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युवाओं को खोखला करता बेरोजगारी का घुन

23 साल का ताजा-ताजा ग्रेजुएट लड़का अक्सर मेरे पास आकर अक्सर बैठ जाया करता है. एक दिन वह काफी देर तक बैठा रहा, मैं अपने कारोबार निपटाता हुआ बीच-बीच में उससे बात भी करता रहा. उसने कई दफा मुझसे पूछा कि उसकी उपस्थिति कहीं मेरे लिए परेशानी की वजह तो नहीं बन रही है. मैंने उसे आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ भी नहीं है और मैं अपना काम भी कर रहा हूँ. यह आजकल के दौर का एक दुर्लभ प्रजाति का नौजवान है. न कोई नशा-पत्ता, न किसी भी किस्म के महंगे शौक न आवारागर्दी करते हुए दनदनाती बाइक, स्कूटी चलाने का शौक. घर की जिम्मेदारियों का बोध भी खूब है. घर के सभी छोटे-बड़े सदस्यों के यथासंभव काम भी मनोयोग से निपटाता है. सेना, अर्धसैनिक बल, पुलिस आदि के अपनी रुचि के विभागों में सभी स्तरों पर भर्ती के लिए प्रयासरत भी रहता है. घर की आर्थिक स्थिति के अनुसार कोचिंग-ट्यूशन की सेवाएँ भी लेता है. पढ़ाई में औसत से थोड़ा ज्यादा बेहतर मगर साजिंदा बेजोड़ है. संगीत ही हमारे बीच रिश्ते की कड़ी भी है.

खैर, इस दोपहर वह बेचैन सा रहा और कुछ-कुछ देर में फोन कर कुछ मालूमात करता रहा. दिन चढ़ने के साथ फोन पर उसकी बौखलाहट और झल्लाना भी बढ़ता चला गया. दिन ढलने के बाद एक दफा फिर उसने मेरी आश्वस्ति चाही और मैंने कहा कि वह रात मेरे घर पर ही रुक भी जाए तो भी मेरे लिए ख़ुशी की बात है. अब तक मेरे पूछने के बाद भी वह अपनी परेशानी बताने से बचता आ रहा था. उसने बताया कि कुछ रिश्तेदार घर में आये हुए हैं वह उनके टलने के बाद ही घर जाना चाहता है. अपनी परेशानी बताते हुए वह कहने लगा मेरे घर जाते ही उनका पहला सवाल होगा –और क्या कर रहे हो? जबकि उन्हें मालूम है कि मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ. फिर उनके उपेदेशों का सिलसिला शुरू हो जायेगा. वह बोला कि रिश्तेदार इस तरह के सवाल जान-बूझकर पूछते हैं जबकि उन्हें इन सवालों के जवाब मालूम होते हैं.

मैं उत्तराखण्ड के नौजवानों की वर्तमान पीढ़ी की सबसे बड़ी परेशानी से वाबस्ता था. अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद काम करने को तत्पर बेरोजगार नौजवानों की एक पीढ़ी हमारी आँखों के सामने शर्मिंदा होने को अभिशप्त हैं. उनकी इस शर्मिंदगी के जिम्मेदार वह खुद नहीं हैं. वे लगन और मेहनत के साथ आजीविका कमाना चाहते है. इसके लिए पर्याप्त जद्दोजहद करते हैं लेकिन उनके पास मौके ही नहीं हैं. ऊर्जा और इरादों से भरपूर ये नौजवान शर्मिंदा हैं. आजीविका हासिल करने के इनके प्रयास ईमानदार हैं, नतीजा सिफ़र. वे चाहे कितनी भी मेहनत कर लें सरकार के पास उनको देने के लिए रोजगार है ही नहीं, रोजगार उसका एजेंडा ही नहीं है. सरकारी नीतियों ने राज्य की एक समूची पीढ़ी को निकम्मे होने की शर्मिंदगी के दलदल में धकेल रखा है.

आंकड़े भयावह हैं. उत्तराखण्ड के सभी जिलों के सेवायोजन कार्यालयों में 8,69,762 नौजवान बेरोजगारों के रूप में पंजीकृत हैं. जाहिर है बेरोजगारों की संख्या इससे काफी ज्यादा होगी क्योंकि ढेरों नवयुवक इन कार्यालयों में पंजीकरण करवाते ही नहीं हैं. एक-सवा करोड़ की आबादी वाले राज्य के लिए यह एक चिंताजनक आंकडा है. उत्तराखण्ड की साक्षरता दर 78.80 प्रतिशत है.

