लीजिए और भली-भांति छानकर उनके छिलके बाहर निकाल लीजिए. बचे हुए पाउडर को थेचुवा में मिला लीजिए. दही और भांग में पकते हुए जब थेचुवा तेल छोड़ने लगे तो उसमें वांछित मात्रा में पानी मिला दें. थोड़ी देर और पकने दें. जब मूले अच्छी तरह पक जाएं और आपका थेचुवा गाढ़ा हो जाए तो चूल्हा बंद कर लें. ऊपर से हरी धनिया की पत्ती काट कर गार्निश करें. गर्मागर्म भात के साथ परोसें. बीच-बीच में हरी मिर्च की कटकी इसका मजा दोगुना कर सकती है.
चलते-चलते
पहाड़ी मूले के आप कुछ और बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं. आप इससे बेहतरीन थेचुवा सलाद भी बना सकते हैं. बेहद ही आसान है. मूले को सिल पर थींच लें. सिल पर ही धनिया, लहसुन की पत्ती, हरी मिर्च और नमक का पेस्ट भी बना लें. इस पेस्ट को थींचे गए मूलों में मिला लें. लीजिए थेचुवा सलाद तैयार है. अब मुख्य भोजन कुछ भी बना हो, ये सलाद उसकी शान में चार-चांद लगा देगा. इसके अलावा इस मूले से माश (उड़द) की दाल के साथ स्वादिष्ट बड़ियां भी बनती हैं.
चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखेंगे.
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