हिमाचल वाला किस्सा यहां भी दोहराया गया. फर्क सिर्फ ये है कि शिमला में शर्मा जी थे और यहां हल्द्वानी में वर्मा जी. आउटगोइंग गर्मी, इनकमिंग बरसात के दिनों में एक दिन शर्मा जी रात को शिमला के प्रेस क्लब में खाना खाते हुए मिल गए. परिवार के शिमला में ही मौजूद होने के बावजूद बाहर खाना खाने का कारण पूछा तो वो हृदयविदारक था. दरअसल पिछले पांच दिनों से श्रीमती शर्मा रोज घिया ( लौंकी) की ही सब्जी बना रही थी. चार दिन तक तो शर्मा जी कलेजे पर पत्थर रखकर जैसे-तैसे खाते रहे, मगर पांचवें दिन उनका धैर्य टूट गया और गुस्से में वो जीभ नाम्नी रसना का स्वाद बदलने के लिए प्रेस क्लब में चले आए. मेरे मुंह से छूटते ही निकला-“ उफ रोज घिया, नाराज पिया”. खान-पान के शौकीन शर्मा जी की नाराजगी अपनी जगह जायज थी और श्रीमती शर्मा की मजबूरी अपनी जगह दुरुस्त. श्रीमती शर्मा की मजबूरी ये थी कि इन दिनों सारी सब्जियां महंगी ही रहती हैं और हिमाचल सचिवालय में यूडीसी के पद पर कार्यरत शर्मा जी महीने की शुरुआत में रसोई के नाम पर हाथ में जो बजट थमाया करते थे, उसमें इन दिनों पति-पत्नी, तीन बच्चों, एक कुत्ता व एक बिल्ली यानी सात जनों के परिवार के लिए बाजार में सबसे सस्ती सब्जी लौंकी ही सुलभ थी. लिहाजा श्रीमती शर्मा धकापेल सप्ताह के पांच दिन लौंकी भक्षण पर ही ध्यान केंद्रित किए हुए थी. (Urad Daal Badi Uttarakhand Recipe)
स्वादिष्ट होने के साथ ही पथरी का अचूक इलाज भी है गहत की दाल का फाणा
शर्मा जी जैसा हाल अभी पिछले सप्ताह यहां वर्मा जी का मिला. एक दिन नैनीताल रोड पर एक दुकान में छोले भठूरे खाते मिल गए. कारण पूछा तो वही स्वाद की एकरसता. दिन के भोजन में रोज-रोज वही पीली-पीली सी दालें, बहुत हुआ तो किसी दिन लाल-काली-पीली मिलाकर मिक्स वाली कर दी. सो वर्मा जी एक दिन मौका लगते ही जीभ के चेंज के लिए छोले भठूरे खाने पहुंचे और हमने उन्हें जूठे हाथों धर लिया. उन्होंने लगे हाथों मुझे भी भठूरे खाने का न्यौता दिया और साथ में यह वचन भी मांग लिया कि इसका जिक्र उनकी पत्नी के सामने न करूं. मैंने वचन के लिए तो हामी भर दी, पर भठूरे खाने का न्यौता विनम्रता से अस्वीकार कर दिया क्योंकि उस दिन मैं घर से जमकर बड़ी साग और भात भकोस कर निकला था. सप्ताह भर के एकरस मेन्यू के बीच जब कभी एक दिन भात के साथ बड़ी साग बनता है तो स्वाभाविक है कि इसकी डिफरेंट खुशबू और स्वाद के कारण एक करछी अतिरिक्त भात की गुंजाइश बन ही जाती है. (Urad Daal Badi Uttarakhand Recipe)
स्वाद में बदलाव के लिए बड़ी का साग या रसेदार सब्जी बनाना भारतीय रसोईयों का सैकड़ों साल पुराना आजमाया हुआ नुस्खा है. इजा, आमा, बूढ़ी आमा के जमाने से. मरूभूमि राजस्थान से लेकर बंगाल तक कोई भारतीय प्रांत ऐसा नहीं है, जिसमें आपद समय व स्वाद परिवर्तन के लिए बड़ियां बनाने व पकाने की रवायत न रही हो. विशेषकर राजस्थान के मरूक्षेत्र तथा मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड व बघेलखंड के इलाकों में कुछ ज्यादा ही. उसकी वजह यह है कि इन इलाकों में गंभीर जल संकट है. जल की न्यूनता के कारण वहां सब्जियों की पैदावार नाममात्र की ही है. इसलिए पानी की कमी के कारण खेती में जो दालें और पेठा आदि होते हैं, उनसे बड़ियां बनाकर स्वाद की एकरसता तोड़ी जाती है. मारवाड़ी भोजन में तो दाल से निर्मित बड़ी ही नहीं, पापड़ की सब्जी और बेसन गट्टे की सब्जी बनाने का भी चलन है.
