विष्णु जी नहीं रहे. हिंदी साहित्य संसार ने एक ऐसा बौद्धिक खो दिया, जिसने ‘बिगाड़ के डर से ईमान’ की बात कहने से कभी भी परहेज़ नहीं किया. झूठ के घटाटोप से घिरी हमारी दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम रह गए हैं. निर्मम आलोचना की यह धार बगैर गहरी पक्षधरता और ईमानदारी के सम्भव नहीं हो सकती थी.
बनाव और मुँहदेखी उनकी ज़िंदगी से ख़ारिज थे. चुनौतियों का सामना वे हमेशा सामने से करते थे. अडिग-अविचल प्रतिबद्धता, धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि और विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष करने का अप्रतिम साहस हमारे लिए उनकी विरासत का एक हिस्सा है.
गद्य में कविता सम्भव करने की जो अनूठी कला रघुवीर सहाय ने विकसित की थी, विष्णु जी उसे अगले मक़ाम तक ले गए. निरी गद्यात्मक होती जाती दुनिया में गड़कर अपनी समकालीन कविता सम्भव करने का कठिन काम उन्होंने सम्भव किया. वे अपनी लम्बी कविताओं के सहारे गहरी बेचैनी की दुनिया पाठक के लिए खोलते हैं, मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि यों ही न थे. तमाम मिथकों और कथाओं को काव्य के रसायन में घोलकर वे आधुनातन कर सकने की सिफ़त रखने वाले अनूठे कवि थे.
नई पीढ़ी के बहुतेरे कवियों ने विष्णु खरे से सीखा. ‘ख़ुद अपनी आँख से’, ‘सबकी आवाज़ के परदे में’, ‘पिछला बाकी’, ‘लालटेन जलाना’, ‘पाठांतर’ और ‘काल और अवधी के दरम्यान’ जैसे संग्रह हमेशा ही नई ज़मीन तोड़ने वाले इस कवि को हमारे बीच ज़िंदा रखेंगे. उन्हीं के शब्दों में: ‘हमें बिखेरना होगा उनके आईनों में से/ गिरता मायावी प्रकाश/ उनकी प्रसिद्ध राजधानियों को/ अपनी भाषा के प्रक्षेपास्त्रों से उजाड़ना होगा’.
वे विश्व और भारतीय कविता के बीच जीवंत पुल थे. जर्मन कवियों की कविताओं का उनका अनुवाद ‘हम चीख़ते क्यों नहीं’ उनके उत्कृष्ट अनुवाद का नमूना ही नहीं, उनके चयन के मानकों को भी दिखाता है. इलियट, चेस्वाव मिवोश, अत्तिला योजेफ और बिस्लावा शिंबोर्सका जैसे कवि उनकी मार्फ़त हिंदी पाठकों तक पहुँचे. इन दिनों संभवत: वे मुक्तिबोध के अनुवाद में मुब्तला थे. अनुवाद की मार्फ़त हिंदी के दो यशस्वी कवियों का यह सम्वाद देखना सचमुच रोचक होता, पर…
संस्कृति के अन्यान्य क्षेत्रों में भी उनका गहरा दख़ल था. पत्रकार, सम्पादक, अनुवादक, फ़िल्म समीक्षक, आलोचक, कवि, टिप्पणीकार जैसी कई भूमिकाओं में वे लगातार आवाजाही करते रहे. उनकी आलोचना की पुस्तक ‘आलोचना की पहली किताब’ मूर्तिभंजक तेवर के लिए हमेशा याद की जाएगी. युवाओं और नए विचारों के प्रति उनका लगाव अद्भुत था और गुरुडम से अथक विरोध. लेखक की सामाजिक ज़िम्मेदारी उनके लिए बेहद अहम थी.
विष्णु जी का जाना इस भीषण समय में बौद्धिक हिरावल के एक साथी को खो देने जैसा है.
[मृत्युंजय द्वारा जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद की ओर से जारी]
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