पहल के ताज़ा अंक में अपनी डायरी की शुरुआत में विष्णु खरे की कविता, ‘एक कम’ की आख़िरी चार लाइनों से शुरुआत की थी. यह एक बहुत अजीब सा और अब बहुत अटपटा और उदासी जैसा संयोग लगता है. पहल 113 के ऑनलाइन जारी हुए चंद रोज़ ही बीते थे कि यह ख़बर मिली की वो अस्पताल में नाजुक हालत में भर्ती कराए गए हैं. विष्णु खरे की कविताओं में ना होने को होना बनाने की न रहने को रहना बनाने की विकलता और द्वंद्व और करामात है. वो बहुत ज़िद्दी कवि हैं. वे अपनी कुछ कविताओं में अपने न रहने की बातें भी जैसे पूर्वाभास की तरह करते हैं. मंगलेश डबराल ने मृत्यु से लड़ने की उनकी जिजीविषा और उनके शीघ्र स्वस्थ होने की व्याकुल कामना में लिखा था- “यह अनोखा योद्धा और मूर्तिभंजक कवि अपने भीतर भी मृत्यु को ढहाने में लगा होगा और लौट आएगा.”
वो नहीं लौटे. कोमा के रास्ते अपनी मृत्यु में दाखिल हो गये.
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से/ मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंदी या हिस्सेदार नहीं/ मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम कम से कम/ एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो.
दिल्ली प्रेस क्लब की वो एक धुएं, शोर और उठती गिरती आवाज़ों वाली एक और शाम ही थी. मंगलेश जी ने कहाः विष्णु खरे और चंद्रकांत पाटील शहर में हैं, चलो मिलते हैं. हम लोग मिलने गये. मैं जर्मनी से लौटा ही था. दोनों विभूतियां एक कोने पर विराजमान थीं- सिकुड़े हुए से बैठे हुए अद्वितीय मराठी कवि और हिन्दी के मराठी अनुवादक चंद्रकांत पाटील, और उनकी बगल की कुर्सी में अपनी विशाल सी दिखती काया के साथ विष्णु खरे. संयोगवश उनके ठीक सामने की कुर्सी पर मैं बैठा- मेमने की तरह. खुद को घूरती हुई आंखों के सामने पड़ता हुआ. तो तुम लौट आए. जी. क्यों. जी…जी….वो…यहां क्या करोगे… जी…जी….अच्छा छोड़ो. वहां कौन देख रहा है आजकल…..जवाबों के साथ ये कुछ सेकंडो का संवाद पूरा हुआ और “विष्णु” ने एक ओर हौले से गर्दन घुमाई. तो मंगलेश….??!! कुछ देर हिन्दी की भावभीनी अंतर्कथाएं चलीं.
विष्णु खरे शब्दों को चबाते हुए बोलते हैं. जैसे इस कवि का यही तरीक़ा है शब्दों की तह तक उनके सबसे विश्वस्त अर्थों और आशयों तक पहुंचने का. और फिर टेढ़ी सी एक मुस्कान, एक व्यंग्य की लकीर और कुछ ठहाके ज़रा भर. अपने प्रिय कवियों के बारे में सोचने पर लगता है कि हर कवि कितना अलग कितना अनूठा है. अपनी सही पहचान तक कभी न पहुंचने देने की चतुराई. कवि एक दीवार के भीतर तो रहता ही है. विष्णु खरे तो सबसे कुछ ज्यादा ही थे. न जाने किस धातु की दीवार थी.
विष्णु खरे समकालीन हिन्दी कविता के सबसे बेझिझक सबसे बेलाग कवि थे. वे निस्संकोच अपनी बात कह देते थे और जोखिम उठा लेते थे. तारीफ़ भी ऐसी करते थे जैसे कोई वृत्तचित्र बना रहे हों. उनकी फटकार की बौछारें समकालीन हिन्दी पर खूब बरसी हैं. बहुत से लोग तरबतर हुए हैं. वे खुद भी कम नहीं भीगे. विष्णु खरे घर के उस बूढ़े की तरह थे जो खुद को भोर चार बजे जगा देता है और उसके बाद घर के लोगों को उठा डालने के लिए कोहराम सा मचा देता है. विष्णु खरे कहते नहीं थे- धमका देते थे. ऐसा कवि नहीं हुआ जो अपयश का, निंदा का, पलटवार का, अपमान का जोखिम उठाकर, कड़वी बात कह देता हो, खराब कवि और खराब कविता, खराब समीक्षा, खराब आलोचना खराब सिनेमा को न सिर्फ खराब बता देता हो बल्कि उनको हिला देता हो. क्या ये विष्णु खरे का अहंकार था क्या ये उनकी आत्ममुग्धता थी. क्या वे खुद को भाषा का सबसे बड़ा मुक्तिदाता समझते थे. शायद नहीं. वे इसे अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे. विष्णु खरे ऐसे कवि-नागरिक थे जो मूल कर्तव्यों को, अपने दायित्वों को पहचानते थे और अमल में लाते थे. उनकी बातों से हमेशा सहमत होना नितांत कठिन था फिर भी उनमें कुछ ऐसी ताब थी कि असहमत होते हुए भी आप उनसे दूर नहीं जा सकते थे. उनकी छांव में फैलाव था.
विष्णु खरे ने जब उस्ताद चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन के बारे में लगभग निर्ममता और निर्दयता से लिखा तो उनके चाहने वाले बहुत से लोग स्तब्ध रह गए. विष्णु खरे के प्रति प्रेम और सम्मान के साथ साथ यह दुख भी नहीं जाता है. वो शायद ये बात जानते थे. शायद उन्हें बाद में अपनी बात कचोटती भी रही होगी. इस बारे में कभी उनसे सीधी बात नहीं हुई. उनके हुसेन पर प्रकाशित लेख का आखिरी वाक्य था कि ‘वक्त के सिवा हुसेन के पास सब कुछ इफरात में हैं.’ इस वाक्य में एक कट्टरवादी भयानकता थी. लेकिन यह हिंदी के लेखकों, कवियों और पाठको का उनके प्रति प्रेम ही था जो ये बात जल्द भुला दी गई.
