Featured

लम्बी धोती और छोटी धोती के नखरे

जैसा की देश भर में होता है कुमाऊं में भी ब्राह्मणों के अंदर जातीय वरिष्ठता होती है. जिसे मोटे तौर पर ठुल्ल धोत्ती और नान् धोत्ती दो भागों में बांटा जा सकता है. जिसका अर्थ लम्बी धोती और छोटी धोती पहनने से है.

वर्तमान में एक सीमा तक इस जातीय दंभ पर चोट हुई है लेकिन अभी भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो इसे मानता है. ठुल्ल धोत्ती और नान् धोत्ती का यह अंतर किया जाता है खेतों में हल जोतने के आधार पर. जो ब्राह्मण खेतों में हल जोतते हैं उन्हें छोटी धोती का ब्राह्मण कहा जाता है.

शायद छोटी धोती इसलिये कहा गया होगा क्योंकि हल चलाते समय मिट्टी से अपनी धोती को बचाने के लिये अपनी धोती ऊपर मोड़नी होती है.

कुमाऊं में शिल्पकारों का समर्थन हासिल करने के लिये सवर्णों ने 1925 में कुमाऊं परिषद् से एक प्रस्ताव पारित किया जिसके तहत ब्राह्मण समाज में हल जोतने का प्रस्ताव रखा गया. हर्षदेव ओली, कृष्णानंद उप्रेती और बद्रीदत्त पांडे ने इस प्रस्ताव को पारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

इस प्रस्ताव का तीव्र विरोध हुआ. विरोध करने वालों में एक नाम था हरगोबिन्द पंत का. बाद में हरगोबिन्द पंत ने 1929 में बागेश्वर में खेतों में हल चलाया. उन्होंने तर्क दिया कि जब हमारे बच्चे कृषि विद्यालयों में हल जोत सकते हैं तो हम अपने खेतों में क्यों नहीं?

रामदत्त ज्योतिर्विद ने इसे यह कहकर दुराग्रह बताया कि बागेश्वर में पंत जी के हल खोजने के नाटक से एकता महाप्रलय पर्यन्त भी न होगी. इस टिप्पणी पर गौर्दा ने कहा था कि इस नई हवा को आप नहीं रोक सकते.

1932 में अल्मोड़े में कुर्मांचल समाज सम्मेलन हुआ जिसमें ‘अछूत कोई नहीं’ का नारा दिया गया. गोविन्द वल्लभ पंत के नेतृत्व में सवर्णों का एक बड़ा दल टम्टों के नौले में पानी पीने गया. यहां ध्यान देने वाली बात है कि सवर्णों ने अपने नौलों के पानी का उपयोग उन्हें नहीं करने दिया.

इसी तरह कुछ मंदिरों में छुट-पुट प्रवेश भी दिये गये. इस दौर में जातीय एकता ने नाम पर अनेक सहभोज कराये गये लेकिन कभी भी इन सहभोजों में शिल्पकारों को शामिल नहीं किया गया.

कुल मिलाकर इस दौर में सवर्णों द्वारा जातीय एकता पर किये गये यह प्रयास सवर्णों के प्रदर्शन मेले से अधिक कुछ न थे. यदि उस समय ही ईमानदार प्रयास किये गये होते थे आज हमें ठुल्ल धोत्ती और नान् धोत्ती वाले ब्राह्मण जैसे सुनने को ही नहीं मिलते.

-गिरीश लोहनी

सभी ऐतिहासिक तथ्य पहाड़ पत्रिका में वरिष्ठ इतिहासकार शेखर पाठक के लेख उत्तराखंड में सामाजिक आन्दोलनों की रुपरेखा से लिये गये हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

View Comments

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

4 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago