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नहीं रहे विष्णु खरे

[हिन्दी के वरिष्ठ  कवि और प्रतिष्ठित सम्पादक-अनुवादक विष्णु खरे का आज निधन हो गया. अनेक भाषाओं के ज्ञाता और संगीत-सिनेमा के विशेषज्ञ विष्णु जी अपनी तरह के इकलौते साहित्यकार थे जिनकी सोच और रचना-प्रक्रिया का दायरा पूरी तरह वैश्विक और आधुनिक था. उनका जाना हिन्दी साहित्य की बड़ी क्षति है.

उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए काफल ट्री के लिए हमारे नियमित स्तम्भकार अमित श्रीवास्तव ने उनकी कविता पर लिखा अपना एक अप्रकाशित लेख भेजा है – सम्पादक]

 

सीधी मुठभेड़ के कवि : विष्णु खरे

– अमित श्रीवास्तव 

जब परमानन्द श्रीवास्तव ये लिखते हैं कि ‘विष्णु खरे में एक निर्मम आत्म परीक्षण करने वाली आलोचनात्मक जिज्ञासा है जो औपचारिक लिहाज या शील को कोई छूट नहीं देती और आज के समय में संवेदना के क्षरण को राजनैतिक समाजशाष्त्रीय संदर्भों तक ले जाती है…. समय और समस्याओं की अंधेरी जडों में धंसकर सुघड़ता के विरुद्व, औपचारिकता के विरुद्व, कृत्रिम सौदर्यात्मक परिष्कार के विरुद्व विष्णु खरे काव्यचितंन के एकदम नए ढांचे व आलोचनात्मक मुहावरे की जरुरत का अहसास कराने वाले कवि हैं’ तब सुघड़ता, औपचारिकता और सौंदर्यात्मक परिष्कार के विरुद्ध खड़े इस बेबाक कवि की मुठभेड़ को समझना थोड़ा आसान हो जाता है.

विष्णु खरे वस्तुतः तफसील के कवि हैं. वो कहानी को कविता में कहते हैं. वृतांतता उनका केन्द्रीय गुण है. वो विचार को घटना की तरह और घटना को सिलसिलेवार ब्योरों की शक्ल में कविता के प्रचलित प्रतिमानों पर कसते हैं. कई बार ऐसा होता है कि कविता के बंधे बंधाये प्रतिमान टूटते हैं, ढांचा बिखरता है लेकिन विष्णु खरे पूरे सच को, पूरे समय को समग्रता से पकड़ने की अपनी प्रतिबद्वता का परित्याग नहीं करते .

कुछ ऐसी ही होप इस सामने वाले ढेर के बारे में एक्सप्रेस की जा रही
है हालांकि अब तक यहां से दो सिपाहियों की बॉडीज निकाली जा
चुकी हैं एडमिनिस्ट्रेटिव हैड क्वाटर्स की तरह यह जो शहर कोतवाली
थी आलमोस्ट पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है

विष्णु खरे समय की त्रासदी को कविता में आवाज देने के कवि हैं. समय को कविता में लाने के अपने खतरे हैं. सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि कवि आज की त्रासदियों, विडंबनाओं और कुरूपताओं से डरकर स्यापा सा करने लगता है. इस तरह की ‘रूदन कविताएं’ समकालीन कवियों में बहुधा दिखाई देने लगी हैं. एक खतरा यह भी है कि समकालीन कवि वर्तमान की विडंबनाओं से चिढ़कर ‘हाईपर नोस्टाल्जिक’ होने लगता है. आज की हर समस्या का समाधान उसे अतीत में दिखाई देने लगता है. इतिहास की हर गतिविधि गौरवमय हो जाती है. दोनों ही परिस्थितियों में उस संतुलित दृष्टिकोण से दूरी बन जाती है जो किसी भी कवि अथवा रचनाकार में होना चाहिए. विष्णु खरे इन दोनों ही अतिवादी स्थितियों को चुनौती हैं. वो न तो यथार्थ की त्रासदी पर गलाफाड़ रुदन करने लगते हैं और न ही अतीत का महिमा मण्डन. वो समय को पूरे यथार्थता के साथ पकड़ते हैं और पूरे मानसिक सन्तुलन के साथ उसकी चीड़ फाड़ करते हैं. चाहे वो ‘एक चादर पर लिटाये गये पन्द्रह शिशुओं’ की बात कर रहे हों अथवा ‘किसी विनाश ग्रस्त इलाके से एक सीधी टी0वी0 रपट’ दे रहे हों, विष्णु खरे जो है, जैसा है, वैसा का वैसा ही प्रस्तुत कर देते हैं बिना लाग लपेट के. समकालीन कवि की पूरी जिम्मेदार मुद्रा के साथ.

उन्होंने पार्क के उस पेड़ के नीचे अड्डा बना लिया है
खेलने के लिए वे आसपास से
कुठ ईंटे और पत्थर लाए हैं
उन्हें गोलाकार सजाकर उनके बीच में बैठते हैं
वह उनका घर है
लेकिन झाड़ियों में खोई हुई गेंद को खोजने के उत्तरदायित्व में वे यह
असुविधा भूल जाते हैं

विष्णु खरे की कविता भूमण्डलीकरण के खतरों से सीधी मुठभेड़ करती है. विष्णु खरे उन कवियों में से हैं जो भूमण्डलीकरण के कारण तेजी से बदल रहे आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य को हर स्तर पर पकड़ने का प्रयास करते हैं, घटनाओं के स्तर पर, विचार धारा के स्तर पर और कहीं आगे जाकर मूलभूत माननीय मूल्यों के स्तर पर भी.