राज्य में उच्च शिक्षा की स्थिति भी ठीक ही है. तब सहज ही इन बेरोजगारों की जमात में अच्छी खासी संख्या पढ़े-लिखे नौजवानों की है. निरक्षर, अशिक्षित नौजवान किसी भी तरह की मेहनत-मजदूरी के काम में खुद को खपा लेते हैं और रोजगार कार्यालयों से किसी तरह की उम्मीद नहीं पालते. उत्तर भारत की होटल, रेस्टोरेंट इंडस्ट्री उत्तराखण्ड के ऐसे नौजवानों से भरी हुई है. आप उत्तर भारत की किसी भी व्यावसायिक रसोई में चले जाइए वहां आपको उत्तराखण्ड के ढेरों कामगार मिल जायेंगे. पढ़े-लिखे नवयुवक सरकारी नौकरियों के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं लेकिन नौकरियों के अभाव में बेबस होकर अंततः विभिन्न महानगरों में साइबर कुली बनते हैं. इन जैसे नौजवानों के सपनों की खाद पाकर ढेरों ट्यूशन और कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह पनप रहे हैं.

80 के दशक से राज्य में बढ़ती चली आ रही बेरोजगारी की दर में राज्य बनने के बाद भी कोई कमी नहीं आयी है. विभागों में रिक्तियां होने के बावजूद सरकार भर्तियाँ नहीं कर रही है. बेरोजगारों के विभिन्न संगठन अक्सर अपनी मांगों के लिए धरना-प्रदर्शन कर पुलिस से पिटते देखे जा सकते हैं. बेरोजगारी के आंकड़े को आत्महत्या और नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के साथ रखकर देखने पर हमें राज्य के बेबस और मायूस बना दिए गए नौजवान की शक्ल दिखाई देगी. उत्तराखण्ड में हर साल 500 लोग आत्महत्या कर लेते हैं. इन आत्महत्या करने वालों का आयु वर्ग 14 से 30 साल है.

एक छोटे पहाड़ी राज्य के लिए यह एक खासी संख्या है. इससे भी ज्यादा गंभीर और चेताने वाली बात यह है कि आत्महत्या की वृद्धि दर के मामले में हमारा राज्य भारत में अव्वल है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार उत्तराखण्ड में आत्महत्या की वृद्धि दर 129.50 प्रतिशत है जो कि सभी राज्यों से ज्यादा है, इसमें साल-दर-साल बढ़ोत्तरी हो रही है. जो युवा राज्य निर्माण में सबसे अहम भूमिका निभा सकता है वह आत्महत्या का रास्ता चुनने की ओर बढ़ता जा रहा है. जाहिर है समानजनक रोजगार का अभाव आत्महत्या के कारणों में सबसे महत्वपूर्ण है.

यह भी एक चौंकाने वाला तथ्य है कि उत्तराखण्ड में अवैध नशे का सालाना कारोबार 500 करोड़ तक आंका जा रहा है. इस साल की पहली तिमाही में ही 13 जिलों से 3 करोड़ की नशे की खेप बरामद हो चुकी थी. साल भर में 500 किलो तक चरस पकड़ी जा रही है, जिसकी  सप्लाई पहाड़ी जिलों से ही की जाती है.

शराब, चरस और गांजे के पारंपरिक नशे को एलएसडी, हैरोइन, स्मैक, नशे की गोलियों व इंजेक्शनों ने काफी पीछे छोड़ दिया है. राज्य का युवा तेजी से नशे की गिरफ्त में आता जा रहा है. आने वाले समय में नशा असमय मौतों का सबसे बड़ा कारण बनता दिखाई दे रहा है. नशे की इस कुप्रवृत्ति के कारणों में भी एक नौजवानों को दिशाहीन बना दिया जाना भी है. भीषण मेहनत के बाद की गलाकाटू प्रतियोगिता के बाद भी उनका हासिल कुछ नहीं है. भारी मानसिक दबाव से उपजी हताशा और निराशा की परिणति अपराध, नशे और आत्महत्या आदि में दिखाई देती है. सरकारें युवाओं के लिए सम्मानजनक रोजगार का बंदोबस्त नहीं करेंगी तो राज्य का युवा अंतहीन अंधेरों में धंसता चला जायेगा. फिलहाल सरकार के एजेंडे में इसका कोई संकेत तक नहीं मिल रहा है.

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Sudhir Kumar

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