अद्वितीय होता है कुमाऊं-गढ़वाल का झोई भात
इन क्षेत्रों में अगर जल संकट के कारण बड़ी ने रसोई में अपनी जगह बनाई है तो बंगाल जैसे प्रांतों में जल प्लावन के कारण बड़ी की महता है. बरसात के दिनों में बंगाल के अधिकांश हिस्सों में बाढ़ का पानी घुस आता है और सब्जियों का संकट उत्पन्न हो जाता है. ऐसी स्थिति से निपटने के लिए पश्चिम बंगाल के ग्रामीण पहले से ही बड़ी का स्टाक करके रख लेते हैं. अगर आप बंगाल के गांवों का भ्रमण करें तो आपको गांव-गांव लोग बड़ी मात्रा में दालेर बोरी ( दाल की बड़ी), कुमड़ो बोरी ( पेठे की बड़ी) बनाते और सुखाते मिल जाएंगे. न केवल प. बंगाल, अपितु बांग्लादेश के गांवों-शहरों में भी आपको ऐसा सब तरफ देखने को मिल जाएगा. भौगोलिक-राजनैतिक सरहदें जमीन को बांट सकती है, पर भाषा, संस्कृति व खानपान की आदतों को नहीं. अगर सीमा के इस पार अमृतसर जिले का भारतीय पंजाबी सरसों के साग और मक्की की रोटी का प्रेमी है तो सरहद के उस पार लाहौर जिले का पाकिस्तानी पंजाबी भी इसका ही दीवाना. अमृतसर में उड़द की दाल की जो खूब बड़े आकार की मशहूर अंबरसरी मसालेदार बड़ियां बनती हैं, उनकी खुशबू से पाकिस्तान के लाहौर, कसूर, गुजरात, झंग आदि जिलों की रसोइयां भी महकती हैं.
यदि इन प्रांतों ने आपद समय के लिए अपनी रसोई में बड़ी को जगह दी तो फिर अपना उत्तराखंड आपदाओं का घर ही है. कब बादल गरजने लगें, मेघ बरसने लगे और प्रकृति रौद्र रूप धारण कर ले, इसका अनुमान ही नहीं किया जा सकता. पलक झपकते ही पहाड़ कराहने लगें और उनका टनों मलबा रास्तों पर. रास्तों पर मलबा आते ही आवाजाही ठप. हल्द्वानी, खटीमा, कोटद्वार, ऋषिकेश से चलकर दूरदराज के इलाकों में राशन, सब्जी पहुंचाने वाले ट्रक जहां के तहां खड़े. ग्रेफ वाली सड़क हुई तो अगले 48 घंटों में सड़क सुधरने की उम्मीद रहती है. पीड्व्ल्यूडी वाली हुई तो 48 दिन भी आस न रखिए. ऐसे वक्त पर काम आती है घर की रसोई में सहेज कर रखी गई बड़ी. आपद समय भी काट लिया और जीभ का स्वाद भी बदल लिया.
हमारी पूर्वज माताओं, दादियों ने इस जरूरत को सदियों पहले समझ लिया था. यही कारण है कि अन्य प्रांतों की तुलना में उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग में बड़ी की अनेक किस्में ईजाद कर ली गईं. दूसरे प्रांतों में तो चुनिन्दा किस्म की बड़ियां ही देखने-खाने को मिलेंगी, लेकिन उत्तराखंड में भूजे (पेठे) की बड़ी के अलावा काखड़ी की बड़ी, तुमड़ी की बड़ी जैसी कई वैरायटी मौजूद हैं. नाल बड़ी तो उत्तराखंड की अद्भुत बड़ी है. अरबी के पत्ते के डंठलों पर उड़द की दाल की पिट्ठी को लपेट कर बनाई गई इस बड़ी को खाने वाला अंगुली चाटता रह जाता है. उच्च पर्वतीय भूभाग में तो गहत की दाल की बड़ी भी इतनी स्वादिष्ट बनाई जाती है कि बार-बार खाने का मन चाहेगा.
भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है
हालांकि बड़ी बनाना एक कष्टसाध्य प्रक्रिया है. रात को दाल भिगाओ. सुबह उसे सिलबट्टे या ग्राइंडर में पीसो. पीसने में भी यह खास सतर्कता जरूरी है कि दाल का पेस्ट पतला न हो जाए. सुबह पेठे, तुमड़ी या काखड़ी को छीलो, उसे कद्दूकस पर कसो. अब उसे महीन कपड़े पर रख कर उसका सारा पानी निचुड़ जाने दो. इसके बाद इस सारी सामग्री को दाल के पेस्ट में मिला लो. ऊपर से हींग का चूरा भी बुरक दो. फिर इस मिश्रित सामग्री को किसी गहरे बरतन में फेंटना शुरू कीजिए और लगातार तब तक फेंटते रहिए, जब तक पानी में इसकी परीक्षा न हो जाए. पानी में परीक्षा से अभिप्राय यह है कि काफी देर फेंटने के बाद एक कटोरी में पानी लिया जाता है और इस मिश्रण की एक छोटी सी गोली बनाकर उसे इस पानी में छोड़ा जाता है. अगर यह गोली पानी में तैर गई तो समझो बड़ी डालने के लिए तैयार है, अगर डूबी तो अभी मिश्रण को और अधिक फेंटे जाने की जरूरत है.
ढंग से फेंटे जाने के बाद शुरू होता है इस मिश्रण को बड़ियों का आकार देने और कड़ी धूप में सुखाने का अगला चरण. प्लास्टिक की पन्नियों या टिन की नालीदार चादरों पर इस मिश्रण की लगभग समान आकार की बड़ियां बनाकर उन्हें तीन से चार दिन तक धूप में सुखाया जाता है. ऐसी-ऐसी भी हुनरमंद महिलाएं भी हैं, जिनकी एक-एक बड़ी एक ही आकार की होती है. कोई भी बड़ी न एक मिलीमीटर ज्यादा, न कम. तीन-चार दिन धूप में अलटने-पलटने और भलीभांति सूख जाने के बाद होता है इन बड़ियों का भंडारण और फिर महक उठती है रसोई इनसे बनी स्वादिष्ट व शानदार डिशेज की खुशबू से, जो शर्मा जी, वर्मा जी जैसे चटोरों को घर से बाहर निकल कर चोरी-चोरी रेस्टोरेंट में खाना खाने की आदत पर लगाम लगाती है.
बड़ी में बड़े-बड़े गुण तो हैं, पर इसकी कष्टप्रद निर्माण प्रक्रिया के कारण आजकल के एवरीथिंग इंस्टैंट वाले दौर की गृहणियां इन्हें डालने की जहमत ही नहीं उठाना चाहती. हल्द्वानी के नवसृजित उपनगरीय इलाकों से गुजरता हुआ कई बार देखता हूं कि बूढ़ी माताएं छतों पर बड़ियां डाल रही होती हैं और बहूरानी बरामदे में मूढ़े पर बैठ अपने मोबाइल फोन को अपने हाथ से चेहरे से ढाई फीट दूर ले जाकर चेहरे, होंठों व आंखों की अलग-अलग प्रकार की आकृतियां बना रही होती हैं. कहीं मिल जाए ये ससुरा मार्क जुकरबर्ग तो इसे तबीयत से लठियाऊं. जुर्म आयद करुंगा-नई पीढ़ी को आलसी व काहिल बनाना और हमारी रसोई से बड़ी जैसी परंपरागत व शानदार डिश को दूर करने की कोशिश करना. वो तो भला हो हल्द्वानी की किरण जोशी, देहरादून की सुमन भट्ट और पहाड़ के छोटे-छोटे इलाकों में बिखरे महिला समूहों की अनेकानेक कर्मयोगिनियों का जो आज भी पहाड़ी बड़ी बना कर न केवल इसके शौकीनों को हल्द्वानी, देहरादून, अल्मोड़ा, दिल्ली आदि के बाजारों में सुलभ करा रही हैं बल्कि आर्थिक स्वालंबन की इबारत भी लिख रही हैं.