पुरस्कार वापसी और पानसरे, कलबुर्गी, दाभोलकर जैसे विद्वानों और तर्कवादियों की हत्याओं पर भी विष्णु खरे के स्टैंड ने विचलित किया. लेकिन उनकी कुछ बातें एक कड़वे और असहज करने वाले यथार्थ से ही बनी थीं. बीबीसी हिन्दी में उन्होंने लिखा, “संस्कृति, कलाएँ और साहित्य इस देश में दयनीय हाशिए पर हैं. ग़ौर किया जाए कि कोई भी राजनीतिक पार्टी लेखकों के साथ नहीं है. देश के लाखों शिक्षक और वकील इस मसले पर उदासीन हैं. अख़बार इसे समुचित गंभीरता से उठा नहीं रहे. भारत में सामूहिक अंतरात्मा है ही नहीं. असली या नक़ली सैद्धांतिक मतभेद, मोहभंग और सर्वसंशयवाद (सिनिसिज़्म) इतने व्याप्त हैं कि लेखकों में ही एकजुट होकर सड़क पर उतरने का संकल्प नहीं है. ऐसे सार्वजनिक इस्तीफ़ों, पुरस्कार-त्यागों से कुछ को थोड़ा सच्चा-झूठा कीर्ति-लाभ हो जाएगा, बायो-डेटा में एक सही-ग़लत लाइन जुड़ जाएगी, अकादमियाँ और सरकारें मगरमच्छी अश्रु-पूरित नेत्रों से अपने बेपरवाह रोज़मर्रा को लौट जाएँगी.” यह सही है कि भारत में सामूहिक अंतरात्मा का अभाव है या है भी तो वो नजर नहीं आती. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हो सकता था कि उसे जगाने या झिंझोड़ने या पैदा न करने के प्रयास न किए जाएं. यह पहले भी हुआ है और अपने अपने स्तरों पर आज हो रहा है तो इसकी मुख़ालफत या इस पर संदेह करने के बजाय इसका समर्थन, सहायता और भागीदारी करना ज़्यादा ज़रूरी, ज़्यादा मानवीय और ज़्यादा नैतिक जान पड़ता है. इस तरह उनके प्रिय साथी लेखकों, उनके प्रशंसकों ने उनकी बातों पर यथासंभव विरोध और निराशा भी जतायी थी.
विष्णु खरे के प्रति असीम प्रेम रखने वाले ही कह सकते हैं कि वो अपनी कविताओं में एक प्रतिबद्ध नागरिक एक प्रतिबद्ध साहसी एक्टिविस्ट थे. सच्चे विष्णु खरे को आप उनकी कविता में ही पा सकते हैं उससे बाहर नहीं. या उनकी फिल्म समीक्षाओं में जहां वे बेजोड़ हैं और रहेंगे. उन्होंने नागरिक व्यथाओं और संघर्षों और उसके डाएलेक्ट को अपने खास गद्यात्मक प्रवाह में जिस तरह से ढाला है, और जैसी वो चोट करती हुई दिल पर गुजरती हुई भाषा है- जैसा वो ड्राफ्ट है- वह विरल है. अपनी पत्रकारीय छटपटाहटों को कविता के कारखाने में डालकर विष्णु खरे ने हिंदी कविता को नया आयाम दिया है, नई भाषा. इस मायने में वो विलक्षण हैं. वरिष्ठ पत्रकार लेखक इरफ़ान के साथ राज्यसभा टीवी पर एक ख़ास बातचीत में उन्होंने कहा था कि भाषा और संघर्षों में उतरने के लिए कवि-लेखक का पत्रकार होना अच्छा है. वह दोनों छोरों से अपने सृजनात्मक अभ्यास और लड़ाई के लिए उपकरण जुटा सकता है.
हाल के दिनों में विष्णु खरे बहुत तीखे और एक्टिविस्ट जैसे ताप में सांप्रदायिकों, फ़ाशिस्टों और नकली लोगों पर विस्फोटक हो चले थे. उनकी कविता ‘दज्जाल’ खड़े रह पाने के संघर्ष और चुनौतियों के साथ साथ एकजुटता का बेलाग आह्वान है. वे रफ़ादफ़ा करने वालों में नहीं थे. इधर उनकी कविताओं में ऐसा लग रहा था कि नया नागरिक बनाने के लिए एक योद्धा कवि निकला है. आज के ‘दज्जाल’ से मानो सबसे पहले उसकी ही मुठभेड़ होगी. आखिरकार विष्णु खरे दक्षिण एशियाई भूगोल के ऐसे साहिबेज़बान हैं जिन्हें उनकी तल्खियों से ज़्यादा इस कवि-रूप में हमेशा याद किया जाएगा जो मौजूदा नागरिक विडंबनाओं, नाउम्मीदियों, विवशताओं और फाशीवादी भयानकताओं के दौर में ‘दज्जाल’ के खिलाफ निर्णयात्मक लड़ाई के लिए एक जमीन तैयार करता हुआ दिखता है. आज इन लड़ाइयों के आसमान पर चमकता हुआ नक्षत्र हैं विष्णु खरे.
उन्हें सलाम.
शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: joshishiv9@gmail.com
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बहुआयामी विष्णु जी के कुछ आयामों पर रोशनी डालती पोस्ट।