पहाड़ की लोक परम्पराओं, लोक आस्थाओं एवं लोकपर्वों की विशिष्टता के पीछे देवभूमि के परिवेश का प्रभाव तो है ही साथ ही यहॉ की विशिष्ट भौगोलिक संरचना भी दूसरे क्षेत्रों से इसे अनूठी पहचान देती हैं. मनुष्य के शरीर में लोकदेवताओं का अवतरण हो अथवा लोक देवताओं द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य की जानकारी देना ये ऐसे प्रसंग हैं जो लोकेतर व्यक्ति के लिए कौतुहल का विषय हो सकती हैं लेकिन स्थानीय लोकजीवन के लिए जीवन का एक अभिन्न हिस्सा.
(Twal Article by Bhuwan Chandra Pant)
लोक विश्वास की ऐसी ही एक मान्यता है- रात में दिखाई देने वाले ट्वाल. कुमाऊनी लोकभाषा की एक खासियत है कि हिन्दी के कई शब्दों को जब हम अपने लोकजीवन में व्यवहृत करते हैं तो शब्द का प्रथम व्यंजन लघु अथवा हृस्व हो जाता है. जैसे गोला का ग्वल, चोला का च्वल, झोला का झ्वल इसी तरह ट्वाल शब्द भी टोली से ही परिवर्तित प्रतीत होता है. टोली यानि झुण्ड, ट्वाल भी एक से अनेक में झुण्ड रूप में दिखते हैं. अगर किसी मैदानी क्षेत्र के वाशिन्दे से ट्वाल का जिक्र करें तो उसके लिए यह एक कोरी कल्पना हो सकती है जब कि पहाड़ के गांवों में जो रहे हैं, अपने जीवन में उन्होंने ट्वाल कभी न कभी अवश्य देखे होंगे.
ट्वाल के पीछे कारण चाहे मिथकीय लोकविश्वास हो अथवा वैज्ञानिक आधार इतना तो निश्चित है कि ट्वाल का प्रकाश दूरी से ही दिखाई देता है जो पहाड़ों में दिख पाना संभव है. मैदानी क्षेत्रों में ट्वाल होते भी होंगे तो दूर तक दृष्टि न जाने से उन्हें देख पाना संभव नहीं है. हमारे बालमन में इसे भूत-प्रेत अथवा अतृप्त आत्माओं का प्रतीक बताकर जो लोकज्ञान ठॅूसा गया, अब वैज्ञानिक सोच विकसित होने के बावजूद मन के अन्दर कहीं न कहीं इसे देखकर बचपन का वह बिम्ब उभर ही आता है.
हमारा घर तल्ला निगलाट गांव (जो अब कैंचीधाम नाम से अधिक चर्चित है) की घाटी की तलहटी में था और घर के ठीक सामने उत्तर-पूर्व की ओर का पर्वत शिखर है और अस शिखर की दूसरी तरफ की ढलान पर तितोली नाम का गांव है. इसी पर्वत के पैंताने में जो हमारे घर से 45 डिग्री के कोण पर था, वहॉ तीन-चार मवासों की एक तोक थी, जिसके सिरहाने पर देवी मां का पुराना मन्दिर भी है. इसी तोक के इर्द-गिर्द कुछ, खण्डहर हो चुके मकानों के भग्नावशेष थे और इसी तोक को हम ’गौं’ (गांव) कहते थे. दो तीन मवासों की तोक गौं तो नहीं कही जा सकती लेकिन घर के बड़े बुजुर्गों से विरासत में मिला यह नाम हमने भी अपना लिया. लेकिन आज सोचते हैं ये ’गौं’ कैसा हो सकता है? या तो हो सकता है, कभी यह बड़ा गांव रहा होगा और किसी प्राकृतिक आपदा से तहस-नहस हो गया हो. हमारे घाटी की तलहटी से 45 डिग्री के कोण पर स्थित इस गांव के ऊपर की पहाड़ी पर घुमावदार रास्ता तितोली गांव को चढ़ता था. तितोली गांव मुख्य रूप से फलों के लिए मशहूर था, इसलिए बाजार तक फल पहुंचाने के लिए गांव के ऊपर से तितोली तक की लगभग दो किमी की सर्पाकार बटिया (चौड़ा पहाड़ी रास्ता) फलों के सीजन में दिन में नेपाली मजदूरों से आबाद रहती थी और अमावस की रात को ट्वालों से गुलजार. हमारे लिए यह बटिया फलों के ढुलान के लिए आकर्षण का केन्द्र नहीं थी बल्कि इस पहाड़ी पर अमावस की रात को ट्वालों का दिखना किसी रहस्य से कम नहीं था. लगभग एक किलोमीटर की क्षैतिज दूरी पर अमावस की रात शुरू होते ही ट्वाल दिखाई देने लगते एक मशाल के रूप में. पहले केवल एक मशाल जैसा प्रकाश दिखता फिर एक से क्रमशः सात-आठ तक हो जाते और लगभग उसी बटिया के घुमावदार रास्ते पर चलते प्रतीत होते. जैसे कोई आदमी टॉर्च लेकर रास्ते-रास्ते चल रहा हो और कभी रास्ते से भटककर इधर-उधर जाते और लौटकर पुनः उसी रास्ते पर आ जाते. कभी-कभी तो निश्चित रूप से किसी आदमी के टॉर्च लेकर चलने का आभास होता लेकिन जब यही मशाल एक से दो, दो से चार-आठ तक हो जाते और फिर उसी गति से एक-एक कर गायब होने लगते तो यह यकीन हो जाता कि ये कोई आदमी नहीं बल्कि ट्वाल ही हैं.
