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चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और उनके लुच्चों के गीत के बहाने

हिन्दी पढ़ने – पढ़ाने वालों की एक अलग दुनिया है जो इसी दुनिया में होते हुए भी अलग – सी है – बहुत कुछ एक बंद दुनिया की तरह . यहाँ संकेत हिन्दी रचनाकार और पाठक वर्ग से नहीं अपितु एक विषय के रूप में हिन्दी अध्ययन – अध्यापन की दुनिया से है जिस पर नामी गिरामी लेखक – संपादक – आलोचक अक्सर साहित्य विरोधी होने का आरोप लगाते रहते हैं और कालेजों – विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों को हिन्दी साहित्य का कब्रगाह करार देने पर आमादा दिखाई देते हैं. इस मुद्दे पर बहुत लम्बी-लम्बी बहसें हो चुकी हैं और बिना किसी नतीजे के स्थगित हो गई दीखती हैं फिर भी इस बात से इनकर नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी का जो भी छोटा -सा साहित्यिक संसार है उसमें उतर कर अतीत में झांकने पर कई दिलचस्प बातें मिल जाती हैं ( और इसमें हिन्दी विभागों की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है ) मसलन – ‘उसने कहा था’ का लुच्चों का गीत संबंधी विवाद. आइए इस पर थोड़ा गौर करते हैं.

‘उसने कहा था’ चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ (7 जुलाई 1883 – 12 सिसंबर 1922) जिनके बारे में मशहूर है कि वे केवल तीन कहानियाँ – ‘उसने कहा था’, ‘बुद्धू का काँटा’ और ‘सुखमय जीवन’ लिखकर अमर हो गए, की एक कालजयी कहानी है जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका ‘सरस्वती’ के दिसंबर 1915 के अंक में प्रकाशित हुई थी और तबसे विश्वविद्यालय स्तर के स्नातक और स्नातकोतार पाठ्यक्रमों में लगभग अनिवार्यत: जगह पाती रही है. यह कहानी कई कारणॊं से उल्लेखनीय है. पहली तो यह कि यह युद्ध की पॄष्ठभूमि पर लिखी गई पहली हिन्दी कहानी है. दूसरी यह कि हिन्दी कहानी के इतिहास में यह मील का पत्थर है ( कथाकार और नए ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव इससे ही हिन्दी कहानी का विधिवत आरंभ मानते हैं) तीसरी बात यह कि इसमें टेकनीक के लिहाज से नयापन पहली बार सामने आया.

पूर्वदीप्ति या फ्लैशबैक टेकनीक का ऐसा प्रयोग हिन्दी में पहली बार आया और अब तक ऐसा प्रयोग लगभग दुर्लभ ही है और चौथी बात यह की यह हिन्दी की पहली कहानी है जिस पर अश्लीलता का आरोप मढ़कर विद्वान प्राध्यापकों ने पाठ्यक्रम से बाहर का रास्ता दिखाने का सद्प्रयास (!) किया और यदि शामिल किया भी तो ‘लुच्चॊं का गीत’ को बाहर करने के बाद यह सदाशयता अपनाते हुए कि विद्यार्थी चरित्रवान बने रहे और प्रोफेसरान को बगलें न झाँकना पड़े. आइए देखते हैं उस गीत को जो विवाद का विषय बना रहा और एक ही कहानी अलग – अलग जगहों पर पाठान्तर के साथ पढ़ाई जाती रही और प्रतिनिधि संकलनों में शामिल होती रही –

दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए —
ओय लाणा चटाका कदुए नूं

कद्दू बण्या वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नूं

[दिल्ली शहर से पिशौर (पेशावर) को जाने वाली लौंगों का / लहँगों का व्यापार कर ले और नाड़े का सौदा कर ले. गोरिए , कद्दू बड़ा मजेदार बना है , चटखारे लेने का मन हो रहा है]

हिन्दी के बहुत से विद्वान प्राध्यापकों की नजर मे यह यह एक अश्लील और द्विअर्थी गीत था जिसे बच्चों को नहीं पढना चाहिए था और इसी बिरादरी का एक खेमा इसे यथावत पढ़ने- पढ़ाने के पक्ष में था और इसी उठापटक में इस कहानी के कई पाठ आज भी प्रचलित हैं यहाँ तक की गीत में भी कुछ पंक्तियों में हेरफेर की गई है.साथ ही बहुत से ऐसे संकलन भी है जिनमें यह गीत और गीत से पहले और बाद का पूरा प्रसंग यथावत विद्यमान है-

“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा. भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी.”


वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”
कौन जानता था कि दाढ़्यों वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!

असल बात तो यह है कि इस गीत को लेकर श्लील – अश्लील विवाद में न तो पहले कोई दम था और ही आज है यह हिन्दी की अकादमिक बिरादरी के एक बड़े हिस्से की उस मानसिकता को दर्शाता है जो शुद्धता और शुचिता की आड़ लेकर किसी रचना को अपने तरीके से तोड़ – मरोड़कर पेश करने में कोई गुरेज नहीं करती और स्वयं को रचना / रचनाकार से बड़ा मानने की जिद पर अड़ी दिखाई देती है. किसी रचना की एतिहासिकता और मूल पाठ से खिलवाड़ करना भी उसे बुरा नहीं लगता.

शुक्र है कि हिन्दी के अध्ययन – अध्यापन की आज की दुनिया थोड़ी व्यस्क हो गई है और इस तरह के विवाद बस ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ जैसी किताबों में ही रह गए हैं शायद! इतिहास भी क्या गजब चीज है!

 

सिद्धेश्वर सिंह खटीमा के राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं. नैनीताल के कुमाऊँ विश्वविद्यालय के डीएसबी कैम्पस से पीएचडी कर चुके सिद्धेश्वर के पास पहाड़ों में बिताये जीवन का लंबा अनुभव है और वे जल्द ही काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.

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  • धर्म युग , साप्ताहिक हिन्दुस्तान के जमाने के पाठको को दशको बाद काफल ट्री के साथ वही स्वाद फिर मिलने लगा है..। शुक्रिया .।

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