यूँ तो घात लगाने का सामान्य अर्थ होता है, शिकायत, चुगली अथवा किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ कही गयी बात को पीछे से उस तक पहुंचाना. किन्तु एक वाक्यांश के रूप में क्रियांश ‘डालना’ से इसका अर्थ बदल जाता है. अब इसका अर्थ होगा किसी व्यक्ति द्वारा किये गए अन्याय के विरुद्ध न्याय की याचना अथवा दंड की अपेक्षा से न्याय के देवता के दरबार में जाकर गुहार लगाना.
गढ़वाल में घात डालने की प्रक्रिया के लिए पीड़ित व्यक्ति देवस्थान जाकर वहां किसी पत्थर पर हाथ मारकर या पल्या या पत्थर मारकर रोष भरे स्वर में देवता के अन्यायी/अत्याचारी के विनाश की गुहार लगाता है.
कुमाऊँनी में ‘घात’ का अर्थ होता है शिकायत करना किन्तु कुमाऊँ के महिला वर्ग में यह भी देखा जाता है कि पीड़ित महिला अभिप्रेत देवस्थल में जाकर दीप जलाकर जोर से अन्यायी, अत्याचारी व्यक्ति का नाम पुकारकर मुठ्ठी भर चावल देवता की मूर्ति या प्रतीक पर पटक देती है और उलटी हथेली से अपने माथे को पीटकर अत्याचारी को दण्डित किये जाने का अनुरोध करती है. यह कामना पूरी होने पर देवता को अपेक्षित भेंट चढ़ाई जाती है.
सताया गया असहाय या निर्दोष व्यक्ति जब प्रतिकार करने में असमर्थ व्यक्ति चावल, उड़द एवं एक भेंट (सिक्का) लेकर अपने इष्टदेवता अथवा न्याय के देवता गोलूदेव के थान (देवस्थल) जाकर उसे अपनी व्यथा-गाथा सुनाकर वहां उड़द-चावल बिखेरता जाता है. इस प्रक्रिया में वह जोर-जोर से पुकारकर अन्यायी को दण्डित किये जाने की गुहार लगाता है. कई दफा पीड़ित व्यक्ति दीप जलाकर अन्यायी व्यक्ति का जोर-जोर से नामोच्चारण करके मुठ्ठी भर चावल जोर से मूर्ति की ओर फेंकता है और उलटी हथेली से अपना कपाल पीटता है.
उत्तराखण्ड में लोगों का भरोसा है देवता उनकी गुहार सुनकर अपराधी को जन-धन, पशुधन की हानि पहुंचाते हैं. यह भी देखा जाता है कि अदालत में मुकदमा करने में अक्षम या हारा हुआ व्यक्ति भी अपने इष्टदेव के देवालय में त्रिशूल गाड़कर देवता को दोषी का नाश करने के लिए ललकारता है.
इसी सन्दर्भ में टिहरी गढ़वाल की लास्पा पट्टी की मणठान्णा के लोगों का मानना कि वह विवाहिता बेटियों का बहुत ध्यान रखती है. उनके द्वारा याद किये जाने मात्र से ही देवी पीड़ा पहुँचाने वाले का सर्वनाश कर डालती है.
कई लोग घात को रात में चुपके से तंत्र-मंत्र द्वारा और बलि देकर देवता को उसी की ओर लौटा देते हैं, इसे ‘हांस काटना’ कहते हैं. यह विश्वास किया जाता है कि इसके बाद देवता घात डालने वाले का अहित करता है.
एक-दूसरे के विरुद्ध यह परम्परा कई पीढ़ियों तक चलती रहती है. जब दोनों पक्षों में सुलह हो जाती है तो दोनों पक्ष मिलकर देवता की पूजा करते हैं. यह माना जाता है कि इसके बाद देवता किसी को भी हानि नहीं पहुचाएंगे.
संदर्भ : उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी.डी. शर्मा.
काफल ट्री डेस्क
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