लोकविश्वास के अनुसार इन्हें अतृत्प आत्माओं के भटकना माना जाता है जबकि वैज्ञानिक सोच हड्डियों के अवशेषों से उत्सर्जित होने वाले फॉस्फोरस का प्रकाश लेकिन एक प्रश्न आज ही सहज उभर आता है कि यदि फॉस्फोरस के कारण प्रकाश दिखाई देता है तो ये ट्वाल रास्ते-रास्ते ही गति करते क्यों दिखते हैं. एक से अनेक हो जाना और फिर सिमट कर एक और फिर ओझल हो जाना. यह भी यदि अमावस की रात काली होने से ही फॉस्फोरस का प्रकाश दिखाई देता है तो अमावस के पहले दिन और अगले दिन भी रात कम अन्धेरी नहीं होती, फिर केवल अमावस को ही ट्वाल क्यों दिखाई देते हैं?
ट्वाल दिखने वाले पर्वत शिखर का स्मरण होते ही मुझे इसी पहाड़ी से लगे उस स्थान का भी स्मरण हो आया जहॉ ईजा घास काटने जाया करती थी. उस पहाड़ी के एक टीलेनुमा स्थान को वे धारबाखई नाम से पुकारती थी. बचपन में ईजा से ये नाम सुना तो यह केवल एक स्थान विशेष का नाम भर लगा. यदि नाम के पीछे निहितार्थ में जाते तो ईजा से पक्का पूछते कि इसका नाम धारबाखई क्यों कहते हैं? आज ईजा तो रही नहीं लेकिन एक सवाल मन में बार-बार आता है कि किसी स्थान विशेष का नाम यों ही नहीं रखा गया होगा. धारबाखई यानि धार की बाखली (घरों का पंक्तिबद्ध समूह) का मतलब है कि कभी ये एक बाखली रही होगी. धार तो आज भी मौजूद है लेकिन बाखली के नाम पर निर्जन जंगली टीला बसासत से काफी दूर, जहॉ पर केवल चीड़ के पेड़ व घास के अलावा बसासत का तो नामोनिशान नहीं है. हॉ कुछ दीवारों के अवशेष हैं जो इस तरफ ईशारा अवश्य करती हैं कि ये दीवारें खेतों की रहीं होंगी. आखिर कभी तो यहॉ निश्चित रूप से बाखली रही होगी यूं ही नाम कौन रख देता भला इस जंगल का?
(Twal Article by Bhuwan Chandra Pant)
1980 के दशक में जब कैंची से हरतफा के लिए मोटर मार्ग का निर्माण हुआ तो सड़क इसी धारबाखई के पैंताने और गांव के सिरहाने के बीच काटी गयी. बताते है कि सड़क कटान के दौरान कुछ बर्तन, त्रिशूल जैसी चीजें सड़क की कटाई के समय मिली और सड़क के किनारे ही उन्हें देवस्थान के रूप में स्थापित कर दिया गया. यह इस बात को बल देता है कि कभी यहॉ भी हंसते-खेलते परिवार रहते होंगे और सैंकड़ों साल पहले प्राकृतिक आपदा के कारण यह बाखली जमींदोज हो गयी होगी. हो सकता है वर्तमान गांव भूस्खलन से फैले मलुवे के ऊपर बना हो. खैर, ये तो पुरातात्विक सर्वेक्षण का मुद्दा है. कब से व किसने इस जमींदोज बस्ती वाले स्थान का नाम धारबाखई रखा किसी को नहीं मालूम. यदि पुरातात्विक सर्वेक्षण होता तो हो सकता है, कई नये राज खुलते.
लेकिन जब इस धारबाखई नामक जंगली टीले को रात में दिखाई देने वाले ट्वालों से जोड़ते हैं तो दोनों विश्वासों को बल मिलता है. एक तो यह कि इस जमींदोज बस्ती में दफन हुए इन्सान व जानवरों की हड्डी का फास्फोरस ट्वाल के रूप में दिखता है अथवा लोकविश्वास के अनुसार बेमौत जमींदोज हुए लोगों की भटकती आत्माऐं ट्वाल के रूप में दिखती हैं और ट्वाल दिखना भी यह प्रमाणित करता है कि इसके आस-पास कभी बस्ती रही होगी, विज्ञान के नजरिये से भी और लोकविश्वास के आधार पर भी.
(Twal Article by Bhuwan Chandra Pant)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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