यूं तो बड़ी को कई तरीके से बनाकर खाया जाता है. आलू के साथ इसकी रसेदार तरकारी को तो अखिल भारतीय स्वीकृति है. कुछ स्थानों पर इसे लौंकी की सब्जी में डालकर भी बनाया जाता है. इससे इस सब्जी का स्वाद बढ़ जाता है और वो लोग भी लौंकी खाने को तैयार हो जाते हैं, जिनकी इसमें अरुचि है. जालंधर में बनारस की रहने वाली आरती भाभी आलू-बैंगन और बड़ी मिलाकर जो शानदार रसेदार सब्जी बनाती थी, उसे खाकर तो वो लोग जो बैंगन को बेगुन-निर्गुण समझते हैं, इसकी सगुण उपासना करने लगें. ओडिशा के लोग चौलाई में बड़ियां मिलाकर एक स्वादिष्ट डिश बनाते हैं, जिसे साग बड़ी नरिया कहा जाता है. एक मित्र तो मैंने बड़ी मिलाकर मीट भी बनाते देखे. उन्होंने कम मीट में बड़ी मिलाकर उसकी मात्रा बढ़ाने के उद्देश्य से इस कम्बीनेशन का आविष्कार किया था या फिर एक नए किस्म के स्वाद की तलाश में ये खोज की. यह तो मैं नहीं कह सकता. लेकिन खाने में यह कम्बीनेशन स्वादिष्ट व शानदार था. कालांतर में मैंने एक बंगाली मित्र मछली में बड़ी मिलाकर माछेर झोल भी बनाते पाए. इन सभी कम्बीनेशन का तो अपना मजा है ही, लेकिन उत्तराखंड में बनने वाला बड़ी साग अपने आप में अद्भुत है. स्वाद में लाजवाब और पड़ोसियों तक के नथुनों को फड़का देने वाला. सबसे बड़ी बात तो ये है कि अगर रसोई में बड़ियां रखी हैं तो ये बनाने में बेहद आसान है.
…तो हे समस्त श्रीमती शर्माओ एवं श्रीमती वर्माओ, आपकी सुविधा के लिए मैं यहां बड़ी साग बनाने की युग-युगांतर से चली आ रही प्राचीनतम हिमालयी विधि लिखे देता हूं. इस विधि का अनुसरण कर कई सद्गृहणियां अपने उन चटोरे पतियों को स्वादपाश में बांध चुकी हैं, जो घर से चोरी-चोरी रेस्टोरेंट व ढाबों में अपनी चटोरपंती पूरी करने के लिए पहुंचा करते थे.
आवश्यक सामग्री ( चार से पांच व्यक्तियों के लिए)
बड़ियां-100 ग्राम
गेहूं का आटा- 50 ग्राम
खाद्य तेल- 100 मिली
जीरा-आधा चम्मच
हल्दी- चौथाई चम्मच
मिर्च- आधा चम्मच
धनिया- एक चम्मच
अदरक-लहसुन पेस्ट-एक चम्मच
नमक स्वादानुसार
हरा धनिया- चार-छह टहनियां
पकाने की विधि
चूल्हे पर कड़ाही चढ़ाकर उसमें तेल को गर्म कर लें. इस गर्म तेल में बड़ियों को हल्का भूरा होने तक तल लीजिए. ध्यान रहे बड़ियां अधिक जलने न पाएं. बड़ियों को तेल से निकाल कर अलग रख लीजिए. अब बचे हुए तेल में जीरा डालकर उसे भून लें. जीरा भुनने पर आटे को तेल में डाल दें और मद्धम आंच में भूनना शुरू करें. आटा भूनते समय उसमें हल्दी, मिर्च व धनिया पाउडर भी डाल लें. यदि टमाटर डालना चाहें तो इसी समय बारीक-बारीक काटकर डाल सकते हैं. अंत में अदरक-लहसुन के पेस्ट को भी इसके साथ भूनकर इसमें एक लीटर पानी डाल दें. जब यह पानी खौलने लगे तो तेल में तल कर अलग रखी गई बड़ियों को इसमें डाल लें. कड़ाही के ऊपर ढक्कन रख लें. बड़ी साग को मद्धम आंच पर 15 मिनट तक पकने दें. 15 मिनट बाद जांच लें कि बड़ियां पूरी तरह मुलायम हुई या नहीं. यदि मुलायम हो गई हों तो समझ लीजिए साग पक चुका है. अब इसके ऊपर हरे धनिये की पत्तियां डालकर गार्निश कर लें. गरम-गरम भात के साथ इसका अलौकिक आनंद लें. साथ में मूली का सलाद हो तो मजा दोगुना होने की गारंटी है.
(इस प्रस्तुति में शर्मा जी व वर्मा जी वास्तविक पात्र हैं. सिर्फ पत्नियों के साथ शीत युद्ध की आशंका के मद्देनजर उनकी जातिसूचक उपाधियां बदल दी गई हैं.)
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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वाह शिशोड़ इतना गुणकारी है पता न था। जानकारी के लिए धन्यवाद।