लेकिन तुम पर दो सबसे संगीन आरोप ये हैं नरसिंह राव कि तुमने
खुलेपन और उदारीकरण का इन्द्रजाल रचकर
देश में बीस लाख की घड़ियों
और तीन हजार के जूतों का बाजार खोला है
जबकि जानवरों से भी बदतर नसीब वाले चालीस करोड़ को
दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है

ये बिलकुल ही गैर राजनैतिक रुप से राजनीति पर सीधा प्रहार है. कहीं कोई संकोच या कन्फ्यूजन नहीं है. कोई राजनीति नहीं है. भूमण्डलीकरण से जो सबसे खतरनाक चीज बढ़ रही है और जिस पर इन पंक्तियों में भी इशारा है, वह है अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई. परिष्कृत भाषा में कहें तो ‘हैव्स और हैव्स नॉट’ का ये द्वन्द्व समकालीन चितंक के लिए सबसे बड़ा विमर्श है. इसका कारण भी स्पष्ट है. भूमण्डलीकरण वर्चस्ववादी ताकतों की राजनीति से उपजी एक पूंजीगत प्रक्रिया एवं विचारधारा है जिससे अन्ततः वर्चस्ववादियों को ही लाभ मिलता दिखता है. ये अलग बात है कि ये राजनीति इतनी सफाई के साथ की जा रही है कि सर्वहारा या शक्तिहीनों को भी यह मुगालता पालने में आसानी है कि उन्हें भी कुछ लाभ मिलेगा. विष्णु खरे इस राजनीति से वाकिफ हैं.

हिटलर की वापसी अब एक राष्ट्रव्यापी भारी उद्योग है
जिसमें मोटर गाड़ियां बनाने वालों से लेकर
नुक्कड़ पर नान बाई की दुकान वाले तक को कुछ न कुछ मिलना है
यूरोपीय संघ और अमरीका के उत्साही
इसे गहरी दिलचस्पी से देख रहे हैं
और सबसे ज्यादा प्रेरित हैं
राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद, वकील, अखबारनवीस और बुद्विजीवी

विष्णु खरे की एक और विशेषता है, यथार्थ की विडंबनाओं का साधारणीकरण. यह साधारणीकरण इन विडंबनाओं को और अधिक भयावह बनाता जाता है. कविता के स्तर पर विष्णु खरे की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि लगभग कहानी जैसी विधा में कविता लिखने वाले, अभिधात्मकता को मुख्य सौन्दर्भ शास्त्र बनाने वाले कवि के लिए कुछ तो ऐसा चाहिए जो कविता में कही गई बात को महत्वपूर्ण दिखा सके. विष्णु खरे सामान्यीकरण को एक औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं. चाहे वो ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’ जैसी कविता हो अथवा ‘लड़कियों के बाप’, विष्णु खरे सामान्यीकरण के जरिए स्थिति की भयावहता को मुखरित करते हैं. यहां ‘जिनकी अपनी कोई दुकान नहीं होती’ कविता विशेष रुप से उल्लेखनीय है. इसमें बाजार है, बाजार की चालाकियां हैं, बाजार की राजनीति है. ये उन खुदरा व्यापारियों की व्यथा कथा के माध्यम से प्रदर्शित होती है जिनकी अपनी कोई दुकान नहीं होती. कविता बाजार की संस्कृति पर मुक्कमल चोट है. ये धीरे-धीरे बढ़ रहे बाजार की संस्कृति की ही देन है कि जिनकी अपनी कोई दुकान नहीं होती-

अक्सर उन्हें किसी खुली बहती नाली के पास ही ठिया मिलता है
उनकी कोई ईनामी योजना नहीं
उनकी चीजों के इतने दाम कहां
कि क्रेडिट कार्ड स्वाइप करना पड़े
या ए.टी.एम. से पैसे निकालने पड़ें
पुलिस और मुंसीपाल्टी के उड़नदस्ते विशेषतः उन्हीं के लिए भेजे जाते
हैं
सबसे पहले वे ही पकड़े, पीटे और बन्द किए जाते हैं
और तेजी के इस दौर में इस समूचे बाजार के
खैरख्वाहों और सरपरस्तों में
उनकी उपयोगिता नहीं के बराबर है
और उनके हाथ भी इतने लम्बे नहीं
इसलिये उनका कोई संगठन बनना
उनके या दूसरों के लिए फायदेमंद हो नहीं सकता

ये बात पूरी सामाजिक व्यवस्था पर ही लागू होती है. आज के उपभोक्तावादी समाज में मनुष्य की उपयोगिता बाजार में उसके हिस्से या दाम के बराबर है. वो जो गरीब हैं, पिछड़े हैं, शोषित हैं उनका कोई नामलेवा नहीं है. यहां तक कि सरकार भी नहीं. विष्णु खरे की कविता भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीतियों की वजह से और गरीब, और शोषित, और पिछड़े होते जा रहे लोगों के पक्ष में खड़ी है.

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