उत्तराखंड का इतिहास भाग – 7
मौर्यकाल के साहित्यिक और पुरातत्विक स्त्रोत मिल जाने के कारण वर्त्तमान उत्तराखण्ड क्षेत्र का एक स्पष्ट इतिहास सामने आता है. मौर्यकाल के दौरान वर्तमान उत्तराखण्ड की राजनीतिक स्थिति की जानकारी अशोकावादन, मुद्राराक्षस, तारानाथ के वर्णन, अशोक के कालसी शिलालेख, सांची और सोनारी से प्राप्त धातु लेख से प्राप्त होती है.
जैसा की पिछले भाग में बताया गया था कि मौर्यकाल की स्थापना में पर्वतेश्वर की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. उसकी हत्या के बाद उसका वैरोचक राजा बना अर्थात मौर्यकाल के आरंभ में यह क्षेत्र मौर्यों का एक मित्र राज्य हो चला था. जो अनेक गणराज्यों से मिलकर बना था.
चन्द्रगुप्त के काल में जिन किरातों का प्रयोग गुप्तचरों के रूप में किया जाता था वह भी पर्वतवासी ही थे. कौटिल्य इन्हें विश्वासपात्र मानते थे. इन्हें वे साहसी और वीर मानते थे, कौटिल्य ने उन्हें सेना में भर्ती करने का सुझाव भी दिया. चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना के अग्र भाग में वही रहते थे.
इस काल में भारत आये मैगस्थनिज ने इस क्षेत्र को फलदार वृक्षों से लदा हुआ वताया है. कौटिल्य ने इस क्षेत्र में औषधि उगाने का सुझाव दिया था. पाणिनि ने इस क्षेत्र का वर्णन औषधियों के वनों के रूप में किया है. इस काल में उत्तराखण्ड के इस क्षेत्र के लोगों की आजीविका का एक मुख्य साधन खनिजों को खोदने से प्राप्त होता था. यहां सोना, तांबा, लोहा और अन्य खनिजों का खनन होता था. उत्तराखण्ड के गंगा जल की भी उन दिनों बहुत मांग थी.
चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार और पौत्र अशोक ने अधिकांशतः उसके द्वारा निर्मित साम्राज्य पर ही शासन किया. वर्तमान उत्तराखण्ड में अशोक के काल में हुई तीसरी बौद्ध संगीति के अध्यक्ष मोग्गलिपुत्त तिस्स ने धर्म प्रचार हेतु थेर मज्झिम और उसके चार साथियों को भेजा था. जिसकी पुष्टि सांची और सोनारी से प्राप्त धातु लेख से होती है. इन धातु लेखों में इन आचार्यों के नाम भी लिखे हैं. सिंहली बौद्ध ग्रन्थ महावंश के अनुसार धर्म विजय द्वारा ही अशोक के काल में यह मौर्यों के अधीन हुआ. बौद्ध धर्म की लहर इस क्षेत्र में अशोक के शासन के सत्रहवें- अठारहवें वर्ष के बाद दिखाई पड़ती है.
कुणिन्द जनपद के मुख्यालय कालकूट से प्राप्त शिलालेख से अशोक की जानकारी प्राप्त होती है. कालसी के दक्षिण में स्थित यमुना के पश्चिमी तट पर स्त्रुघननगर में अशोक ने एक स्तूप की स्थापना की थी. अशोक ने गोविषाण और अहिच्छत्रा दोनों में स्तूप बनाये थे.
इसप्रकार यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्र का शासन पहले की तरह कुणिन्द राजाओं का ही रहा होगा. उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार मौर्यकाल में भी यह क्षेत्र एक स्वतंत्र राज्य के समान ही दिखायी पड़ता है.
पिछली कड़ी नन्द वंश के अंत में उत्तराखण्ड की भूमिका
संदर्भ ग्रन्थ – डॉ शिवप्रसाद डबराल ‘चारण’ की पुस्तक उत्तरांचल-हिमांचल प्राचीन इतिहास 2 और डॉ यशवंत सिंह कठोच की पुस्तक उत्तराखंड का नवीन इतिहास.
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